राकेश अचल
एक लम्बे समय बाद पुराने विषय पर लौटना पड़ रहा है, क्योंकि राजनीति भी लोकपथ से राजपथ की ओर जाती दिखाई दे रही है। आजादी के बाद लोकतंत्र में भी अनेक राजघराने राजनीति में कूदे लेकिन कुछ डूब गए और कुछ पार लग गए। कुछ घर बैठ गए, कुछ का कोई नाम लेने वाला नहीं रहा। लेकिन ग्वालियर का सिंधिया राजघराना इसका अपवाद आज भी बना हुआ है। सिंधिया राजघराने ने जब से राजनीति में कदम रखा है तब से महल को सत्ता से दूर नहीं होने दिया। महल का एक न एक सदस्य अपना एक पांव सत्ता में तो दूसरा पांव विपक्ष में रखकर आगे ही बढ़ता रहा।
सिंधिया राजघराने को राजपथ से लोकपथ पर लाने वाली श्रीमती विजयाराजे सिंधिया थीं। आजादी के बाद वे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के कहने पर राजनीति में आयीं। कांग्रेस को उन्होंने अपना पहला प्लेटफार्म बनाया। वे 1957 से जीवनपर्यन्त चुनाव लड़ीं और एक अपवाद को छोड़कर लगातार जीतती रहीं। उन्होंने 2001 तक अपने आपको लोकसभा का सदस्य बनाये रखा।
राजमाता के जीवनकाल में ही उनके बेटे माधवराव सिंधिया राजनीति में आ गए और 1971 से लेकर जीवनपर्यन्त संसद के सदस्य रहे। उन्होंने लोकसभा के कुल 9 चुनाव लड़े और सभी जीते। उनके खाते में अजेय शब्द दर्ज है, जबकि उनकी माँ राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने भी 9 चुनाव लड़े पर वे एक चुनाव हार गयी थीं। फिर भी वे 8 बार लोकसभा की सदस्य रहीं। मां बेटे ने कांग्रेस के टिकिट पर भी चुनाव लड़ा और जीता। राजमाता ने कांग्रेस छोड़ने के बाद जनसंघ और बाद में भाजपा से अपने आपको वाबस्ता रखा जबकि माधवराव सिंधिया कांग्रेस में शामिल होने के बाद एक अपवाद को छोड़ आजीवन कांग्रेस से जुड़े रहे।
ग्वालियर के रानी महल को सत्ता और विपक्ष से जोड़े रखने की परम्परा को माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी लगातार आगे बढ़ाया। उन्होंने भी लोकसभा के 5 चुनाव लड़े लेकिन पांचवीं बार हार गए। यानि चार चुनाव जीते वे भी कांग्रेस के टिकिट पर। हाल ही में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी अपनी दादी के पदचिन्हों पर चलते हुए कांग्रेस छोड़ कर भाजपा का दामन थाम लिया और अब वे राजयसभा के सदस्य हैं।
मध्यप्रदेश में सिंधिया परिवार की सदस्य श्रीमती यशोधरा राजे ने भी रानीमहल की लालबत्ती बुझने नहीं दी। वे भी लोकसभा के लिए दो बार और विधानसभा के लिए चार बार चुनी गईं। मध्यप्रदेश से उनकी बुआ वसुंधरा राजे ने भी राजनीति में किस्मत आजमाई, लेकिन वे अपना पहला चुनाव हार गयीं। बाद में वे राजस्थान की राजनीति में ऐसी जमीं कि 5 बार सांसद और 5 बार विधायक भी रहीं।
मजे की बात ये है कि सिंधिया परिवार के सदस्य ही नहीं अपितु महल में रहने वाले उनके रिश्तेदारों ने भी महल की लालबत्ती जलाये रखने में अहम रोल अदा किया। राजमाता के भाई ध्यानेन्द्र सिंह मुरार क्षेत्र से अनेक चुनाव जीते, वे मंत्री भी रहे। राजमाता की भाभी श्रीमती माया सिंह राज्यसभा और विधानसभा की सदस्य रहने के साथ मध्यप्रदेश में मंत्री रहीं। राजमाता विजयाराजे सिंधिया की चचेरी बहन श्रीमती सुषमा सिंह भी करेरा (शिवपुरी) से एक बार विधायक रहीं। इतना ही नहीं सिंधिया के निजी सहायक रहे महेंद्र सिंह कालूखेड भी सांसद और विधायक रहे। हरीसिंह नरवरिया को भी एक बार विधायक बनने का अवसर मिला।
कहने का आशय ये है कि रानी महल हमेशा लोकपथ पर रहते हुए भी राजपथ से जुड़ा रहा। राजपथ से जुड़े रहना सिंधिया परिवार की विवशता थी या संयोग इसका आकलन अलग-अलग नजरिये से किया जाता रहा है। लोकमान्यता ये है कि सिंधिया परिवार लोकसेवा के लिए ही राजनीति में रहता आया है फिर भले ही राजनीति पक्ष की हो या विपक्ष की। देश के राजनीतिक इतिहास में इसीलिए सिंधिया परिवार अपवाद है।
सिंधिया परिवार में दो धाराएं एक साथ चलती आयी हैं। एक धारा सीधे सत्ता से जुड़ती है तो दूसरी धारा विपक्ष से। मजे की बात ये है कि सिंधिया परिवार के सदस्य दोनों ही भूमिकाओं में संतुष्ट दिखाई देते हैं। और कोशिश करते हैं कि सुर्ख़ियों में बने रहें। आज की तारीख में भी सिंधिया परिवार राजनीति के केंद्र में है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद ग्वालियर चंबल की ही नहीं अपितु मध्यप्रदेश की राजनीति के सामने फिर दुविधा है कि वो महल से संचालित हो या महल राजनीति से संचालित हो? क्योंकि इस समय भी रानी महल में एक सांसद और एक मंत्री विराजमान है।
मध्यप्रदेश सरकार के गठन से लेकर मंत्रिमंडल के बनने तक में रानी महल की भूमिका प्रमुख रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह इस समय में असहाय और निरुपाय दिखाई दिए हैं। विभागों के वितरण में वे अपनी स्वायत्तता को बचाकर नहीं रख पाए। आने वाले दिनों में उनका क्या होगा, वे ही जानते होंगे। लेकिन ये साफ़ नजर आ रहा है कि आने वाले चार-छह माह तो महल की राजनीति ही चलेगी और महल राजनीति का महल बना रहेगा। इस बीच यदि केंद्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया को मंत्री बना दिया गया तो इस तस्वीर का एक अलग रंग उभर कर सामने आ सकता है।
राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए ये जान लेना जरूरी है कि कांग्रेस हो या भाजपा, किसी ने महल का विरोध नहीं किया। अब ये पहला मौक़ा है जब पूरा महल कांग्रेस से दूर चला गया है। महल की अगली पीढ़ी इस इतिहास को बदलेगी या नहीं ये भविष्य के गर्त में छिपा है। इस स्थिति में ये देखना है कि कांग्रेस महल के सहयोग के बिना भी क्या राजनीति में कोई बड़ी लकीर खींच सकती है। या आने वाले दिनों में उसे फिर सिंधिया घराने की जरूरत पड़ सकती है।