हिन्दवी स्वराज्य यानी हिन्दू साम्राज्य स्थापना दिवस

शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक दिवस

रमेश शर्मा

भारतीय स्वाभिमान, स्वतंत्रता और स्वत्व के दमन से भरे उस घोर अंधकार युग में ‘हिन्दवी स्वराज्य’ या हिन्दू साम्राज्य की स्थापना, इतिहास की वह अद्भुत घटना है जिसके उदाहरण दुनिया में बहुत कम मिलते हैं। यह क्षण था शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक जिसे उन्होंने अपना साम्राज्य नहीं ‘हिन्दवी स्वराज्य’ का नाम दिया था। वह दिन ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी सन 1674 का था। तिथि गणना के हिसाब से यह दिन इस बार 3 और 4 जून को पड़ रहा है जबकि वैसे अंग्रेजी कैलेण्‍डर के हिसाब से यह प्रतिवर्ष 6 जून को पड़ता है।

इसी तिथि को शिवाजी महाराज ने समुद्र सतह से लगभग पन्द्रह सौ मीटर ऊँचाई पर बने रायगढ़ किले में हिन्दवी स्वराज्य या हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की थी। बनारस के आचार्य गागा भट्ट माता जीजाबाई और इतिहास प्रसिद्ध संत समर्थ स्वामी रामदास सहित देश के कोने कोने से पहुंचे स्वराज समर्थक शासन प्रतिनिधि इसके साक्षी बने। यह भारतीय स्वाभिमान, अस्तित्व और सनातन परंपरा के लिये अद्भुत गौरव का पल था।

यह क्षण जितना अविस्मरणीय है, इतिहास में उसका उल्लेख उतना ही अल्प। इसके जो भी कारण रहे हों, लेकिन अब देश में आज का युवा एक ओर विज्ञान के अनुसंधान में विश्व की महाशक्तियों से स्पर्धा कर रहा है, तो दूसरी ओर अपने अतीत के पन्नों में बिखरे गौरव पलों को एकत्र करने और संकलित करने के काम में भी जुटा है। नवीन पीढ़ी की इस श्रम साधना से जो गौरवमयी तथ्य सामने आये हैं वे प्रत्येक भारतीय का शीश उन्नत करने वाले हैं। यह सत्य हमें यह बोध भी कराते हैं कि भारत ने कभी भी दासत्व की पूर्णता को स्वीकार नहीं किया।

यूँ तो दुनिया का प्रत्येक देश और प्रत्येक संस्कृति कभी न कभी  आक्रांताओं के दमन से आहत हुई है, किन्तु भारत में यह अवधि सबसे लंबी रही है। अंधकार का इतना लंबा दौर दुनिया में कहीं नहीं रहा। लेकिन यह विशेषता भी भारत की ही है कि शताब्दियों तक दासत्व दमन सहने के बाद भी भारत में भारत जीवित रहा। भारत के अतिरिक्त दुनिया में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं कि दासत्व के अंधकार में उनकी सभ्यता सुरक्षित रही हो।

अंधकार छंटने के बाद सबके रूप बदले, नाम बदले, पहचान भी बदल गई। भारत को क्षति तो बहुत हुई फिर भी भी भारत में भारतत्व सुरक्षित रहा। इसका कारण यह था कि भारत ने दासता की पूर्णता को कभी नहीं स्वीकारा, अस्मिता के लिये संघर्ष सदैव बना रहा और इसी भाव का संगठित स्वरूप है शिवाजी महाराज का हिन्दवी स्वराज्य, जिसे हम आज हिन्दू साम्राज्य के रूप में याद करते हैं।

यह साम्राज्य चारों ओर तनाव, दबाव और आक्रमणों के बीच स्थापित हुआ था। दक्षिण से गुजरात तक पाँच सुल्तान और उत्तर में शक्तिशाली मुगल। लेकिन शिवाजी महाराज ने सबसे टक्कर ली। कभी संगठित शत्रुओं का सामना किया, कभी अलग-अलग भी। इनमें कोई ऐसा नहीं जो उनके युद्ध कौशल और रणनीति से पराजित न हुआ हो। उन्होंने आदिलशाही, निजाम और मुगलों तक से युद्ध का व्यय वसूल किया और उन्हें अपनी श्रेष्ठता स्वीकार करने पर विवश किया।

