पराधीनता के दु:स्वप्न

मनोहर नायक

रखियो ग़ालिब, मुझे इस तल्ख़ नवाई में मुआफ़/आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है…

पंद्रह अगस्त के दिन अभी कुछ साल पहले तक दिल कुछ ख़ुश रहता था इससे कहीं ज़्यादा गर्व और कृतज्ञता का भाव रहता था, यह भावना यह याद करके उपजती कि इस दिन को लाने के लिये मेरे पिता गणेश प्रसाद नायक ने भी बलिदान किया… अंग्रेज़ों की जेल में रहे और फिर जब इस पर 1975 में संकट आया तो पकी उम्र में फिर बंदी बने।

ऐसा नहीं कि ये उम्दा एहसास अब इस दिन नहीं आते, लेकिन उसमें दुख इस बेतरह घुल गया है कि पिता,  उनके यशस्वी मित्र और उन जैसे,  और उनसे भी अनगिनत बड़े बलिदानियों को लेकर यह मलाल होता है कि कैसे उनका संघर्ष अकारथ हो रहा है…किया जा रहा है। पहले न जाने कितने ऐसे लोग रह-रह कर इस दिन दिल में समाये रहते थे,  जिनका ध्येय वही था जो पिता की जेल डायरी में अतिरिक्त आराइश के साथ लिखा हुआ था,  ‘ लिव फ़ॉर ऐन आइडिया,  एंड डाइ फ़ॉर अ कॉज़‘… आज जैसे कि इन सबको ‘ख़ूं किया हुआ देखा, गुम किया हुआ पाया।’

स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े सारे उद्देश्य, मूल्य, सपने सब उखड़ी साँसों पर हैं। सालों साल से राजनीति के तत्वाधान में ये कुतरे जा रहे थे,  पर अब तो मटियामेट का संकट है। प्राचीर से गरिमा दंडवत गिर चुकी है। पाँच अगस्त को राम मंदिर शिलान्यास में मोदीजी ने उस दिन को जब एक और ग़ुलामी से मुक्ति का दिन कहा तो अगले दिन ‘द टेलीग्रफ़’ की कवर स्टोरी में कहा गया कि प्रधानमंत्री जब एक और ग़ुलामी से मुक्ति की बात कहते हैं तो उनका मतलब है संविधान की ग़ुलामी से मुक्ति का।

मोदीजी ने उस दिन की तुलना आज़ादी की लड़ाई और पंद्रह अगस्त से की थी। उस समय के नेताओं ने एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष देश का ख्‍वाब देखा था और उस हिसाब से तामीर भी शुरू की थी। एक ऐसा देश जहाँ सब हेलमेल से रहें, सबको समान अवसर व समान अधिकार हों, वह जोड़ने की एक वृहद परियोजना थी, उसकी तुलना तोड़ने के महाभियान से की जा रही है। मंदिर तक जिस रास्ते से पहुँचा गया है वह नफ़रत,  विभाजन और ख़ून ख़राबे से भरा हुआ है।

ग़ालिब के ज़माने में हो यह रहा था कि राजशाही जा रही थी, साम्राज्यवाद आ रहा था, मिर्ज़ा उसे हैरत से देखते हुए समझ रहे थे कि, ‘काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे’… तब लोकतंत्र किस चिड़िया का नाम है, नामालूम था। पर चचा ज़बर्दस्त लोकचेतना वाले थे। इस विविधता,  बहुलता भरे मुल्क़ के लिये लोकतंत्र का विचार उनके पास था… उनका शेर है, ’है रंग-ए-लाला-ओ-गुल-ओ-नहीं जुदा-जुदा/हर रंग में बहार का इस्बात चाहिये’, यानि लाला, गुल और नसरीं (सभी फूलों के नाम) का रंग अलग-अलग है, बहार की गवाही मुझे हर रंग में चाहिए…

आज हालत देखिये काले नागरिक कानूनों की दहशत है,  असहमति की गुंजाइश ख़त्म है, असहिष्णुता चरम पर है। अजब खुंदकी-खंदकी लोगों से पाला पड़ा है… इन्हें हर नियम, क़ानून,  व्यवस्था, मर्यादा,लोकलाज, शोभनीयता से खुंदक है, ये जनता के बीच, हर दो या अधिक हिलीमिली चीज़ों के बीच खाई खोदने में माहिर हैं… जितनी बड़ी खाई होगी उतना ही इनका रास्ता आसान हो जाता है।

सारी पहरुआ संस्थाएं लस्त-पस्त हैं,  राजकाज का आलम देख संस्थाएं ख़ुद अपने पाये काटने में लगी हैं,  ‘ बुलबुलों को हसरत है कि उल्लू क्यों न हुए’ का माहौल है। प्रशांत भूषण के अवमानना के मामले में जो हुआ वह शर्मनाक है। डर,  डर,  डर… हिंसा, छापा, जेल। सही बात, आलोचना तक मुहाल…’ हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ/दिल सँभाले रहो ज़ुबाँ की तरह।’

यह एक ऐसा वक़्त हम पर आन पड़ा है कि जो भी सही है वह दरअसल ग़लत है। ऐसा हुआ है तो अब यह होना चाहिये, यह सब भूल जाइये… हर जगह अब किसी के बाद वह कुछ भी हो सकता है जो पहले नियमत: नहीं होता था। अब पहले  का जाना-माना, समझा-परखा सब निरर्थक हो गया है… यहाँ तक कि हमारे देशभक्ति के गाने भी बेकार होकर रह गये हैं… उनके जज़्बे,  मकसद का कोई मतलब नहीं…

गलवान में बीस जवानों की बेवज़ह शहादत के बाद, ‘ऐ मेरे वतन’ गाने का क्या अर्थ… वतन की राह में वतन के नौजवां कहाँ है, इन दुर्दिनों में उनकी ज़रूरत ज़्यादा है… ये ‘किनके’ हवाले वतन साथियो… क्या हिम्मत वतन कि ‘इनसे’ है… अब तो अपनी आज़ादी को हम बचा सकते नहीं… जनता को तो बुरी तरह बाँट दिया, अब हम किसे आवाज़ दें कि हम एक हैं… उम्मीद के ख़याल का पल्लू भी छुटा जा रहा है… ऐ मेरे प्यारे वतन, ये क्या क़यामत है!

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