क्या इस देश को संसद की जरूरत नहीं रही?

राकेश अचल

सवाल बड़ा टेढ़ा और अबूझ है। आप इस सवाल पर आपत्ति भी कर सकते हैं और सहमति भी जता सकते हैं।  देश बीते तीन माह से कोरोना संकट के दौर से गुजर रहा है। केंद्र सरकार अपने ढंग से इस संकट से निबट रही है, उसे कामयाबी मिली या नहीं ये अलग विषय है। असल विषय तो ये है कि कोरोना संकट के अलावा देश की सीमाओं पर तनाव, प्राकृतिक आपदाएं और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में भारत की भूमिका जैसे मुद्दों पर सरकार देश की संसद की उपेक्षा क्यों कर रही है?

सरकार ने हाल ही में एक फैसला और लिया है जिसके तहत कोरोना वायरस महामारी के चलते मौजूद वित्तीय संकट को देखते हुए नई योजनाओं की शुरुआत पर रोक लगा दी गई है। अगले एक वर्ष तक पीएम गरीब कल्याण पैकेज और आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत ही खर्च किया जाएगा। सवाल ये है कि क्या ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय संसद की कोई जरूरत नहीं? आप इस फैसले को प्रशासकीय कह कर अनदेखा नहीं कर सकते।

देश की आजादी के बाद ये पहला बेनजीर मौक़ा है जब एक महामारी की आड़ में देश में सब कुछ स्थगित है।  सब कुछ से आशय सब कुछ ही है। यहां तक कि न्याय व्यवस्था भी स्थगित है। ढाई महीने लम्बे लॉकडाउन के बाद धीरे-धीरे देश को खोला जा रहा है। आने वाले महीने में शायद संसद भी खोली जाएगी, लेकिन जब संसद की जरूरत थी तब उसे भी बंद रखा गया, अदालतों की तरह।  सवाल यही है कि क्या किसी देश में संसदीय और न्यायिक कामकाज को स्थगित किया जा सकता है।

जब हम स्कूल/कॉलेज में पढ़ते थे तो हमें बताया जाता था कि संसद सुप्रीम है। भारत की संसद के विधायिका के कार्डिनल कार्य, प्रशासन की देखभाल, बजट पारित करना, लोक शिकायतों की सुनवाई और विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करना होते हैं। जैसे विकास योजनाएं, राष्ट्रीय नीतियां और अंतरराष्ट्रीय संबंध। इसके अलावा केन्द्र और राज्यों के बीच उन अधिकारों का वितरण, जो संविधान में बताए गए हैं। अनेक प्रकार से संसद का सामान्य प्रभुत्व विधायी क्षेत्र पर है।

विषयों की एक बड़ी श्रृंखला के अलावा, सामान्य समय में भी संसद कुछ विशिष्ट परिस्थितियों के तहत उस कार्यक्षेत्र के अंदर आने वाले विषयों के संदर्भ में विधायी अधिकार ले सकती है, जो विशिष्ट रूप से राज्यों के लिए आरक्षित हैं। संसद को राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने और उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने का अधिकार प्राप्त है। विधान के प्रत्यायोजन अधिकार के अलावा संविधान में संशोधन के अधिकार संसद में निहित हैं। लेकिन अब लगता है कि हमें गलत पढ़ाया जाता था क्योंकि अब तो सरकार सुप्रीम दिखाई दे रही है।

पिछले तीन महीने में मौजूदा सरकार ने वो सब कर दिखाया जो बीते 73 साल में नहीं हुआ। देश पर आपातकाल थोपने का कलंक सहने वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी इस मामले में पीछे रह गयीं। अब दिन प्रति दिन नया इतिहास लिखने की होड़ है। सरकार को छोड़ सब कुछ शक्तिहीन दिखाई दे रहा है।  ये पहला मौक़ा है जब देश में विपक्ष नाम की संस्था भी निष्प्राण दिखाई दे रही है। सरकार को रोकने-टोकने का कोई उपकरण किसी के पास नहीं है। तमाम लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं स्थगित हैं, तमाम संवैधानिक संस्थाएं लॉकडाउन की जद में हैं या वहां नाममात्र का काम हो रहा है जो न होने के बराबर है।

सवाल ये है कि नयी योजनाओं के बारे में निर्णय सरकार को ही लेना है तो संसद को क्या करना है। उसे तो वस्तु स्थिति का पता ही नहीं है, किसी ने उसे कुछ बताया ही नहीं है। शायद इसकी जरूरत ही नहीं समझी गयी। समूचे विपक्ष में से एक आवाज नहीं उठी कि संसद का विशेष सत्र बुलाकर उसे वस्तुस्थिति से अवगत कराया जाये।

संसद के विशेषाधिकारों को उठाकर ताक पर रख दिया गया है, अब जब संसद का मानसून सत्र होगा तो उसमें करने के लिए सिवाय हंगामे के कुछ होगा ही नहीं, क्योंकि सरकार तो सब कुछ पहले ही कर चुकी है। देश को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प उसने पहले ही ले लिया है और अब नई योजनाएं न शुरू करने का फैसला भी हो ही गया है। अब संसद या तो समर्थन में टेबलें थपथपाये या फिर हंगामा करे। सरकार पर इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।

संसद और अन्य संवैधानिक संस्थाओं को पंगु बनाने की कोशिशों से मुझ पर कोई असर नहीं पड़ेगा। असर पडे़गा इस देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं और मूल्यों पर। जब देश को ही इसकी चिंता नहीं है तो मैं कौन होता हूँ सवाल करने वाला। मुझे तो सिर्फ इतना दुःख है कि समाज की प्रश्नाकुलता और प्रतिकार दोनों बधिया हो गए हैं।

कोरोनाकाल के बावजूद अमेरिका में ये सब ज़िंदा है, लोग सड़कों पर निकलकर प्रतिकार करना नहीं भूले हैं, अपने नायकों को टोकना नहीं भूले हैं। और ऐसा ही होना भी चाहिए। हम सब भूल रहे हैं तो पछताना भी हमें ही पडेगा। ज़िंदा कौमें अब पांच साल का इन्तजार करना जो सीख गयीं हैं।

एक सवाल ये भी बाकी है कि आप तो अपने ‘मन की बात’ जब चाहे कर सकते हैं, लेकिन जनता के मन की बात करने के सारे साधन निलंबित से हैं। जनता के मन की बात केवल और केवल संसद में होती है।

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टीम मध्‍यमत

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