उपनिवेशवाद दो ढाई सौ वर्ष : संक्षिप्त विवरण भाग-3

के.एन. गोविन्दाचार्य

अंग्रेजों ने 1750 से 1945 तक भारत की समाजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था और सांस्कृतिक, धार्मिक व्यवस्था पर सांघातिक प्रहार किये। 1780-1802 के बीच जमीन की मिल्कियत, जंगलात, खदान, पहाड़, सुदूर क्षेत्र आदि कब्जा करने की नीयत से Land Resettlement Act लाया गया। उसके पूर्व ‘सबै भूमि गोपाल की’ थी। ग्राम की जमीन थी। जो खेती न करे वह जमीन भी गाँव की हो जाती थी। इस Act ने किसानों को, आदिवासियों को खेतीहीन, साधनहीन बना दिया।

विरोध करने पर वे जरायमपेशा यानी अपराधी घोषित कर दिये गये। फलतः परिवार, कुटुंब, गाँव और उनकी इकाई की भूमिका खतरे मे पड़ गई। परिवार, गाँव टूट गये। प्राकृतिक एवं प्राथमिक खनिज संसाधनों को लूटकर ले जाने के लिये बंदरगाह, रेल लाइन आदि का उपयोग हुआ।

चूँकि अंग्रेज गोमांस भक्षक थे, इसलिये छल-छद्म का सहारा लेकर गोभक्षण करते रहे। भारत में अपप्रचार, गोवंश के बारे में असत्य प्रचार किया गया। फलतः एक आदमी पर 10 गोवंश की बजाय 1 आदमी पर 1 गोवंश बच सका। स्थानिक कारीगरी, व्यापार व्यवस्था, आयात-निर्यात आदि को तो क्रूरतापूर्वक नष्ट किया गया।

ईसाईकरण और भारतीय पूजापद्धति, अध्यात्म-साधना, अपप्रचार की परंपरा को रूढि करार दिया गया। धर्म सत्ता, मंदिरों, मठों को हर तरह से अपमानित और विपन्न बताया गया। चर्च को बेतहाशा जमीनें खैरात में मिल गईं।

भारत में ब्रिटिश राज के अनुकूल नौकरशाही की व्यवस्था लागू की गई। न्यायालय की ब्रिटिश व्यवस्था लाई गई। पश्चिमी शिक्षा व्यवस्था तो पारंपरिक शिक्षा व्यवस्था के ग्रामीण आर्थिक साधन स्त्रोतों को सुखाकर निचोड़कर ही आगे बढ़ी। काले अंग्रेजों की पीढ़ी बनने लगी।

दोनों विश्वयुद्धों में भारतीय सैनिकों ने शौर्य के उच्चतम कीर्तिमान फिर भी स्थापित किये। 1750-1900 के कालखंड में भारतीय समाज के अंदर न्यूनता की ग्रंथि, आत्मविस्मृति, उत्पन्न करने में वे विशेष सफल रहे। यूरोपीय परिप्रेक्ष्य में सोचने, समझने की आदत काले अंग्रेजों में पैदा करने उन्‍हें बहुतांश सफलता मिली।

भारत के अपने राष्ट्रभाव के स्थान पर यूरोपीय बचकाने राष्ट्रराज्य को आरोपित किया गया। 1930 होते-होते भारत के एक राष्ट्र के नाते अस्तित्व की भावना में ही उन्होंने संदेह, शंका, जहर घोल दिया।

आर्यसमाज के स्वामी दयानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनकी शिष्य मंडली जिसमें बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय भी थे, ने अंग्रेजों की इस चाल और इन संभ्रमकारी वृत्तियों का अपने-अपने ढंग से प्रतिकार करने में प्रभावी और सफल योगदान किया। राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, सामाजिक स्तर पर उनका योगदान मूलग्राही सिद्ध हुआ।

अंग्रेजों को भगाने में राजनैतिक, आर्थिक क्षेत्र में बहुत से श्रेष्ठ व्यक्तियों ने योगदान किया। लाल, बाल, पाल की त्रिमूर्ति का योगदान था ही। समाज सुधार के एक वार्ड ने भी भारत के सामान्य जन को जगाया, जोड़ा। उसी कालखंड में महात्मा गाँधी ने किसानों, मजदूरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, पुरुषों, महिलाओं आदि सभी को आजादी की मुहिम में सफलतापूर्वक जोड़ा।

गांधी भारत की तासीर को भी समझते थे। देश में प्रभावी सभ्यतामूलक भारत की आत्मछवि और विश्व में स्थान बताने वाला दस्तावेज 1909 से चर्चा में आ गया। लेकिन तब तक साम्यवादी, समाजवादी आंदोलन, राष्ट्र राज्य की संकल्पना, यूरोप का अंधानुकरण, आदि का ग्रहण तो लगा ही चुका था।

गांधी, विनोबा, कुमारप्पा आदि ‘हिन्द स्वराज’ की भावना को पकड़कर समाज में कार्यरत थे। राजनीति में ‘राष्ट्र’ के संदर्भ में तीन धाराएँ बन गईं। एक हिस्सा जो यह मानता था कि भारत एक राष्ट्र सदा से है। राष्ट्र राज्य की सीमित अवधारणा से परे है ‘भारतीय सनातन राष्ट्र की अवधारणा।‘

