राकेश अचल

भारत का लोकतंत्र आज इस सदी के प्रथम चरण में ही बेहद खराब दौर से गुजर रहा है। एक तरफ देश के सामने विश्व व्यापी कोरोना विषाणु से फैली महामारी से निपटने की चुनौती है, तो दूसरी तरफ देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता को मजबूत करने की चुनौती। इन दोनों ही मुद्दों पर सरकार समाज की प्रश्नाकुलता से बुरी तरह घबड़ा गयी है। स्थिति ये है कि अब प्रश्न करने वाला हर व्यक्ति सरकार को देशद्रोही प्रतीत होने लगा है। फिर चाहे वो कोई राष्ट्रीय नेता हो या मेरे जैसा छुटभैया आम आदमी।

लेह-लद्दाख में गलवान घाटी में भारत के 20 रणबांकुरों की शहादत के बाद सरकार एक पर एक झूठ बोलकर खुद ही अपने झूठ में उलझती जा रही है। इस मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय को एक के बाद एक नया स्पष्टीकरण देना पड़ रहा है। टीवी चैनलों की बहसों में सरकारी पार्टी के प्रवक्ता हाथ में शब्दों का गंडासा लिए बैठे हैं, डर लगता है कि कहीं टीवी के परदे पर ही जंग न छिड़ जाये।

भारत के प्रधानमंत्री श्रीमान नरेंद्र मोदी जी के प्रति पूरा आदर भाव रखते हुए भी ये सवाल बार-बार क्या हजार बार पूछ जा सकता है कि जब भारतीय सीमा में चीन की घुसपैठ हुई नहीं, हमारी जमीन पर कब्जा हुआ नहीं तो कैसे हमारे 20 जवान शहीद हो गए? कैसे हमारे फौजियों को बंधक बना लिया गया? क्यों सरकार को दोनों देशों के बीच विभिन्न स्तरों पर न सिर्फ बातचीत करना पड़ी, बल्कि सीमाओं पर फ़ौज की तैनाती को बढ़ाना पड़ा? यदि दाल में काला नहीं है तो क्यों आज सरकार ने सेना को 500 करोड़ का आकस्मिक फंड स्वीकृत किया है? यानि सवाल समाप्त नहीं हो रहे बल्कि रोज नए पैदा हो रहे हैं।

हमें पूरा यकीन है भारत की सेना पर,  लेकिन भारत के प्रधानमंत्री से किये जा रहे सवालों के उत्तर देने में आखिर क्या हर्ज है? क्यों सवालों को कुतर्कों से काटने का प्रयास किया जा रहा है? क्यों गोदी मीडिया देश में युद्धोन्माद फैलाने की कोशिश कर रहा है और सरकार उसे रोकने की कोशिश नहीं कर रही है। टीवी पर बहसें और सीमा पार हो रही गतिविधियों की रपटें पढ़कर, देखकर आम हिन्दुस्तानी का मन क्षुब्ध और विचलित हो जाता है।

प्रसन्नता का विषय ये है कि अपने पड़ोसियों से संबंध सुधारने  में नाकाम केंद्र सरकार ने सेना की जरूरतों को समझा और फटाफट 500 करोड़ की राशि मंजूर कर दी। हालाँकि इस समय इतनी बड़ी रकम कोरोना संकट से जूझने में खत्म होती तो ज्यादा बेहतर होता, लेकिन जो नहीं हो सकता उसका क्या रोना?

सरहदों की रक्षा के लिये आप कितना खर्च करने वाले हैं कोई आपसे पूछने वाला नहीं है, आपको बताना भी नहीं चाहिए। लेकिन कम से कम देश के जिम्मेदार विपक्षी दलों से सच तो नहीं छिपाना चाहिए। कहते हैं कि एक झूठ को छिपाने के लिए दस नए झूठ बोलना पड़ते हैं, आज यही सब हो रहा है।

चलिए हम मान लेते हैं कि हमारी सरकार हर मोर्चे पर कामयाब है तो फिर सरहदें तनाव में क्यों हैं भाई? क्यों चीन और नेपाल ने अपने तेवर बदल लिए हैं, क्यों सरकार चीन के खिलाफ खुलकर नहीं बोलना चाहती? एक तरफ सरकारी पार्टी से जुड़े संगठन चीनी उत्पादों की होली जलाने का छद्म अभियान चला रहे हैं, दूसरी तरफ सरकार के संरक्षण में देश के उद्योगपति चीन के साथ नए-नए व्यापारिक करार कर रहे हैं? क्या इन मुद्दों पर सरकार से सवाल नहीं किये जा सकते?

