राकेश अचल
दुनिया के सबसे बड़े ताकतवर देश को जलते हुए देखकर विश्वास नहीं होता की इक्कीसवीं सदी में भी वहां रंगभेद एक बड़ी समस्या बनकर इतने नग्न रूप में दिखाई देगी? रंगभेद का इतिहास जानने के लिए आपको अनेक पुस्तकें पढ़ना पड़ेंगी। दुनिया के हर हिस्से में ये समस्या किसी न किसी रूप में मौजूद रही है। रंगभेद एक मानसिक समस्या है। गोरे-काले का भेद हर समाज में मौजूद रहा है लेकिन सत्ता में बैठने वाले गोरी चमड़ी के लोगों ने इस समस्या को हमेशा गंभीर बनाया।
इस समस्या से निबटने के लिए दुनिया के अलग-अलग देशों में क़ानून भी बने। समस्या का निवारण भी हुआ, लेकिन समूल नाश नहीं हुआ। अमेरिका के संदर्भ में ये समस्या 1964 में एक लम्बे आंदोलन के बाद बने क़ानून के बाद समाप्त दिखाई देने लगी थी। लेकिन ये एक भ्रम था जो 2020 में एक बार फिर टूटा है।
मिनियापोलिस में एक गिरफ्तारी के दौरान एक अश्वेत जार्ज फ्लॉयड की मृत्यु के बाद अमेरिका में अचानक विरोध प्रदर्शन शुरू हुए जो अंतत: दंगों में तब्दील हो गए। विरोध की आग आधे से ज्यादा अमेरिका में फ़ैल गयी, जबकि इसके पीछे कोई बड़ा नेता नहीं है। अब अमेरिका को इस अशांति पर काबू पाने के लिए नेशनल गार्ड्स की मदद लेना पड़ रही है और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सेना की मदद के विकल्प पर भी विचार कर रहे हैं।
ये एक अकल्पनीय स्थिति है और इसने रंगभेद के बारे में नए सिरे से सोचने पर विवश कर दिया है। महाबली अमेरिका में मुझे संयोग से पूरे 365 दिन रहने का अवसर मिला है। मैं किस्तों में अमेरिका में पूरे एक साल रहा। मैं अभिभूत था यहां गोरों-कालों के बीच साम्य देखकर।
अश्वेत अमेरिका में हर क्षेत्र में कार्यरत हैं और श्वेत-अश्वेत दोनों के बीच आम व्यवहार को देखकर कोई कह नहीं सकता कि उनके मन में रंग को लेकर कोई द्वेष है। दोनों में अब रोटी-बेटी के रिश्ते भी पनप चुके हैं। अश्वेतों के केंद्र अटलांटा में मैंने देखा कि अधिक संख्या में होते हुए भी अश्वेत आपको आतंकित नहीं करते हालांकि उनके बारे में ये धारण है कि वे आक्रामक होते हैं और अपराधों में लिप्त रहते हैं।
अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ गांधीवादी तरीके से संघर्ष करने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर के घर और समाधि पर भी मैंने अश्वेतों को देखा। उनसे मिला और बात की। लेकिन मैं आश्वस्त था कि सब कुछ ठीक ठाक है। मुझे कभी-कभी लगता कि ऐसा ही माहौल भारत में भी होना चाहिए। लेकिन मैं गलत था, वहां अंदर ही अंदर आग धधक रही थी। जिसे आसानी से पहचाना नहीं जा सकता। हकीकत और अफ़साने में फर्क तो होता ही है।
ताजा दंगों के बाद आंकड़े सामने आने लगे हैं कि क़ानून के कारण अश्वेत अमेरिका में श्वेत बच्चों के साथ स्कूलों में प्रवेश तो पा लेते हैं, लेकिन स्कूलों से निकले जाने वाले बच्चों में से 36 फीसदी बच्चे अश्वेतों के होते हैं। सड़क पर ट्रैफिक पुलिस जिन लोगों को रोकती है, उनमें भी 88 फीसदी अश्वेत ही होते हैं हालांकि ट्रैफिक पुलिस में अश्वेत भी शामिल होते हैं।
अमेरिका की न्याय प्रणाली भी ऐसी बताई जाती है कि हत्या के मामले में यदि अपराधी अश्वेत है तो उसे सजा मिलने की संभावना तीन गुना ज्यादा होती है। यदि नौकरियों में बुलावे का मामला हो तो वहां भी अश्वेत पीछे रह जाते हैं, उन्हें पचास फीसदी कम बुलाया जाता है। सबसे बड़ी बात ये है कि पुलिस को संदेह के आधार पर कार्रवाई का अधिकार है और इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल अश्वेतों के खिलाफ होता है।
अमेरिका में भड़के दंगों के पीछे कोरोना संकट भी एक वजह बताया जाता है। भले ही अमेरिका में कोरोना संकट के दौरान लॉकडाउन में भारत जैसे पलायन के दृश्य नजर नहीं आये, लेकिन वहां भी कोई 4 करोड़ लोग बेरोजगार हो गये। और इनमें बड़ी संख्या अश्वेतों की है। बेरोजगारी से जूझ रहे अश्वेतों को भड़काने का ये एक मौक़ा था। अमेरिका की राजनीति भारत से एकदम अलग है, यहां स्थानीय मुद्दों को संभालने पर राष्ट्रीय दल ज्यादा महत्व देते हैं।
स्थानीय लोग बताते हैं कि ये पहला मौका नहीं है जब अमेरिका में हजारों की संख्या में लोग सड़क पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं। हालात यहां तक खराब हो चुके हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को बंकर में छिपना पड़ा। अमेरिका में बीते 60 सालों से नस्लीय हिंसा हो रही है। यहां काले-गोरे का भेद अब तक खत्म नहीं हो सका है।
हर बार जब इस तरह की चीजें होती हैं तो अमेरिका की सड़कों पर तांडव देखने को मिलता है। उसके बाद भी बीते 60 सालों में इस पर रोक नहीं लग पाई है। लॉस एजेंलिस शहर में पुलिस ने आईडेंटिटी चेक के लिए दो अश्वेत पुरुषों को रोका और फिर उन्हें पुलिस स्टेशन ले जाया गया। फिर पुलिस पर आरोप लगा कि उसने ऐसा नस्लीय घृणा के चलते किया। इसके बाद 11 से 17 अगस्त तक शहर के एक हिस्से में भयानक दंगे हुए, इनमें 34 लोगों की मौत हुई थी।
यहां 1967 -68 में भी दंगे भड़के, लेकिन फिर 1980 तक शांति रही। 1980 में भड़के दंगे में 18 लोग मरे। फिर 1992 में 59 लोग मारे गए। 2001, 14, 15, 16 में भी दंगे हुए लेकिन ये मामूली थे। चार साल बाद फिर से अमेरिका दंगों की चपेट में है। ये आग अमेरिका में होने वाले चुनावों को भी प्रभावित करेगी ऐसा लगता है।
मैं अब अमेरिका में शांति स्थापित होने के बाद ही जाऊंगा। हिंसा से दग्ध अमेरिका को एक बार फिर मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसा गांधी चाहिए तभी स्थिति सुधरेगी।
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टीम मध्यमत