के. एन. गोविन्दाचार्य
यह सभी को ज्ञात है कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की मुहिम में बहुत प्रकार के लोग, समूह, संगठन आदि लगे थे। बहुत सी धाराएँ थीं। क्रान्तिकारियों की एक धारा थी। सुभाषचंद्र बोस की दूसरी धारा थी। उसी प्रकार नेवी विद्रोह में लगे लोगों का समूह भी सक्रिय था। स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी की एक धारा थी। अपने–अपने उद्देश्य से, अपने-अपने दृष्टिकोण से सोचते हुए कम्युनिस्ट, रेडिकल ह्यूमनिस्ट, मुस्लिम लीग आदि अंग्रेजों को भगाने में लगे थे।
इन सबसे व्यापक, समाज के सभी हिस्सों को समाविष्ट करती हुई महात्मा गाँधी जी की धारा थी। जिसमें नेहरूवादी, पटेलवादी आदि अनेक समूह शामिल थे। कौन कितना सफल रहा? या किसका कितना महत्वपूर्ण योगदान रहा? इस बारे में अनेक मत, विमत भी हैं। इनमें से गाँधीजी अंग्रेजों को भगाने तक की बातें नहीं सोचते थे। शेष समूह भी अंग्रेजों के जाने के बाद की भारत की संरचना के बारे सोचते थे, राय भी रखते थे।
गांधीजी ने अंग्रेजों के जाने के बाद के भारत के बारे में सोचते हुए रचनात्मक प्रवृत्तियों को चालू किया। राजनैतिक व्यवस्था के बारे में उन्होंने एक प्रयोग के रूप में 1921 में कांग्रेस का संविधान बनाने में प्रभावी भूमिका अदा की। खादी, चरखा, बुनियादी तालीम, हरिजनों का उद्धार, प्राकृतिक चिकित्सा आदि अनेकानेक प्रवृत्तियाँ उनकी प्रेरणा से देश भर में चलीं। पिछले 100 वर्षों में इन सारी प्रवृत्तियों का भी भारतीय जन पर असर पड़ा है।
विचार या idea of Bharat के बारे में पहले भी तीन धाराओं का उल्लेख हुआ है। पहली धारा का मानना है कि भारत वर्ष सनातन राष्ट्र है, एक राष्ट्र, अखंड राष्ट्र है। सांस्कृतिक राष्ट्र के मायने भारत राष्ट्र और हिन्दू राष्ट्र समानार्थी हैं। इसी को राम का भारत कहा जा सकता है। इसमें हिन्दुत्व का अर्थ है ‘Hinduness’ यानी हिन्दूपन जिसकी 5 आस्थाएँ है–
- सभी उपासना पद्धतियों के बारे मे समान आस्था।
- सभी भगवान के अंश है सब में दिव्यत्व है यह मान्यता।
- मनुष्य प्रकृति का अंग है विजेता नहीं। इसलिये राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संरचनाएँ प्रकृति के अनुकूल स्वावलंबन और सर्वात्मैक्य की आधारशिला पर रहनी चाहिये। जमीन, जल, जंगल, जानवर अर्थात् प्रकृति का पूरा ख्याल रखते हुए मनुष्य को अपनी जीविका और जीवन चलाना चाहिये।
- मातृत्व के गुण के कारण नारी को माता के नाते विशेष आदर का स्थान मानकर संरचनाएँ बनें, जिसमें माता केंद्र में रहे। परिवार को जीवंत और सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाये। भारत संबंधों का समाज बने न कि शर्तों का। पारिवारिकता का भाव ही सृष्टि-समष्टि के संचालन की भाव दृष्टि रहे।
- खाओ, पिओ, मौज करो और मर जाओ से परे जिन्दगी का कुछ मकसद है इसका झीना-झीना एहसास बना रहे।
दूसरी धारा उनकी है, जो मानते हैं कि भारत 15 अगस्त 1947 को जन्मा हुआ नया राष्ट्र है। सारी व्यवस्थाएँ विश्व के अन्य विकसित (उनकी नजर में) देशों यथा अमेरिका, इंग्लैंड, रूस आदि से सीखते हुए (अनुकरण करते हुए और कृपा पात्र बनते हुए) गढ़ना हैं। इसे वे राष्ट्र निर्माण मानते हैं।
तीसरी धारा उनकी है जो यह मानते हैं कि भारत राष्ट्र नहीं है, बनता हुआ राष्ट्र है Nation in the making । इसमें 17 राष्ट्रीयताएँ हैं, इनकी संप्रभुता, महासंघ, परिसंघ आदि पर विचार हो ऐसी मान्यता के साथ प्रयत्नशील लोग इस धारा के कहे जा सकते हैं। वे अपनी कोशिशों को ‘राष्ट्र का नवनिर्माण’ की संज्ञा देना, हिचक के साथ स्वीकार करते थे।
कम्युनिस्ट पार्टी और उसके विचार से चलने वाले लोग, समूह, संगठन आदि इस संगठन के माने जायेंगे। उनके लिये रूस और बाद में चीन, वियतनाम सरीखे अनुकरणीय स्थान बने। तीनों धाराओं के लिये भारतीय समाज ही कार्यक्षेत्र था, अपना प्रभाव विस्तार करने के लिये।
भारतीय समाज को कार्यक्षेत्र के नाते समझकर काम करना है तो भारतीय समाज की स्थिति को समझना जरूरी है। साथ ही सम्पूर्ण समाज में अपनी सोच के प्रति स्वीकृति प्राप्त करने की जरूरत को भी समझा जाय। तदनुसार सभी ने अपने-अपने नये प्रयास किये।
