रमेश रंजन त्रिपाठी
जैसे मछली के बच्चे को तैरना नहीं सिखाया जाता, उसी तरह इंसानों को ट्रोल करने की ट्रेनिंग नहीं दी जाती। यह प्रतिभा सभी मनुष्यों में यों छिपी होती है ‘ज्यों पुहुपन में वास’। ट्रोल करना हर व्यक्ति अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। इस असार संसार में ऐसा कौन है जिसे ट्रोल न किया गया हो? जब देव-दानव, यक्ष-किन्नर ट्रोल की मार से नहीं बच सके तो नर पामर की क्या बिसात! लोग कितने भी व्यस्त हों, उन्हें मरने की फुरसत भले न हो लेकिन ट्रोल करने का समय वे निकाल ही लेते हैं। सच है ‘ट्रोल बिना चैन कहां रे’!
आदिमानव भी ट्रोल करते रहे होंगे तभी अच्छी-बुरी, पाप-पुण्य जैसी दो समानांतर विचारधाराओं का प्रादुर्भाव संभव हुआ होगा। इंसान और शैतान एक दूसरे को आदिकाल से ट्रोल कर रहे हैं और अनंतकाल तक करते रहेंगे। ज्ञानी पुरुष कह गए हैं कि ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छबाय।‘ अंग्रेजी मीडियम की बलिहारी है जिसने निंदा को भी ट्रोल करने से नहीं बख्शा।
ट्रोल करने की कला को क्लासिक का अघोषित दर्जा प्राप्त है। सभी इसके प्रशंसक हैं। जिंदगी के मेले में ट्रोलिंग का स्थाई पंडाल सबसे ज्यादा भीड़ आकर्षित करता है। ट्रोल करनेवालों की यूनियन इस कला को सरकारी मान्यता दिलाने का प्रयास कर रही है ताकि इसे पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सके। दूसरी ओर, एक बड़ा वर्ग इस कोशिश को यह कहकर ट्रोल कर रहा है कि जो कला प्रकृति प्रदत्त है उसे किसी मान्यता की क्या जरूरत है? यूं भी, इन दिनों ‘प्रेम’ के ‘ढाई आखर’ और ‘ट्रोल’ के ‘डबल टू एंड हाफ लेटर’ के बीच सुपीरियारिटी की प्रतिस्पर्धा चल रही है। इस खींचतान में ‘ट्रोल’ के सामने ‘प्रेम’ की वही हालत है जो अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी की होती है।
ट्रोल के बिना राजनीति और सेलिब्रिटी की कल्पना की जा सकती है क्या? भक्त और भगवान की भांति यह अनन्यता भी स्तुत्य है। ट्रोलिंग न हो तो अनेक नामों पर चढ़ी समय की धूल भी साफ न हो। जितनी ज्यादा ट्रोलिंग, नाम में उतना ज्यादा निखार। मुस्तफा खां शेफ्ता के शेर ‘हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम, बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा’ का मुरीद कौन नहीं है? ‘ट्रोल’ और ‘ट्वीट’ दोनों की राशि एक है इसलिए इनकी पटती भी खूब है।
बिना ‘ट्रोल’ के ‘ट्वीट’ वैसा ही होता है जैसे पंख के बिना परवाज। किसी ट्वीट की लोकप्रियता उसके ट्रोल की संख्या से तय होती है। ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर रहकर कोई न ट्रोल करे, न ट्रोल हो तो सोशल मीडिया के अंगने में उसका क्या काम है? जिस नेता की सभा में भीड़, सेलिब्रिटी के आगे-पीछे फैन्स और सोशल मीडिया में ट्रोल न हो तो समझ लीजिए लोग उसे इग्नोर करने लगे हैं। इसलिए समझदारी इसी में है कि ऐसा कुछ जरूर करते रहिए कि ट्रोल होते रहें।
फैन फॉलोइंग से ट्रोल फॉलोइंग अधिक महत्वपूर्ण है। सभी सेलिब्रिटी की ट्रोल फॉलोइंग जबरदस्त होती है। बड़े लोगों के बोल-वचन ट्रोल करनेवालों की खुराक होते हैं। एक नशेड़ी की तलब और ट्रोलर के बयान की भूख के बीच प्रतियोगिता हो तो नतीजे के लिए फोटोफिनिश तकनीक का सहारा लेना पड़े।
ट्रोलर इसी ताक में बैठे रहते हैं कि कब कोई कुछ कहे और वे उसे लपक लें। फिर, बात का बतंगड़ बनाने की कला का प्रदर्शन शुरू होता है। एक से बढ़कर एक दांव-पेंच दिखाए जाते हैं। कई प्रोफेशनल भी मैदान में उतर आते हैं। मीडिया का पेट भरने लगता है। जनता बिना टैक्स के मनोरंजन का लुत्फ उठाने लगती है।
अनेक संस्थाएं रिसर्च में जुटी हैं कि इस ‘ट्रोल डिश’ का मानव के तन-मन पर कैसा असर होता है? प्रभाव स्थाई होता है या अस्थाई? इसके साइड इफेक्ट क्या हैं? ट्रोल करने में ‘झोलाछाप’ ज्यादा कारगर हैं या ‘ट्रेन्ड’? वैसे इन सवालों के जवाब अधिकांश को पता हैं किंतु ट्रोल होने का भय उन्हें मुंह नहीं खोलने देता।
ट्रोल के टूल का सटीक प्रयोग करने में माहिर उस्ताद आधुनिक दरबारों के नवरत्नों में भी जगह बनाने में सबसे आगे रहते हैं। अनेक ने इस विधा में इतना नाम कमाया है कि लोग उन्हें भी सेलिब्रिटी की तरह ट्रोल करने लगे हैं। आप भीड़ में जुमला उछालकर देखिए, जिसके कानों पर पड़ेगा वही ट्रोल करनेवाला निकलेगा।
ट्रोल मंडली को इतना ट्रोल करना आपको अच्छा लगा हो तो मुझे भी अधिक से अधिक ट्रोल करके उपकृत करें। मैं जानता हूं कि बुरा लगेगा तो आप वैसे भी मुझे ट्रोल किए बिना छोडेंगे नहीं। यानी मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं!
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टीम मध्यमत