अजय बोकिल
चीन की दबंगई और गलवान घाटी में 20 भारतीय सैनिकों की शहादत के बाद देश में चीनी सामान के बहिष्कार की मुहिम तेज हो गई है। केन्द्र और कुछ राज्य सरकारों ने चीनी कंपनियों और एप्स पर प्रतिबंध लगाना भी शुरू कर दिया है। चीन और चीनी माल के विरोध में पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे हैं। इसी बीच चीनी सामान के बायकॉट की इस मुहिम को केन्द्रीय मंत्री रामदास आठवले ने यह कहकर नया मोड़ दे दिया कि देश भर में फल-फूल रहे चीनी रेस्टारेंटों और चाइनीज फूड को भी बंद कर दिया जाए।
देशभक्ति और चीन विरोध के नजरिए से चीनी माल का बहिष्कार अच्छी पहल है, लेकिन इसे हकीकत में बदलने के लिए सबसे ज्यादा सेक्रिफाइस हमारी युवा पीढ़ी को करना होगा। क्योंकि चीनी माल, प्रौद्योगिकी और चीनी खाद्य पदार्थों की सबसे ज्यादा दीवानी यही पीढ़ी है। चीनी सामान के बहिष्कार के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक आव्हानों के बीच ये पीढ़ी क्या वाकई इतना ‘त्याग’ करने के लिए सचमुच तैयार है?
यह सवाल इसलिये, क्योंकि इस पीढ़ी की सक्रिय भागीदारी के बगैर बहिष्कार के ऐसे आह्वान महज शोशेबाजी ही साबित होंगे। चीन ने सोची-समझी बाजार रणनीति के तहत भारत में अपना सबसे बड़ा उपभोक्ता वर्ग युवाओं में ही तैयार किया है, जो चायनीज फूड से लेकर टिकटॉक तक चीन के जाल में गहरे तक उलझा है।
पहले रामदास आठवले की बात। आठवले गंभीर बात को भी मजाहिया ढंग से कहने के लिए जाने जाते हैं। आठवले ने अपील की कि देश के सभी रेस्टारेंटों में चायनीज फूड बनाने और परोसने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए ताकि चीन को सबक सिखाया जा सके। इस सुझाव का सुर्खी बनना स्वाभाविक ही था, क्योंकि भारत भर में इन दिनों करीब 55 हजार रेस्टारेंट्स हैं, जो चायनीज फूड सर्व करते हैं। अर्थात एक रेस्टारेंट में चायनीज कुक समेत औसतन 10 लोग भी काम करते हों तो यह आंकड़ा 6 लाख तक जाता है।
इनमें चायनीज स्ट्रीट फूड बेचने वाले वेंडर्स शामिल नहीं हैं। उनकी निश्चित संख्या कितनी है पता नहीं। अगर ये 4 लाख भी हों तो देश में आज चायनीज फूड से 10 लाख भारतीयों को रोजगार मिल हुआ है। युवाओं में चायनीज फूड के नाम पर नूडल्स, गोबी मंचूरियन, चिकन लॉलीपॉप्स, चिली चिकन और हक्का नूडल्स जैसे पदार्थ बेहद लोकप्रिय हैं।
खासकर 80 के बाद जन्मी पीढ़ी नए स्वाद के नाम पर चायनीज फूड आयटम्स की दीवानी है। कुछ साल पहले तक जिस मंचूरियन, नूडल्स वगैरह को भारत में ज्यादा कोई जानता न था, अब भारतीय शादियों में इनके स्टॉल्स अनिवार्यता बन गए हैं। इसके विपरीत चाय समोसे, पोहा आदि की दुकानें पुरानी बस्तियों तक सिमटती जा रहीं हैं। इसका सीधा मतलब है कि चीन का हमारी खाद्य संस्कृति पर यह तगड़ा अटैक है और चायनीज न खाना अब ‘खाद्य पिछड़ेपन’ का सूचक है।
देश में फास्ट फूड का बाजार लगभग 2 हजार करोड़ रुपये का बताया जाता है, जिसमें चायनीज फूड की हिस्सेदारी करीब आधी है। यह बात अलग है कि भारत में ‘चायनीज’ के नाम से जो कुछ बिकता है, वह वास्तव में चायनीज नहीं है। दरअसल यह इंडियन-चायनीज फूड है, जिसमें हमारे पाककर्मियों ने मूल चायनीज रेसिपीज को भारतीय रंग और स्वाद में ढाल लिया है।
चायनीज फूड को अलग रखें तो चीन ने जिन क्षेत्रों में हमारे दैनंदिन जीवन में अंदर तक घुसपैठ कर ली है, उनमें सबसे पहला है-स्मार्ट फोन। आज देश में उपलब्ध हर 100 में से 72 स्मार्ट फोन चीनी कंपनियों के हैं। क्योंकि ये सस्ती कीमत में ज्यादा फीचर मुहैया कराते हैं। आज भारत में 35 वर्ष से नीचे के युवाओं की संख्या करीब 60 करोड़ है। इनमें से लगभग 45 करोड़ के पास स्मार्ट फोन हैं और इनमें भी 70 फीसदी स्मार्ट फोन ‘मेड इन चाइना’ हैं।