पहली धारा के प्रयास में सत्ता और चुनावी राजनीति की सीमित मात्रा में स्वीकृति थी। सरकार की बजाय समाज की ज्यादा महत्ता थी। सत्ता को सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं समझा गया। संस्कार और संगठन प्रक्रिया पर ज्यादा जोर रहा। फलतः सरकारवाद, बाजारवाद के गलियारों से गुजरते, 2010 के बाद, राजनीति में ही नहीं, यह पहली धारा समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों में ‘हिन्दुत्व विचार’ के नाते समाज में स्वीकृति पाने लगी है। समर्थन का भी विस्तार हुआ है। उसकी छटाएँ बहुत हैं। उनमें 180 डिग्री का रूप न बने यह ध्यान देने की जरूरत है। 600 , 900 तक का अंतर विविधता के रंग भरेगा, समग्रता उत्पन्न करने में उपयोगी होगा। वादे-वादे जायते तत्व बोधः की स्थिति बनाई जा सकती है।
उसी की छटाएँ नरम हिन्दुत्व, गरम हिन्दुत्व, उदार हिन्दुत्व, कट्टर हिन्दुत्व आदि नामों में हम पाते हैं। उसके लिये अपनी सोच के बारे में अभिमान और दूसरों की सोच के बारे में सम्मान जरूरी है। परस्पर विश्वास और संवाद जरूरी है।
यह सब 47 के समय ही, पहले 5 वर्षों में हो जाना चाहिये था। पर नियति ने हस्तक्षेप कर वह मौक़ा छीन लिया। शायद नियति को मंजूर न हुआ। गांधीजी की ह्त्या, रा.स्व.संघ पर प्रतिबंध, बाद में लालबहादुर शास्त्री, डॉ. राम मनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय की संदेहास्पद स्थितियों में मृत्यु हो गई। यह संकेत है कि और अधिक साधना की जरूरत थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण का स्वास्थ्य क्षीण होना और 1980 में उनके किये गये राजनैतिक प्रयोग का विघटन भी, यही जताता है। खैर! यह पहली धारा सन् पचास के कालखंड में तिरस्कृत की जा रही थी। खारिज हो रही थी। साठ वर्षों बाद राष्ट्रीय पटल पर बहस के लिये मुख्य धारा बन गई है।
पह यह तो शुरुआत है, बाधाओं की कुछ मात्रा में हटने की। पर महत्व कार्य संपन्न होने, भगवद् सत्ता के अधीन रामराज्य की संकल्पना को समझ कर कार्यरूप देना, उसमें कुशलता और निष्ठा का मेल, तो रामजी, हनुमानजी की कृपा से ही साध्य है। गंगा मैया, गोमाता इस लक्ष्य को संरक्षित रखें तभी यह सब संभव हो पायेगा। यह केवल मनुष्य के दिमाग के बूते की बात नहीं है।
इस दिशा में कई व्यक्ति, समूह, संगठन कमोबेश योगदान कर रहे हैं। जैसे आर्य समाज, संघ परिवार, गांधी विचार परिवार, देशज सोच के अनेक समूह, जीवन विद्या परिवार, गायत्री परिवार, आजादी बचाओ आंदोलन, हिन्द स्वराज अभियान, भारत स्वाभिमान मंच, राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन, आर्ट ऑफ़ लिविंग, ईशा फाउंडेशन आदि उसी दिशा में कमोबेश चल रहे प्रयास हैं। इनके अलग–अलग आग्रह के बिन्दु हैं। अपनी छटा है। क्षमता है। सीमाएँ भी हैं। इनके बीच आपसी दूरियाँ भी हैं नजदीकी भी।
भारत के सार्वजनिक जीवन के पटल पर कई कारणों से दूसरी और तीसरी धारा परिस्थितिवश परस्पर नजदीक भी आ रही है। पहली धारा के बीच संवाद बढ़ाने का प्रयास होना जरूरी है। संवाद, सहमति, सहकार ही उसका रास्ता है। हमें यह भी समझना होगा कि व्यक्ति से बड़ा दल, दल से बड़ा देश है और व्यक्ति से बड़ा संगठन लेकिन संगठन से बड़ा समाज है।
संगठन, दल आदि से बड़ी इयत्ता और अस्तित्व है समाज का। इसलिये समाज को अनेक आयामों में प्रभावित करने के लिये प्रकृति की स्थिति और गति समाज मनोविज्ञान आदि की भी समझ जरुरी होगी। सर्व समावेशकता का मन में संकल्प महत्वपूर्ण पक्ष है।
समाज पर प्रभाव या समाज का योगदान केवल सत्ता राजनीति या व्यापक राजनीति के धरातल पर ही नहीं होता। समाज के संदर्भ में उसका अपना महत्त्व है। राजसत्ता पहलू भर है, एकमेव या सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग नहीं। समाज को पांथिक, वैश्विक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर प्रभावित करने वाली शक्तियों को नजर अंदाज करना नुकसानदेह होगा। अतः जाति, क्षेत्र, भाषा, संप्रदाय, शहरी-ग्रामीण, किसान-व्यापारी, उद्योगपति, गरीब-अमीर, पुरुष-स्त्री आदि अनेक कारक तत्व हैं जिनका दखल भी उतना ही जरूरी है।
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टीम मध्यमत