संविधान की अवमानना का भी संज्ञान लीजिये

राकेश अचल

आजकल सियासत के बाद सबसे ज्यादा सुर्ख़ियों में अदालत है, क्योंकि जितनी भी गुत्थियां हैं उन्हें अदालत को ही सुलझाना पड़ रहा है, फिर चाहे प्रशांत का मामला हो या सुशांत का। ये अच्छी बात भी है क्योंकि अब जनता का एकमात्र सहारा अदालतें ही तो बची हैं, वरना सबके सब जनता को ठगने में लगे हैं, इसलिए मैं सोचता हूँ कि अदालत को अपनी अवमानना के साथ ही संविधान की अवमानना करने वालों के खिलाफ भी स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करना चाहिए। ताजा मामला है मध्यप्रदेश का जहाँ मुख्यमंत्री ने सरकारी नौकरियों में स्थानीय निवासियों को सौ फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की है।

भारत के हर स्कूल-कॉलेज गए नागरिक ने पढ़ा होगा कि संविधान नागरिक के मूल अधिकारों में छेड़छाड़ की इजाजत नहीं देता लेकिन सबने देखा होगा कि क्षुद्र राजनीति के लिए हरेक राजनीतिक दल नागरिकों के मूल अधिकारों में छेड़छाड़ की न सिर्फ कोशिश करता है, बल्कि तब तक करता रहता है जब तक कि देश की बड़ी अदालतें उनके कान न उमेंठ दें। एक मोटी जानकारी के मुताबिक देश के कोई 20 राज्यों में कुरसी पाने या कुरसी पर बने रहने के लिए इसी तरह की कोशिशें की गयी हैं जैसी कि हाल ही में मध्यप्रदेश में की गयी है।

साल भर पहले तक जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के कारण वहां भी ऐसी ही पाबंदियां थीं, अब धारा 370 हट गयी है लेकिन अब भी वहां स्थिति पहले जैसी ही है सिवाय इसके की दो जिलों में जनता को 4 जी का नेटवर्क मिलने लगा है। देश में जब एक निशान, एक संविधान की बात की जाती है तब बीच-बीच में ये स्थानीय बंधन कैसे प्रकट हो जाते हैं? आप कैसे एक राज्य से दूसरे राज्य में नौकरियों को दूसरे के लिए प्रतिबंधित कर सकते हैं? ऐसा तभी हो सकता है जब कि आपने अपना संविधान बदल लिया हो या फिर आप संविधान की परवाह करना छोड़ चुके हों?

आपको याद हो या न हो लेकिन मुझे याद है कि देश में कोई भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जो चुनावों के समय इस तरह की असंवैधानिक और भड़काऊ घोषणाएं न करता हो। महाराष्ट्र में बाहरी लोगों को एक समय शिव सैनिकों ने मार-पीट कर भगाने की कोशिश की थी, हरियाणा, गुजरात, छग, तमिलनाडु और दिल्ली, चंडीगढ़ समेत कितने ही राज्य/केंद्र शासित प्रदेश हैं जो अपने प्रदेश के लोगों को सरकारी नौकरियों में शत-प्रतिशत आरक्षण देने की बात करते हैं। ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि देश का ढांचा कैसा है? वहां ऐसा करने की सुविधा है या नहीं? अखिल भारतीय सेवाओं में ऐसा कोई बंधन क्यों नहीं है?

राज्यवाद के कारण एक राज्य से दूसरे राज्य में यात्री बसों की आवाजाही के अलावा अनेक ऐसे काम हैं जो जानबूझकर बाधित किये जाते हैं, लेकिन गरीब संविधान की इस अवमानना के खिलाफ कोई खड़ा नहीं होता। किसी को न दोषी पाया जाता है और न किसी को सजा सुनाई जाती है? संविधान की शपथ लेने वाले ही जब संविधान की अवमानना के आरोपी हों तो कोई कैसे न्याय की अपेक्षा कर सकता है। नौकरियों में मूल निवास की शर्त रखने वाले क्यों भूल जाते हैं कि चुनाव लड़ने में, पूंजी निवेश करने में ऐसा कोई नियम-क़ानून इसी राज्य ने क्यों नहीं बनाया? क्यों पूरब के नेता को पश्चिम से राज्य सभा में भेज दिया जाता है? क्यों महाराष्ट्र के उद्योगपति की पूंजी मध्यप्रदेश में स्वीकार कर ली जाती है? शादी संबंधों और स्कूल-कालेजों में प्रवेश के लिए ऐसे नियम क्यों नहीं बनाये जाते?

देश में इस विवादास्पद और असंवैधानिक मुद्दे को लेकर अनेक समितियां बन चुकीं हैं, ऐसी समितियों की रिपोर्ट्स धूल फांकती रहती हैं लेकिन होता कुछ नहीं है। मध्यप्रदेश में डेढ़  दशक तक अखंड राज करने वाली भाजपा ने पहले इस तरह की घोषणा क्यों नहीं की, क्योंकि उसे तब इसकी जरूरत नहीं पड़ी। आज उसके सामने दो दर्जन से अधिक विधानसभा सीटों के उप चुनाव जीतने की चुनौती है, इसलिए जनता को एक झुनझुना पकड़ा दिया गया है। जनता झुनझुनों से खेलने की आदी हो चुकी है, वो ये कभी नहीं देखती की उसे जो झुनझुना पकड़ाया जा रहा है उसकी उपयोगिता है भी या नहीं?

मुझे लगता है कि इस तरह की घोषणाएं करने वाले राजनेता या तो कुपढ़ होते हैं या फिर जानबूझकर संविधान की अवमानना करने का दु:साहस करते हैं, या उनके महाधिवक्ता गुड़ खाकर बैठे रहते हैं और उन्हें घोषणाओं के कानूनी पक्ष की जानकारी नहीं देते। लेकिन अब स्थितियां बदलना चाहिए, देश की संवेदनशील बड़ी अदालतों को अपनी अवमानना के साथ-साथ संविधान और जनता की अवमानना के मामलों में स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करना चाहिए। यदि ऐसा न किया गया तो देश में अराजकता पैदा हो जाएगी। एक निशान, एक विधान, एक राशनकार्ड की बात करना और दूसरी तरफ क्षेत्रवाद को प्रोत्साहित करना परस्पर विरोधी बातें हैं, जनता के साथ ठगी है, अपराध है। फैसला आपको करना है की ये सब आगे भी जारी रहे या नहीं?

आपको नहीं भूलना चाहिए की एक तरफ राष्ट्रवाद की बात हो रही है और दूसरी तरफ क्षेत्रीयता को प्रोत्साहित किया जा रहा है, इससे एक तरफ अराजक स्थितियां बन रहीं हैं, दूसरी तरफ ‘ब्रेन-ड्रेन’ भी तेजी से हो रहा है। ऐसे में न लोकल को वोकल बनाया जा सकता है और न ग्लोबल। बातें चाहे जितनी कर लीजिये। इस मुद्दे पर कोई एक दल दोषी नहीं है क्योंकि सभी हमाम में नंगे खड़े हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here