मुझे कोई सन्देह नहीं है कि यदि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री जी में पूर्व के प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटलबिहारी वाजपेयी जैसी ज़रा भी उदारता होती, तो आज वे विपक्ष को अपने साथ आसानी से खड़ा कर लेते। पंत प्रधान में यदि स्वर्गीय इंदिरा गांधी जैसा सौजन्य होता तो वे 1971 के संकट के समय जैसे विपक्ष को साथ लेकर आगे बढ़ीं थी और दुर्गा कहलाई थीं, मोदी जी भी कुछ न कुछ अलंकरण हासिल कर लेते। लेकिन उनके लिए विपक्ष के नेता ‘पप्पू’ हैं और अधिकांश राष्ट्रद्रोही। विपक्ष के नेताओं के प्रति जिस तरह से सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता कुतर्कों के हथियार लेकर घूम रहे हैं उससे देश का राजनीतिक वातावरण अगले एक दशक तक सुधरने वाला नहीं है।

विपक्ष को ये अधिकार है कि वो सरकार की गलतियों के प्रति हमालावर रहे, लेकिन ये जवाबदारी सरकार की है कि वो विपक्ष को नाजुक समय में कैसे अपने साथ लेकर चले? इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास आपको दिखाई देते हों तो अलग बात है, मुझे तो कुछ नजर नहीं आ रहा। जब घर के भीतर कटुता लगातार बढ़ेगी तो घर के बाहर सौजन्य कैसे तैयार हो सकेगा, भगवान ही जानता होगा।

सरकार ने बीते छह साल में एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया जिससे विपक्ष के मन में सरकार के प्रति सम्मान का भाव जाग्रत हो। सरकार विपक्ष के प्रति बैरभाव को बढ़ाती ही जा रही है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। सरकार ने तो जानबूझकर संसदीय परम्पराओं की अनदेखी कर विपक्ष का मानमर्दन किया, विपक्ष से उच्च सदन की आसंदी तक छीन  ली।

दुनिया जानती है कि भारत और चीन के बीच कोई युद्ध हो ही नहीं सकता, झड़पें हो सकतीं हैं, वे भी इसलिए क्योंकि दोनों देशों की अपनी कमजोरियां और ताकतें उन्हें ऐसा करने के लिए विवश कर रहीं हैं। पता नहीं क्यों इस देश में ऐसी धारणा बन जाती है कि सरकार सियासत के लिए उन्माद फैलाती है और जैसे ही प्रयोजन समाप्त होता है, उसे खुद ही ठंडा कर देती है। पुलवामा इसका उदाहरण है।

पुलवामा के शहीदों की तस्वीरें लगाकर जिस तरह से अतीत में चुनावी रैलियां हुईं उन्हें अभी देश भूला नहीं है। ये सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है कि वो बिहार और बंगाल के विधानसभा चुनावों के लिए हो रहीं वर्चुअल चुनावी रैलियों में गलवान के शहीदों की तस्वीरों का इस्तेमाल न होने दे। विपक्ष को भी संयम बरतना चाहिए और इतनी कटुता से सवाल नहीं करना चाहिए कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी उसे देश का अपमान समझने लगें। हालांकि देश का सम्मान किसी भी व्यक्ति के सम्मान से कहीं ज्यादा बड़ा होता है।

सरहदों पर तनाव के बीच हमारे रक्षामंत्री राजनाथ सिंह रूस की यात्रा पर जा रहे हैं, शायद वे चीन को दिखाना चाहते हैं कि भारत दुनिया में अकेला नहीं है। यदि चीन ने कोई हिमाकत की तो तमाम देश भारत की तरफदारी में खड़े नजर आएंगे। ये अच्छी कोशिश है, ऐसे प्रयास निरंतर होते रहना चाहिए। हम तो कहते हैं कि चीन के साथ भी संवाद से ही रास्ता निकाला जाना चाहिए, युद्ध तो अंतिम विकल्प है।

देश की जनता उम्मीद करती है कि प्रधानमंत्री जी देश को युद्ध की आग में झोंकने के बजाय हिकमत अमली से समस्या का समाधान निकाल लेंगे। क्योंकि इस समय  दुनिया की, भारत की जरूरत युद्ध नहीं शांति और विकास है। कोरोना संकट से भी शांतिकाल में ही निपटा जा सकता है, युद्धकाल में नहीं।

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टीम मध्‍यमत

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