रमाशंकर सिंह
रानी लक्ष्मीबाई का ग्वालियर क्षेत्र में अंग्रेजों से युद्ध हुआ और परम उत्सर्ग भी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की यह शुरुआत थी जो कि 90 बरस बाद गांधी के अनूठे नवाचारी विचार व कर्म से फलीभूत हुई। कई राजनीतिक दल भी, जो सत्ता में आते जाते रहते हैं, धूमधाम से रानी का बलिदान दिवस मनाते हैं। ग्वालियर के लोग भी संभवतया अन्य किसी स्थान से ज़्यादा प्रेम व अनुराग से रानी को याद कर कृतार्थ होते हैं।
यह भी सच्चाई है कि ग्वालियर का पूर्व शासक सिंधिया परिवार इन ऐतिहासिक घटनाओं से स्वयं को आज तक असहज महसूस करता है। उनके वंश में आज़ादी के बाद भी किसी को यह बुद्धि नहीं आई कि रानी की मूर्ति के समक्ष जाकर अपने परिवार द्वारा रानी लक्ष्मीबाई को सहयोग न करने हेतु प्रायश्चित करें और भारत माता से माफ़ी माँगें। जबकि इसी परिवार के तीन सदस्य राजनीति व सत्ता से निकट की गलबहियॉं कर चुके हैं।
“… बुंदेले हरबोलों से हमने सुनी कहानी थी’’ सुभद्राकुमारी चौहान की लोकप्रिय कविता जिसको पढ़कर हम सब बड़े हुये हैं आजकल स्कूलों में पढ़ाई, गाई, सिखाई नहीं जाती। यहां भी कविता स्वयं गा रही है कि जो सुना, वही कविता में लिखा जा रहा है।
भारत में प्रमाणिक इतिहास की बेहद कमी रही है, विशेष तौर पर पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाबद। जब गांधी दृश्य पर आ गये तो वे ध्यान व मनोयोग से अपने समर्थकों को ज़िम्मेदारी देकर एक एक बात लिखवाते थे और उसे कई प्रतियों में रखवाते थे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 1917 में चंपारण के सत्याग्रह को जिस तरह लिपिबद्ध किया वह कमाल का है। एक भी तथ्य छूटा नहीं है। ख़ैर…
अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई से जो युद्ध का स्थान लिखा है वह वर्तमान जनश्रुति आधारित वर्णन व मान्यता से अलग है। मैं निजी अनुभव व अध्ययन के आधार अंग्रेज लिखित इतिहास की तारीख़ों व स्थानों पर अविश्वास का कोई कारण नहीं मानता। आम तौर पर उनका ऐसा तथ्यात्मक अभिलेख झूठ पर आधारित नहीं रहा है। जबकि भारतीय इतिहासकारों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है!
फिर जनश्रुति तो चल गई सो मान ली गई। वह तो गणेश मूर्ति का दूध पीना है। यह विश्वसनीय नहीं माना जा सकता कि ग्वालियर क़िले से रानी ने अपना घोड़ा कुदा दिया हो, क्योंकि ऊँचाई बहुत ज़्यादा है और वह सीधे सीधे जानबूझकर स्वयं को व घोड़े को मौत के मुँह में डालना था। चढ़ने व उतरने के रास्ते पहले भी ज्ञात थे। यह तथ्य भी समझ में नहीं आने वाला है कि रानी आखिरकार क़िले पर किस मक़सद से गई होंगी, वहॉं क्या था? विद्रोही सदैव छिपने के लिये अन्य तरीक़े अपनाता है जहॉं स्थानीय जन से उसे मदद मिल सके।
ख़ैर यह मान लिया गया कि रानी का प्राणांत शिंदे की छावनी और आज के फूलबाग के बीच हुआ और वहीं उनकी समाधि व मूर्ति स्थापित हो गई। अंग्रेज सैनिक अफ़सरों ने जो उस ऐतिहासिक सशस्त्र झड़प में शामिल थे और तत्कालीन प्रशासकीय परंपरानुसार, उनके लिखित अभिलेखों के आधार पर, अंग्रेज इतिहासकारों ने रानी का अंतिम युद्ध कोटे की सराय या कोठे की सराय नामक गॉंव में बताया है, जो शहर ग्वालियर की सीमा पर था और पिछले चालीस पचास साल से नगरनिगम की सीमा में स्थित है।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद आज 163 साल हो गये, आज़ादी के बाद 73 साल हो गये, पर ग्वालियर के जनप्रतिनिधियों व मप्र सरकार ने इस इतिहास को पूरे शोध व अध्ययन के बाद प्रामाणिक रूप से क्यों नहीं लिखवाया?
भारत को और विशेषकर ग्वालियर को यह सच्चाई जानने का अधिकार है। क्या कोई राजनीतिक दबाव था? किसका था? किसका हो सकता है? इन फ़िज़ूल के प्रश्नों पर हम दिमाग़ क्यों खपायें? क्या यह रानी को इतने बरसों बाद, सच्ची सही श्रद्धांजलि नहीं होगी कि इतनी बड़ी ऐतिहासिक घटना को हम सब सच्चे रूप में जानें।
अमर शहीद रानी लक्ष्मीबाई की प्रयाण स्थली भी ऐतिहासिकता के अनुरूप नहीं है। एक छोटा सा मामूली पार्क और महज़ एक खंडित मूर्ति जिस पर से रानी के पीछे बंधा उनका छोटा पुत्र चोरी हो चुका है। भारतीय प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का पूरा इतिहास दृश्य-श्रव्य व अभिलेखों, चित्रों का एक समूचा प्रेरक संग्रहालय बनना चाहिये।
पूर्वमंत्री श्री जयभानसिंह पवैया कार्यक्रम तो करते हैं पर शासन द्वारा इन सब बातों पर सम्यक् विचार हो और क्रियान्वयन हो तो रानी की स्मृति और आजादी की भावना आगामी पीढ़ियों के दिल दिमाग़ में प्रभावी रूप से अंकित हो सके।
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टीम मध्यमत