स्मार्ट फोन के अलावा दूरसंचार उपकरण में भी चीन की भारी घुसपैठ है। भारत के स्मार्ट टीवी मार्केट में भी चीनी कंपनियों का दबदबा है। यहां से चीन को बेदखल किया जा सकता है, लेकिन उत्पाद की ड्योढ़ी कीमत देकर। होम अप्लायंसेज और ऑटोमोबाइल मार्केट भी चीनी प्रॉडक्ट्स से भरा हुआ है। इनके अलावा हमारे सौर ऊर्जा, स्टील और फार्मास्युटिकल्स उद्योग भी काफी हद तक चीन पर निर्भर हो गए हैं। भारत में काम कर रही चीनी कंपनियों में हजारों भारतीय युवा नौकरी कर रहे हैं। उनके वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था भी चीनी माल बहिष्कार मुहिम का हिस्सा होनी चाहिए।
सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है, स्मार्ट फोन्स में चीनी एप का। ये हैं- सोशल कंटेंट एप ‘हेलो’, एंटरटेनमेंट एप ‘टिकटॉक’, यूटीलिटी एप ‘ब्यूटी प्लस’, गेमिंग एप ‘पबजी’ और वेब ब्राउजिंग एप ‘यूसी ब्राउजर।’ ये एप अब हमारे युवाओं की जिंदगी का लत लगने की हद तक जरूरी हिस्सा बन चुके हैं। एक अध्ययन के मुताबिक देश के कुल स्मार्ट फोन्स में से 66 फीसदी में चीनी एप इंस्टाल्ड है। ‘टिकटॉक’ देश के 12 करोड़ स्मार्ट फोन्स में अपलोड है।
टिकटॉक की मालिक बाइटडांस कंपनी ने पिछले साल भारत से 25 करोड़ रुपये कमाए और इस साल उसने 100 करोड़ रुपये का टारगेट रखा है। यह पूरा हो सकता है, क्योंकि लॉकडाउन में बहुत से भारतीयों ने इसे जमकर यूज किया। ‘टिकटॉक’ ने कई भारतीय स्टार पैदा कर दिए हैं, जिनमें भाजपा नेत्री सोनाली फोगाट भी हैं। इन स्टार्स के फॉलोअर्स की संख्या करोड़ों में है, जो अधिकांश भारतीय युवा ही हैं।
इस बीच चीनी सामान के बहिष्कार की मुहिम सोशल मीडिया में भी जोरों पर है। मजे की बात है कि यह मुहिम भी ज्यादातर चाइना मेड मोबाइलों के माध्यम से चल रही है। चीन के खिलाफ उभरती जन भावना को और हवा देने कई नेता चीनी इलेक्ट्रॉनिक सामानों को सार्वजनिक रूप से फोड़ते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं तो कुछ व्यापारियों ने चीन से सामान मंगाने और बेचने से तौबा कर ली है।
इस बीच यूपी सरकार ने राज्य में एसटीएफ में ऐसे 52 एप्स को प्रतिबंधित कर दिया है, क्योंकि इनके मार्फत डेटा चोरी हो सकता है। ऐसा ही एक आदेश मप्र पुलिस में भी जारी हुआ, लेकिन न जाने किस दबाव में शाम होते-होते वापस ले लिया गया। उधर केन्द्र सरकार ने बीएसएनएल और एमटीएनएल को आदेश दिया है कि 4 जी के लिए चीनी उपकरणों का इस्तेमाल रोका जाए। कुछ युवा आईएएस अधिकारियों ने भी चीनी माल के बहिष्कार का खुलकर समर्थन किया है।
बेशक चीनी माल के बहिष्कार से चीन की हवा बंद हो जाए और वो गलवान से भाग खड़ा हो तो बात ही क्या है। स्वदेशी अपनाकर देशप्रेम के इजहार का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है? लेकिन दिक्कत यह है कि चीन ने भारत में 6 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश कर रखा है। देश की 75 बड़ी कंपनियां ऐसी हैं, जिनमें चीन ने भारी निवेश किया है। यदि इनके उत्पाद भी चीनी बताकर बैन हो गए तो इन कंपनियों का क्या होगा?
चीनी माल के बहिष्कार की जुमलेबाजी से भी ज्यादा जरूरी है, चीनी सामान को अपनी जिंदगी से बेदखल करना। वरना चीनी माल की डंपिंग के पहले भारत में ‘चीनी’ का रिश्ता शकर से या फिर ‘चीनी मिट्टी’ के खूबसूरत बर्तनों से ही रहता आया है। भारतीय बाजार में चीन की चौतरफा घुसपैठ ने हिंदी को एक नया मुहावरा ‘चीनी माल’ भी दिया। जिसका भावार्थ यही है कि चीनी वादे की माफिक चीनी सामान की भी कोई गारंटी नहीं है। चले न चले।
लुब्बो-लुआब ये कि चीनी माल के बहिष्कार की वास्तविक सफलता तभी है, जब हमारे युवा चीनी सामान और तकनीक के मोह जाल से बाहर निकलें। उस लालच और एडिक्शन को तिलांजलि दें, जिसने उन्हें परोक्ष रूप से चीन का ही गुलाम बना दिया है। अगर ऐसा नहीं होता तो इस भावनात्मक और सियासी रैपर में लिपटे ‘चीनी सामान बायकॉट के अभियान’ से चीन को खरोंच भले आ जाए, उसकी अर्थ व्यवस्था वैसी लहूलुहान नहीं हो सकती, जैसा कि उसकी सेना ने हमारे सैनिकों को किया है।
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