‘माफी‘ देने का सर्वोच्च अधिकार किसे, भगवान को या इंसान को?

अजय बोकिल

कोरोना संकट के चलते पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकालने को लेकर असमंजस, राज्य सरकार द्वारा इसके मर्यादित आयोजन के हलफनामे और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद खत्म हो गया है। लेकिन इसके पहले यात्रा आयोजन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा, भगवान की ओर से उसे ‘माफ न करने’ की टिप्पणी तथा इस पर पुरी के शंकराचार्य की कड़ी प्रतिक्रिया आई।

इससे जेहन में एक सवाल जरूर उठा कि आखिर माफी देने का सर्वोच्च अधिकार किसे है ईश्वर को या मनुष्य को? इस कायनात का सबसे बड़ा न्यायाधीश कौन है? भगवान या इंसान? क्या मनुष्य निर्मित व्यवस्थाओं और कानूनों पर ईश्वर कोई फैसला दे सकता है? अगर ऐसा है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षे‍त्र कहां तक है?

ये सवाल बहुत जटिल है और उत्तर तो और भी कठिन। क्योंकि मामला मानव निर्मित सिस्टम के मान और आस्था के सम्मान का है। लेकिन पहले भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा की बात। जगन्नाथ से तात्पर्य संपूर्ण जगत के स्वामी से है। हिंदू धर्म में जगत के पालक भगवान विष्णु हैं। भगवान कृष्ण उनके अंशावतार हैं और जगन्नाथ उन्हीं का एक रूप है।

इसी कारण हिंदुओं और खासकर वैष्णवों के लिए पुरी पुण्य भूमि है। पुरी को जगन्नाथ की लीला भूमि भी माना जाता है। यहां जगन्नाथ के साथ राधा के बजाय उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा प्रतिष्ठित हैं। माना जाता है कि जगन्नाथ रूप में श्रीकृष्ण और राधा दोनों समाहित हैं। पुरी में जगन्नाथ का विशाल मंदिर 12 वीं सदी में राजा इन्द्रद्युम्न ने बनवाया था। अरब सागर से आने वाली नमकीन हवाओं और तूफानों के बीच यह मंदिर आज भी शान से खड़ा है।

पुरी में भगवान जगन्नाथ की यह यात्रा काफी पुरानी है। संभवत: यह सबसे पुरानी रथ यात्रा है, जिसका उल्लेख ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, स्कंद पुराण में मिलता है। कुछ विद्वान इसकी शुरूआत बौद्ध काल से भी मानते हैं। मुख्य: बात यह है कि यह रथ यात्रा आज तक जारी है। साथ ही हिंदू धर्म के सर्वसमावेशी स्वरूप की अखंड वाहक है। क्योंकि इसमें स्थानीय आदिवासियों की अहम भागीदारी होती है। यह रथ यात्रा कुछ देर के लिए भगवान जगन्नाथ के एक मुस्लिम भक्त सालबेग की मजार के सामने रुकती है।

आजकल रथयात्रा एक टूरिस्ट इवेंट भी बन गई है। इसके दर्शन और पुण्य लाभ के लिए रथ यात्रा के समय लाखों लोग पुरी आते हैं। 9 दिन की यात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से शुरू होकर दशमी को समाप्त होती है। यात्रा में तीन रथ होते हैं। सबसे आगे ताल ध्वज पर बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर बहन सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अंत में गरुड़ ध्वज रथ पर जगन्नाथ सवार होते हैं।

यात्रा गुंडीचा मंदिर से मासी मां मंदिर तक जाती है। फिर लौटती है। इस दौरान भगवान स्नान करते हैं और अस्वस्थ भी होते हैं। संक्षेप में कहें तो भगवान यहां मनुष्य की तरह लीला करते हैं। या यह उन पर मानवीय भावनाओं और सुख दुख का आरोपण है। जगन्नाथ के भक्तों की तादाद करोड़ो में हैं। हिंदुओं के शीर्ष तीर्थ चार धाम में से एक पुरी भी है।

इस बार भी रथयात्रा उसी उल्लास और भक्तिभाव से सम्पन्न होती, अगर कोरोना वायरस ने रसभंग न किया होता। कोरोना वायरस को किसने बनाया या फिर यह कैसे बनता है, इस बहस को अलग रखें तो वह ऐसे लोक से जरूर आता है, जहां पाप-पुण्य और सजा और माफी का कोई अर्थ नहीं होता। वह केवल दुनिया को लीलना जानता है। गलती करना, करके उसे स्वीकारना, इसी बिना पर माफ कर देना मानवीय संवेदना का हिस्सा है।

कोरोना के चलते देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान केन्द्र सरकार की गाइडलाइन के तहत ओडिशा सरकार ने भी शुरू में जगन्नाथ रथ यात्रा को अनुमति न देने का फैसला किया था। हालांकि ओडिशा में कोरोना प्रकोप तुलनात्मक रूप से काफी कम और नियंत्रित है। वहां अभी तक कोरोना से 15 मौतें दर्ज हुई हैं। लेकिन सरकार के इस ऐहतियाती फैसले से भगवान जगन्नाथ के भक्त नाराज दिखे। इस निर्णय को एक सुदीर्घ परंपरा को खंडित करने के रूप में देखा गया। लिहाजा मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।

