अब फ्लाइट, एसी ट्रेनों और बसों से बुला रहे मजदूरों को

अनिल यादव

लॉकडाउन के बाद गतिविधियों में ढील देने से अब कोरोना संक्रमितों और मृतकों की संख्या बढ़ने की मनहूस खबरें सामने आ रही हैं लेकिन इन्हीं के साथ मजदूरों को वापस बुलाने की रोचक खबरें भी मिलने लगी हैं। इन खबरों को पढ़ कर फिलहाल तो लग रहा है मजदूर और मजदूरी को समाज में सम्मानजनक स्थान मिलने के दिन बस अब आने ही वाले हैं।

ज्यादा नहीं बस दो-तीन सप्ताह पहले ही लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की बदहाली की तस्वीरें पूरे देश ने देखी थीं। काम-धंधे बंद हो जाने से आर्थिक तंगी झेलने वाले हैरान-परेशान मजदूर अपने पत्नी और नन्हें बच्चों को साथ लेकर अपने गाँवों और घरों के लिए पैदल ही सैकड़ों किमी के सफर पर निकल पड़े थे। वे सभी तस्वीरें दिल को हिला देने वाली थीं।

लेकिन हो सकता है अब हमें आने वाले दिनों में मजदूरों की दिल प्रसन्न करने वाली कुछ तस्वीरें भी दिखें।  लॉकडाउन में ढील दिए जाने के बाद अब हालात कुछ बदलते से नजर आ रहे हैं। ढील के पहले दौर में अब सभी क्षेत्रों में मजदूरों की कमी महसूस हो रही है, केवल प्रशिक्षित मजदूरों की ही नहीं, कृषि मजदूरों की भी।

यही वजह है कि इण्डस्ट्रीज और खेती को फिर से रफ्तार देने के लिए अब मजदूरों को मनुहारें करके काम पर वापस बुलाने का दौर शुरू हो गया है। एक तरफ जहां निर्माण इंडस्ट्री अपने मजदूरों को बुलाने के लिए हवाई यात्रा और एसी ट्रेनों के टिकटों की व्यवस्था कर रहीं हैं वहीं दूसरी तरफ किसान अपने खर्च पर बसें भेज कर मजदूरों को अपने खेतों तक वापस ला रहे हैं।

खबर है कि हैदराबाद में अधूरे पड़े निर्माण कार्यों को पूरा करने के लिए अब वहाँ के बिल्डर उत्तर भारत से अपने खर्च पर फ्लाइट और एसी ट्रेनों से मजदूरों को हैदराबाद बुलवा रहे हैं। इस पर प्रति मजदूर उनका पाँच हजार रूपये तक का खर्च आ रहा है। सिर्फ यही नहीं कुछ तो अपने मजदूरों को कुछ रकम एडवांस में देने का वायदा भी कर रहे हैं। इन बिल्डरों को अपने काम पूरे करने के लिए कारपेंटर जैसे प्रशिक्षित मजदूरों की बहुत कमी महसूस हो रही है।

उधर पंजाब में जहाँ अधिकाँश खेती और उद्योग-धंधे प्रवासी मजदूरों पर ही निर्भर हैं, मजदूरों की कमी के चलते किसानों और उद्यमियों ने अब प्रवासी मजदूरों को वापस लाने के लिए खुद जतन करने शुरू कर दिए हैं। वे उप्र और बिहार के उन गाँवों में अपनी तरफ से बसें भेजने को मजबूर हो गए हैं जहाँ से मजदूर पहले अपना किराया-भाड़ा खर्च करके पंजाब में मजदूरी करने आते थे।

खबर यह भी है कि लॉकडाउन में ढील के बाद से अब तक केवल पंजाब के बरनाला जिले में ही सौ से अधिक बसों से मजदूरों को लाया जा चुका है। बिहार से मजदूरों को बस से लाने पर नियोक्ताओं को एक से सवा लाख रुपये तक का खर्च आ रहा है, जबकि उप्र के गाँवों से इन मजदूरों को लाने पर प्रति बस पचहत्तर हजार रुपये तक का खर्च पड़ रहा है।

जबकि एक बस में अधिकतम चालीस मजदूर ही आ रहे हैं। मतलब यह है कि मजदूरों को उनकी मजदूरी देने के अलावा अब उन्हें काम पर लौटा लाने पर भी, प्रति मजदूर दो से तीन हजार रुपये खर्च किया जा रहा है।

यही नहीं लौट कर पंजाब आने वाले इन मजदूरों को अब वीआईपी ट्रीटमेंट भी मिल रहा है और उनका स्वागत फूलमालाओं से किया जा रहा है। इन प्रवासी मजदूरों को पंजाब वापस लाने वाले किसान और उद्यमी जिला प्रशासन की अनुमति और उन्हें क्‍वारेंटाइन रखने जैसी सभी शासकीय औपचारिकताएँ भी पूरी कर रहे हैं।

पंजाब के बरनाला जिले में जहाँ इन मजदूरों को वापस लाया गया है वहाँ के कृषि सेक्टर में तो मजदूरों की कमी है ही वहाँ की फैक्टरियों को पूरी तरह चलाने के लिए जितने मजदूरों की जरूरत है उसके एक चौथाई मजदूर भी नहीं मिल रहे हैं। यानी मजदूरों की कमी अभी भी बहुत बनी हुई है।

कोरोना प्रकोप और लॉकडाउन के कारण बंद उद्योग-धंधों को फिर से चलाने में मजदूरों की कमी का संकट उन राज्यों में भी महसूस किया जा रहा है जहाँ के सर्वाधिक मजदूर दूसरे राज्यों में मजदूरी के लिए जाते रहे हैं। उप्र के औद्योगिक नगर गाजियाबाद में भी इण्डस्ट्रीज की कुल जरूरत के केवल आधे मजदूर ही उपलब्ध बताये जा रहे हैं और अब उद्यमी अपनी स्किल्ड लेबर को वापस बुलाने के लिए उनके लिए अपनी तरफ से ट्रेनों के टिकट बुक करा रहे हैं।

यह अभी केवल लॉकडाउन में ढील दिए जाने के पहले हफ्ते की ही तस्वीर है। अभी सभी काम-धंधे बहुत ही नियंत्रित तरीके से चलाए जा रहे हैं और यदि कोरोना प्रकोप नियंत्रित रहता है और इण्डस्ट्रीज की गतिविधियों को और छूट दी जाती है तो मजदूरों की,विशेष कर प्रशिक्षित मजदूरों की मांग देश में और बढ़ेगी। तब पूरा मामला मांग और पूर्ति का बन जाएगा। जिससे श्रम का मोल और श्रमिकों का सम्मान दोनों बढ़ेंगे। हो सकता है अब शायद मजदूरों के अच्छे दिन आ जाएँ।

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टीम मध्‍यमत

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