बिहार में लालू, नीतीश दोनों ही असफल हुए हैं

रमाशंकरसिंह

कल से देख रहा हूँ कि बहुत से लोग लालूप्रसाद यादव को आंबेडकर व पेरियार की श्रेणी में रख रहे हैं। यह निर्विवाद है कि उन्‍होंने सांप्रदायिकता से समझौता नहीं किया पर क्या बाबासाहेब की संतानों के पास उनके मात्र मंत्री पद के कारण करोड़ों अरबों रुपयों की संपत्ति हो गई थी?

यह भी समझना चाहिये कि यदि उन पर भ्रष्ट्राचार व पद के दुरुपयोग के आरोप नहीं लगे होते तो उनका क़द आज की राजनीति में कितना बड़ा होता? यह भी सही है कि ऐसे ही आरोपों पर न जाने कितने लोग ज़मानत लेकर छूटे हुये हैं। यह भी सही है कि अदालतों के जजों ने उन पर चल रहे तमाम प्रकरणों में निजी रूप से ज़्यादा ही सख़्त रवैया अपनाया है।

यदि कोई बग़ैर ज्ञात आय के स्रोत होते हुये भी, दक्षिण दिल्ली में करोड़ों रुपयों के कई फ़ार्महाउस का मालिक है और उनमें रह रहा है, तो आरोप प्रथमदृष्ट्या तो सही दिख रहे हैं। अब अदालतें तय करेंगी कि आरोप कितने ग़लत व सही हैं।
लालू के व्यक्तित्व में बहुत खूबियां हैं और वे जमीन से जुड़े नेता रहे हैं। बेशक उन्होंने एक मज़बूत जातीय व अंतरधार्मिक गठबंधन बनाया लेकिन किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिये उसका इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि मात्र अपनी चुनावी राजनीति के लिये किया।

वे चाहते तो इसी बुनियाद पर और बहुत शक्तिशाली सामाजिक क्रांति का सूत्रपात कर सकते थे, पर गाँवों में जो जातियां वंचितों, कमजोरों, दलितों पर क़हर ढाती रहती हैं उनमें सबसे ज़्यादा अग्रणी तो यादव ही रहते हैं। जो काम बिहार में कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं ने शुरु किया और एक विशाल आधार तैयार किया, वह काम उनके बाद किसी ने भी आगे नहीं बढ़ाया। लालू-नीतीश दोनों मिलकर वह कर सकते थे, लेकिन दोनों ही इस पैमाने पर बुरी तरह असफल हुये।

नीतीश चाहे परिवारवादी राजनीति न करते हों और बेशक बिहार के संदर्भ में वे सबसे कम आरोपों से घिरे नेता रहे हों और निजी तौर पर दाग़दार भी नहीं, पर सांप्रदायिक शक्तियों के साथ जाना एक ऐसा बड़ा पाप है जो उनकी सब विशेषताओं को धो देता है। नीतीश की पार्टी के अन्य नेता वैसे ही भ्रष्ट हैं जैसे कि अन्य दलों के।

नीतीश तो कमजोर व समझौतावादी मानसिकता के व्यक्ति भी हैं, यदि वे चाहते तो एनडीए में रहकर भी अपना अलग नीतिगत खूँटा गाड़े रह सकते थे, पर उनके आसपास के सब चापलूस हर समय उन्हें एक ओर लालू का भय और दूसरी ओर मोदी का डर दिखाते रहते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्ता के इतर वे अपनी कोई राजनीति नहीं देख पाते हैं।

यह याद रखा जाये कि भारत में सांप्रदायिकता, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई का नेतृत्व एक दागरहित ईमानदार नेतृत्व ही लड़ सकता है। जैसे ही भ्रष्ट नेतृत्व सामने आयेगा वह लड़ाई कमजोर पड़ जायेगी। शुक्र है कि सांप्रदायिक राजनीति से बिहार से कोई चमकदार नेता सामने नहीं आ पाया है। जो हैं वे किसी काम के नहीं, सिवाय आग लगाने, घर जलाने और गुंडों शोहदों का नेतृत्व करने के।

बिहार की धरती को सोशलिस्ट आंदोलन के ज़रिये जेपी, लोहिया, कर्पूरी, अब्दुल बारी, रामानन्द तिवारी, सूरजनारायण सिंह, रामइकबाल समेत न जाने कितने नेताओं कार्यकर्ताओं ने अपने खून पसीने से सींचकर तैयार किया था। जहां कोई सांप्रदायिक ध्रुवीकरण संभव नहीं रहा था। पर लालू नीतीश की पीढ़ी ने सब बंटाढार कर दिया जैसा कि उप्र में मुलायमसिंह के नेतृत्व में समाजवाद का अर्थ बदल कर जाति, अपराध, व भ्रष्‍टाचार कर दिया गया!

समय बदल रहा है, पीढ़ियों का मिज़ाज बदल रहा है। 1947 के सोच व तरीक़ों से अब राजनीतिक युद्ध नहीं जीते जायेंगे। दुख कि बात यह भी है कि पूरे उत्तर भारत में जो समाजवादी सोच की शक्तियां गांव स्तर पर संगठित व मज़बूत थीं वे अपने ही नेताओं के अवसरवादी व तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिये समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुये धीरे-धीरे नष्ट व भ्रष्ट होती गईं। जबकि यह तथ्य सबको पता है कि जो यूपी, बिहार, बंगाल में राज करेगा वही दिल्ली पर निष्कंटक सत्ता में बैठेगा।

(रमाशंकर सिंह पुराने समाजवादी नेता हैं। वे ग्‍वालियर के निकट आईटीएम विश्‍वविद्यालय के संस्‍थापक कुलाधिपति भी हैं)

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टीम मध्‍यमत

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