पिछली सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने भी कहा कि सार्वजनिकक स्वास्थ्य हितों के मद्देनजर इस साल रथ यात्रा को इजाजत नहीं दी जा सकती। अगर हम ऐसा होने देते तो भगवान जगन्नाथ हमें माफ नहीं करते। इस माफ करने वाली टिप्पणी (या कटाक्ष?) पर कड़ी प्रतिक्रिया पुरी के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती की आई। उन्होंने कहा कि यह जगन्नाथ रथ यात्रा रुकवाने की सुनियोजित साजिश है।

निश्‍चलानंद की मांग थी कि सरकार भले ही सीमित रूप में इसे आयोजित करे, लेकिन करे। पुरी के गजपति महाराज और सेवादारों ने भी मुख्यमंत्री से अपील की कि वह यात्रा न रोकें। उधर मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। इसमें एक याचिका भगवान जगन्नाथ के मुस्लिम भक्त आफताब हुसैन की भी थी। आफताब का भी यही कहना था कि रथ यात्रा निकलनी चाहिए।

इसके बाद राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में नया हलफनामा पेश कर कहा कि वह स्वास्थ्य सुरक्षा के सभी मानकों का ध्यान रखते हुए यात्रा निकलने देगी। कोर्ट ने फैसला दिया कि इस रथयात्रा में भक्त शामिल नहीं होंगे। अर्थात भगवान जगन्नाथ रथ पर सवार होकर यात्रा पर निकलेंगे तो, लेकिन उनकी यात्रा एकाकी होगी।

वैसे यह बात ही अपने आप में हैरान करने वाली है कि भगवान की रथ यात्रा का फैसला भी इंसानी अदालत में हो। उसमें भी कोर्ट यह कहे कि यदि कोरोना काल में हमने रथ यात्रा को इजाजत दी तो भगवान हमें (इस गलती के लिए) कभी माफ नहीं करेंगे। उसी टिप्पणी को अगर ताजा फैसले के संदर्भ में समझा जाए तो क्या अब भगवान माफ कोर्ट को माफ कर देंगे?

क्योंकि कोर्ट ने राज्य सरकार की गारंटी पर यही फैसला दिया है कि रथ यात्रा (जो 284 साल से तो निरंतर चल ही रही है) की परंपरा को अबाध रखने के लिए, यात्रा की रस्म पूरी की जाए, ताकि लोगों की आस्था का सम्मान हो। साथ ही कोरोना के चलते तमाम एहतियात भी बरते जाएं। कोर्ट की चिंता साफ है कि यदि रथ यात्रा में हमेशा की तरह लाखों जुटे तो सोशल डिस्टेसिंग की धज्जियां उड़ेंगी। इसका दुष्परिणाम पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा। यह जरूरी है कि आस्था का सैलाब सामुदायिक संक्रमण का कारण न बने।

दरअसल यह जन आस्था और जन स्वास्थ्य के तकाजों का टकराव था, जिसके बीच एक सुरक्षित रास्ता सीमित रथ यात्रा के आयोजन के रूप में निकाला गया है। यह विवेक सम्मत भी है। इससे यह संदेश भी गया है कि आस्था के चैनल को प्रज्ञा के रिमोट से संचालित होना चाहिए। क्योंकि आस्था और अंधश्रद्धा के बीच एक महीन और गहरी खाई है, वो है सहज बुद्धि की। कहते हैं कि आस्था की सीमारेखा वहीं से शुरू होती है, जहां बुद्धि की नियंत्रण रेखा का समापन होता है। इन दोनों के बीच भी एक ऐसा बफर जोन होता है, जहां आस्था, विवेक के साथ जुगलबंदी करती दीखती है।

अब सवाल यह है कि यदि सुप्रीम कोर्ट लोक स्वास्थ्य की रक्षा को अनदेखा कर रथ यात्रा को अनुमति दे देता तो भगवान जगन्नाथ उसे भी माफ नहीं करते। यहां सर्वोच्च अदालत ने इतना तो मान ही लिया कि उससे बड़ी अदालत ईश्वरीय है। अगर ऐसा है तो इस धरती और देश के कानूनों को किस रूप में लिया जाए? हमारी व्यवस्था में कानूनी दायरे में किसी को ‘माफ’ करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को ही है।

लेकिन कोर्ट अपने से भी बड़ा भगवान की कोर्ट को मान रही है। ईसाइयत में माफ करने को बड़ा पुण्य कार्य माना गया है। लेकिन व्यवहार में मनुष्य एक दूसरे को दिल से माफ बहुत कम करता है। और यहां तो खुद कोर्ट ही ‘माफी’ की बात कर रही है। तो क्या भगवान और इंसान के माफी देने न देने के पैमाने अलग-अलग हैं?

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टीम मध्‍यमत

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