दूसरा हिस्सा जो समझता था कि राष्ट्र बनाना है, तो उसके दिमाग में स्वाभिमान और आत्मविश्वास के स्थान पर आत्मनिंदा ही प्रखर होती है। इस दूसरी धारा को ही एक और आयाम मिला, ऐसे वार्ड के रूप में जो सन् 47 से मानने लगा था कि भारत 1947 में जन्मा नया राष्ट्र है। हमें अनुकरण कर काफी कुछ वृद्धि करना है।

सन् 1945 तक तीनों धाराएँ स्वातंत्र्य आंदोलन में अपने-अपने ढंग से योगदान कर रही थीं। पहली श्रेणी के पुरस्कर्ता सावरकर, अनेक संत, गाँधीजी, विनोबाजी, रा.स्व.संघ आदि कहे जा सकते हैं। उसी में कुमारप्पा की आर्थिक सोच और बुनियादी तालीम को जोड़ा जा सकता है।

इन तीनों धाराओं के बीच खींचतान चलती रही। इसी संदर्भ में गाँधी-नेहरू विवाद को देखने की जरुरत है। ग्राम और ग्राम-स्वराज के प्रति नेहरूजी को अरुचि और गांधी के निष्ठापूर्ण आग्रह को देखना होगा। गोरक्षा के बारे में तो हिन्द स्वराज की विश्वदृष्टि ही गाँधीजी के लिये मार्गदर्शक थी।

स्वातंत्र्य प्राप्ति के संघर्ष में गाँधीजी के योगदान के बारे में तर्क-वितर्क चला करते हैं, उससे इतर अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय संरचना का अधिष्ठान क्या हो, पीठिकाएँ क्या-क्या हों? इन सब पहलुओं पर वे पहली धारा के पुरस्कर्ता नजर आते हैं। भारत विभाजन, गाँधीजी की ह्त्या के बाद संविधान निर्मात्री सभा की बहस में तीनों धाराओं के प्रतिपादक बहस में उलझते हैं। गाँधीजी सीन से बाहर थे। तीनों धाराओं का मिश्रण बना, संविधान।

देश की चिंतनधारा में, मार्क्सवादी भारत में 17 राष्ट्रीयताओं की वकालत करते थे। साम्यवादी, समाजवादी एवं कांग्रेस के भी कई महत्वपूर्ण नेता अतीत से कटकर नव-निर्माण की बात करने लगे थे।  पहली धारा के लोग पुनर्निर्माण के आग्रही थे। वे मानते थे कि अतीत गौरवशाली है, वर्तमान चिंतनीय है। भविष्य को अतीत के अनुभवों से सीखकर गढ़ना है। पुरानी नींव नया निर्माण ही आग्रह रहना चाहिये।

इस बीच द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद यूरोप, अमेरिका के सत्ताधीशों ने उपनिवेशों पर पकड़ ढीली की। नीयत में बदल नहीं था। तरीके में बदल था। संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ। अमेरिका तो यूरोप का ही विस्तार है। स्थानिक लोगों का नरसंहार कर उप महाद्वीप पर कब्जा किये लोगों की बसाहट Settlement है अमेरिका।

अमेरिका की भूमिका पचास के दशक से प्रभावी होती गई। साठ के दशक से विश्व युद्ध के बहुत से देश शीतयुद्ध की चपेट में आ गये। चीन अपने को शान्त रीति से अलग-थलग करके शक्ति संचय कर रहा था। भारत ने अपनी राह न पकड़ते हुए रूस, अमेरिका के अनुकरण की राह पकड़ ली। राजनैतिक क्षेत्र मे कांग्रेस के अंदर का प्रगतिशील धड़ा, साम्यवादी और समाजवादी सामान्यतः साथ हो लिये। आर्थिक नीति और व्यवस्था निर्धारण में गाँधीजी को पूरी तौर पर तिलांजलि दे दी गई।

वैचारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक क्षेत्रों का हनन किया गया। प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीयपन का तिरस्कार किया गया। देश को अपनी तासीर के अनुसार चलने से वंचित किया गया, देश की अभीप्सा यात्रा को कमजोर किया गया। देश की पहचान को विकृत किया गया। देश के इतिहास को भीषण रूप से विकृत किया गया।

दकियानूसी, अवैज्ञानिक आदि खिताब से देशज ज्ञान-परंपरा को नवाजा गया। देश की तासीर के अनुकूल चलने वाली इच्छाशक्ति, स्वाभिमान और आत्मविश्वास को कुंठित किया गया। देश की SWOT Analysis बिलकुल पलट दी गई। ताकत को कमजोरी और कमजोरी को ताकत चित्रित किया गया। चीनी आक्रमण ने देश की चेतना को झकझोरा। राष्ट्रवाद को सांप्रदायिकता करार दिया गया। वहीं अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को सेकुलरवाद बताया गया। राजनैतिक व्यवस्था समाजोन्मुखी से हटकर सत्ताकेन्द्रित होती गई।(जारी)

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टीम मध्‍यमत

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