अजय बोकिल
अयोध्या में राम मंदिर शिलान्यास के कुछ घंटों पहले देश के बुजुर्ग नेता शरद पवार ने यह बयान देकर मोदी सरकार पर तीखा हमला किया कि कुछ लोग सोचते हैं कि राम मंदिर निर्माण से कोरोना खत्म हो जाएगा। हमें ये फैसला करना होगा कि आज ज्यादा जरूरी क्या है? राम मंदिर बनाना या कोरोना लॉकडाउन से ध्वस्त हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना? पवार के राजनीतिक कोदंड से छूटा तीर निशाने पर लगा और भाजपा नेत्री उमा भारती ने पलटवार किया कि पवार का बयान पीएम नरेंद्र मोदी के नहीं बल्कि भगवान राम के खिलाफ है। पवार ‘राम द्रोही’ हैं।
उधर पवार की निशानेबाजी का मर्म भांप कर महाराष्ट्र में रांकापा के समर्थन से सत्तारूढ़ शिवसेना ने कहा कि राम मंदिर इस देश की जनता की आस्था का विषय है। इस पर विवाद ठीक नहीं। राम मंदिर निर्माण के लिए पथ प्रशस्त करने शिवसेना ने लड़ाई लड़ी है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और राज्यसभा सांसद दिग्विजयसिंह ने कहा कि यदि मोदी-शाह पवार की सलाह पर चले होते तो देश के ये हालात न होते।
राकांपा नेता शरद पवार भारतीय राजनीति के उन मंजे हुए खिलाडि़यों में से हैं, जिनसे आज के ‘राजनीतिक प्रशिक्षुओं’ को काफी कुछ सीखने की जरूरत है। राम मंदिर के संदर्भ में उनका यह बयान गहरी चोट करने वाला है। मतलब साफ है कि मोदी सरकार को दिनोंदिन जानलेवा हो रहे कोरोना वायरस से लड़ने के बजाए राम मंदिर के जल्द से जल्द निर्माण की चिंता है। पवार का आशय यही है कि सरकार मंदिर-वंदिर को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाले और पूरी ताकत से वेंटीलेटर पर पड़ी अर्थव्यवस्था को जीवन रक्षक इंजेक्शन देने में जुट जाए।
एक अर्थ में पवार की यह नसीहत एकदम दुरुस्त है कि सरकार को सबसे पहले आर्थिकी पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इसकी सेहत सुधरेगी तो ‘राम राज्य’ का मार्ग भी सुगम होगा। पवार के बयान में तंज है कि सरकार कोरोना वायरस से उस शिद्दत और संकल्प के साथ नहीं लड़ रही, जितना कि उसे लड़ना चाहिए। यानी तन से भले वह पीपीई किट पहने हो, लेकिन उसका मन अभी भी राम में ही रमा हुआ है।
यहां सवाल यह है कि पवार ने ये बयान इसी वक्त क्यों दिया? यह बात वो पहले भी कह सकते थे। हालांकि राम मंदिर शिलापूजन के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी आधिकारिक स्वीकृति नहीं दी है, लेकिन मोदी जब अचानक लद्दाख जा सकते हैं तो, अयोध्या तो अब धार्मिक के साथ-साथ अघोषित राजनीतिक तीर्थ भी बन चुका है। और फिर जिस फसल को लालकृष्ण आडवाणी, विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस ने इतनी मेहनत से पकाया है, उसे काटने का मौका मोदी हाथ से जाने ही क्यों देंगे?
दूसरा सवाल यह कि इस बयान से शरद पवार को राजनीतिक लाभ क्या होगा? उन्होंने जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया है, उससे देश में सबसे ज्यादा पीडि़त तो खुद वो महाराष्ट्र है, जहां पवार की पार्टी सत्ता में भागीदार है। तो क्या पवार अपनी सरकार की असफलता में मोदी सरकार को भी बराबरी का भागीदार बनाना चाहते हैं? यह सही है कि कोरोना वायरस से लड़ने को लेकर मोदी सरकार की कोई स्पष्ट और दूरदर्शी रणनीति नहीं रही है।
तमाम दावों और घोषणाओं के बावजूद देश में कोरोना का प्रकोप गहराता जा रहा है। हकीकत में मोदी सरकार की समझ नहीं आ रहा कि कोरोना के इस समुद्र को किस दिव्यास्त्र से सुखाएं। आश्चर्य नहीं कि कुछ समय बाद पूरी सरकार और तंत्र ही कोरोना से रक्षा के लिए भगवान राम की शरण में चला जाए।
अगर पवार की आपत्ति इस बात पर है कि राम मंदिर सरकारी खर्च से क्यों बन रहा है तो इसमें ज्यादा दम नहीं दिखाई देता। क्योंकि विश्व हिंदू परिषद का कहना है कि मंदिर जन सहयोग से बनेगा। बताया जाता है विहिप ने मंदिर के लिए क्राउड फंडिंग शुरू कर दी है। उसके पास 13 करोड़ रुपये जमा भी हो चुके हैं। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी पहले कह चुके हैं कि मंदिर सरकार के पैसे से नहीं बनेगा।
