देश की निडर जनता ने दिया कोरोना को दर्द

रमेश रंजन त्रिपाठी

कोरोना ने आनन-फानन में पत्रकार वार्ता बुलाई थी। खचाखच भरे हाल में जब कोरोना प्रकट हुआ तो सभी ने मुंह ढंककर स्वागत किया। मीडियाकर्मियों की आशा के विपरीत कोरोना का चेहरा प्रसन्न नहीं था। वह निराश और दुखी लग रहा था। बिना समय गंवाए कोरोना ने अपनी बात रखी- ‘मैं एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले भारत में अपने फलने-फूलने और सबके चेहरे पर खौफ देखने की बड़ी-बड़ी उम्मीदें लेकर आया था। मुझे अपने लाइलाज होने और हवा में मार करने की काबिलियत का बहुत घमंड था। इटली, अमेरिका जैसे अनेक देशों को ‘चीं’ बुलवाकर आपका देश मुझे आसान शिकार नजर आ रहा था। यहां न अच्छी पढ़ाई है, न पर्याप्त अस्पताल। यहां के लोग इलाज के लिए डॉक्टर की दवाई से ज्यादा बाबाओं की भभूत को कारगर मानते हैं।

‘जनता के रहनुमा मुझे भगाने के लिए पूजा-पाठ करने की सलाह देते हैं। लेकिन छह महीने हो गए, मेरे आने के पहले दिन से अभी तक मैं अपना कोई खौफ पैदा नहीं कर सका। यहां के लोग मुझसे ज्यादा सूर्य और चंद्रग्रहण से डरते हैं। ग्रहण मान्यता है और मैं हकीकत। जो लोग मेरी वजह से लगाए गए लॉकडाउन में मौका मिलते ही बाहर निकल आते हैं, सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ा देते हैं वही ग्रहण के कारण स्वेच्छा से घर में बंद हो जाते हैं। मैं प्रतिदिन अपने मरीजों की संख्या में इजाफा करता हूं कि लोग त्राहि-त्राहि करने लगें, सरकारें हथियार डाल दें लेकिन यहां तो किसी को ज्यादा चिंता ही नहीं है। लोग त्योहार मना रहे हैं, नेता जनसंपर्क में जुटे हैं, न सोशल डिस्टेंसिंग हो रही है न नाक-मुंह को ढंका जा रहा है।

‘हद तो यह है कि मास्क लगवाने के लिए सरकार को एक लाख रुपए का जुर्माना लगाना पड़ रहा है। नेता खुद ही न मास्क लगा रहे हैं न लोगों से दूरी बना रहे हैं। यहां आकर पता चला है कि नेताओं के लिए सबसे बड़ी वैक्सीन अपने समर्थकों का हुजूम, स्वागत और जय जयकार है। मैं किसी नेता को दबोच भी लूं तब भी वह राजनीति बंद नहीं करता। मैं नेता से कहता हूं कि अब तो हार मान ले, आइसोलेट हो जा लेकिन वह अपनी नेतागीरी की ऊर्जा लेने से बाज नहीं आता। मैं भी असहाय सा देखा करता हूं। मेरी प्रहार करने की क्षमता सियासत के कवच को भेद नहीं पाती।’

‘आप तो आम आदमी को भी निशाना बना रहे हैं!’ सवाल उछला।

‘बात सच है लेकिन मिलावटी चीजें खानेवाला, प्रदूषण में दिन-रात घुटनेवाला, काम करके अधमरा होकर हर अच्छी-बुरी बात को ऊपरवाले की मर्जी मानकर स्वीकार कर लेनेवाले आम आदमी की इम्युनिटी का मैं क्या बिगाड़ लूंगा? वह तो अपनी मौत को भी भाग्य और भगवान की मर्जी से जोड़कर बर्दाश्त कर लेता है।’

‘पुलिस, डॉक्टर और सरकारी अमले को लेकर आपका अनुभव क्या है?’ दूसरा सवाल किया गया।

‘ये सब अपने काम में इतने उस्ताद हैं कि पूछो मत! कम संख्या के बावजूद इनको अनेक काम निपटाने में महारत हासिल होती है।’ कोरोना ने उसांस भरी- ‘लालफीता, अड़ंगा और मुट्ठी गर्माने की उत्कंठा हमेशा इनके आजू-बाजू बनी रहती है। मैं भी इनके बहुआयामी व्यवहार में उलझकर रह जाता हूं।’

‘आप इतना अपमान क्यों बर्दाश्त कर रहे हैं?’ एक बुजुर्ग जर्नलिस्ट ने सलाह दी- ‘चले जाएं यहां से।’

‘मैं यहां शाही मेहमान बनकर आया था।’ कोरोना का दर्द उभरा- ‘खुद देश के मुखिया ने मेरे आने की घोषणा की थी। लॉकडाउन से मेरा अभिनंदन किया गया था। फैक्टरियों की चिमनियां बुझा दी गईं थी। गाड़ियों के पहिए थम गए थे। कश्मीर से कन्याकुमारी तक मांएं अपने बच्चों को कहा करती थीं कि बाहर न जाना, कोरोना पकड़ लेगा। कोरोना माता के मंदिर बनने लगे थे। भला ऐसे देश को छोड़कर मैं क्यों जाऊं? मैं तो यहीं रहूंगा और अपनी खोई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करूंगा।’

‘यह संभव नहीं लगता।’ एक अनुभवी आवाज उभरी- ‘या तो आप भाग खड़े होंगे या अवाम आपको आत्मसात कर लेगा या आपको नजरअंदाज करके जीने लगेगा। हर हाल में आपको मुंह की खानी पड़ेगी।’

‘देखा जाएगा।’ कोरोना हार मानने को तैयार नहीं था- ‘आज इतना ही। अभी मुझे कल का रेकॉर्ड बनाने की तैयारी करना है। नमस्ते।’

कोई कुछ कहे, इससे पहले कोरोना उठ गया।

1 COMMENT

  1. वाह बहुत ही अद्भुत विचारों की तरंगों से अपने विचार निकाले हैं कोरोना से एक पत्रकार वार्ता मैं अपने उस दर्द को उभार दिया है जिससे जनता अभी भी लापरवाही कर रही है फिर भी इसको ना काल में कई जुर्माने की आड़ में भ्रष्टाचार की बू तो नहीं ? जब देश और राज्यों की आर्थिक स्थितियां दिन प्रतिदिन खराब होती जा रही हैं तब इस कोरोना कॉल में भ्रष्टाचार थम क्यों नहीं रहा है सुनने में आता है कि कोरोनावायरस के अंतर्गत खरीद फरोख्त भोजन व्यवस्था आदि को लेकर तमाम विभागों के अंतर्गत भ्रष्टाचार की बू आती है??

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