अगर पवार को ऐतराज कोरोना काल में किसी धार्मिक निर्माण या उसकी अनुमति पर है तो जरा बाहर भी नजर मार लें। तुर्की में वहां के राष्ट्रपति रेसिप ऐर्दोगॉन ने वहां के डेढ़ हजार पुराने चर्च, बाद में मस्जिद और फिर संग्रहालय में बदल दिए। हागिया सोफिया वैश्विक धरोहर को पुन: मस्जिद में तब्दील करने की इजाजत वहां के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दे दी है। यह फैसला कितना सही है, इस पर वैश्विक बहस छिड़ी है।
अमेरिका में मैनहट्टन ट्रिनिटी चर्च के पुनरुद्धार का काम भी कोरोना काल में ही पूरा हुआ है। उधर इस्लामाबाद में कोरोना प्रकोप के दौरान पाक सरकार ने कृष्ण मंदिर का शिलान्यास कराया। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों के कड़े विरोध के बाद इससे हाथ खींच लिए। इमरान सरकार ने इस मंदिर के लिए सरकारी खजाने से 10 करोड़ रुपये देने का ऐलान भी कर दिया था। लेकिन धार्मिक कट्टरवाद के बुर्के पर मजहबी उदारता का पैबंद लगाने की इमरान सरकार की यह कोशिश भी कट्टरपंथियों ने फेल कर दी।
अगर पवार की आपत्ति राम मंदिर पर होने वाले खर्च को लेकर है तो उससे कहीं ज्यादा बड़ा और महंगा मंदिर तो इन दिनों मथुरा के पास वृंदावन में निर्माणाधीन है। ‘वृंदावन चंद्रोदय मंदिर’ के नाम बन रहे इस कृष्ण मंदिर की अनुमानित लागत ही 300 करोड़ रुपये है, जबकि अयोध्या में राम मंदिर तो सौ करोड़ में ही बनने वाला है। चंद्रोदय मंदिर भव्यता में भी राम मंदिर से आगे होगा। इस मंदिर का शिखर 700 फीट ऊंचा होगा और पूरा मंदिर 5 लाख 40 हजार वर्गफीट में बन रहा है।
जबकि राम मंदिर की ऊंचाई पुनरीक्षित डिजाइन में भी 161 फीट ही है और कुर्सी क्षेत्र भी सवा 5 लाख वर्गफीट रहने की संभावना है। चंद्रोदय मंदिर इस्कॉन वाले चार साल से बनवा रहे हैं, जो 2024 में पूरा होगा। राम मंदिर भी इसी के आसपास पूरा होने की संभावना है। लेकिन चंद्रोदय मंदिर की चर्चा इसलिए नहीं होती, क्योंकि उससे धार्मिक भावना भले तुष्ट हो, राजनीतिक मक्खन नहीं निकलता।
इसे आप मोदी सरकार, भाजपा और आरएसएस की राजनीतिक चतुराई या सोची-समझी रणनीति कह लें कि राम जन्म भूमि न्यास पर सुप्रीम कोर्ट से जल्द फैसला करवा कर उन्होंने अपने सियासी एजेंडे के पहले बिंदु को टिक मार्क कर दिया है। क्योंकि उन्हें पता है कि इस देश का हिंदू उनसे पहला सवाल यही करता कि उस राम मंदिर का क्या हुआ, जिसके लिए उसे सत्ता का धनुष सौंपा गया था। अगर पवार यह सवाल उठाकर मुसलमानों को संतुष्ट कर रहे हैं तो इसकी ज्यादा संभावना नहीं लगती, क्योंकि अदालत के फैसले को उन्होंने हलाहल की तरह ही सही, पी लिया है। वे अब इस पर और विवाद एवं संघर्ष नहीं चाहते।
पवार अच्छी तरह समझते हैं कि भाजपा प्रतीकों की राजनीति में ज्यादा भरोसा करती है। राम मंदिर शिलान्यास की तारीख 5 अगस्त तय करने के पीछे भी कई निशाने हैं। लेकिन आम हिंदू इसी में खुश है कि चलो मंदिर निर्माण शुरू तो हो रहा है। जिसे इसका सेहरा बांधना हो, बांध ले, लेकिन राजा राम अपनी जगह भव्यता के साथ प्रतिष्ठापित हो जाएं ताकि दुनियादारी के बाकी कामों पर ध्यान केन्द्रित किया जा सके।
ऐसे में पवार का यह कटाक्ष कि राम मंदिर से कोरोना खत्म नहीं होगा, विचारणीय है। लेकिन किसी भी महामारी के प्रकोप तथा धार्मिक कर्मकांड और इबादत में कोई सीधा रिश्ता है या हो सकता है? अगर मानें तो यह दैहिक बीमारी का दैविक इलाज खोजने जैसा है। सब जानते हैं कि राम भक्ति से कोराना शक्तिहीन नहीं होगा। उसके लिए तो चिकित्साविज्ञान के तरकश से निकले तीर ही रामबाण होंगे।
लेकिन राम मंदिर नहीं बनता तो कोरोना भी नहीं आता, यह मान लेना भी मूर्खता होगी। धार्मिक आस्थाएं अपनी जगह हैं और महारोग से महाविनाश के तकाजे अपनी जगह हैं। उमा भारती का पवार को ‘रामद्रोही’ कहना भी इसलिए गलत है कि सवाल उठाना कोई महापाप नहीं है। हो सकता है कि पवार सिर्फ मोदी सरकार की दुखती रग को छेड़ना चाहते हों।
शरद पवार की अपनी राजनीति है। पहले वो मोदीजी के आव्हान पर कोरोना वॉरियर्स के सम्मान में ताली बजा चुके हैं। लेकिन अब उनका इरादा अगर करवट बदल रहा है तो इसकी वजह महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा के बीच नई ट्यूनिंग की आहट है। ऐसे में पवार राम मंदिर के बहाने उस राजनीतिक वायरस को मारना चाहते हैं, जो राज्य में उनकी सत्ता छिनने का कारण बन सकता है। देखना यह है कि पवार इसमें कितने कामयाब होंगे?