शिवाजी महाराज ने अपनी शक्ति का विस्तार अपने पिता के रहते ही कर लिया था, लेकिन उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता की घोषणा नहीं की। यह उनकी माता जीजाबाई के संस्कार और गुरू समर्थ स्वामी रामदास की शिक्षा थी कि उन्होंने अपने पिता के रहते अपने साम्राज्य की विधिवत घोषणा नहीं की। इसका कारण यह था कि उनके पिता शाहजी आदिलशाही में सेनापति थे और उन्होंने अपने राजा को वचन दिया था कि शिवा स्वतंत्र शासक नहीं बनेंगे।

इसीलिए शिवाजी महाराज ने स्वयं को संयमित किया। उनके पास पूना को केन्द्र मानकर लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर लंबे और लगभग अस्सी किलोमीटर चौड़े क्षेत्र का आधिपत्य था। उनकी अपनी सेना थी, सहायक थे, लेकिन तब तक वे स्वयं को पिता की ओर से आदिलशाही की धरोहर ही बताते थे। जब पिता का देहान्त हुआ और आदिलशाही में सत्ता का आंतरिक संघर्ष आरंभ हुआ, तब शिवाजी महाराज ने अपने को स्वतंत्र शासक घोषित किया और राज्याभिषेक की अनुमति दी।

राज्याभिषेक के पूर्व ही उनके मन में अपनी भावी सत्ता का एक पूरा स्वरूप था जो तत्कालीन परिस्थितियों का प्रतिकार करने और सुधार करने के संकल्प के साथ तैयार हुआ था। शिवाजी महाराज वे भयानक परिस्थितियां कभी नहीं भूले जो उन्होंने बचपन से देखी और सुनी थीं। बचपन में उन्हें उन समाचारों ने विचलित किया था कि बनारस में मंदिर तोड़कर आक्रमणकारियों ने मूर्तियों को सीढ़ियों में लगवाया।

वे तुलजा भवानी के उपासक थे। यह मंदिर भी तोड़ दिया गया, चिपलूर में भगवान् परशुरामजी मंदिर और पंढरपुर के विठोबा मंदिर को भी ढहा दिया गया। स्त्रियों का अपमान तो मानों हमलावर सैनिकों के खून था। निजाम ने पूना पर हमला कर पूरा नगर विध्वंस किया, कत्लेआम कराया और गधे से हल चलाया। इस हमले का वीभत्स वर्णन है कि लाशें उठाने वाला भी कोई नहीं बचा था।

इन बातों ने शिवाजी के भीतर एक श्रेष्ठ सैनिक और संस्कृति रक्षक बनने का संकल्प जगाया। वे अपनी बाल्यवय में ही सैनिक अभ्यास करने लगे थे। उन्होंने बालपन में ही टोलियाँ गठित करने और पीड़ितों की सेवा का काम आरंभ कर दिया था। कोई सैनिक वहां रहने वाले किसी परिवार को या सैनिकों की टुकड़ी किसी गाँव को प्रताड़ित करती तो उनकी सेवा के लिये पहुँचने वाली टोली शिवा की होती।

उनके इन सेवा कार्यों ने ही उन्हें लोकप्रिय बनाया और स्वतंत्रता के विचार वाले बच्चे उनकी ओर आकर्षित होने लगे। किशोर वय तक तो उन्होंने एक सैन्य टुकड़ी का गठन कर लिया था जो सैनिकों को अत्याचार से रोकते। उनकी शिकायतें कयी बार आदिलशाही में हुईं और पिता को सफाई देना पड़ी।

यह उनके भीतर पनपता गुस्सा ही था कि जब पिता उन्हें एक बार दरबार में लेकर गये तो उन्होंने सिर नहीं झुकाया। तब शिवाजी महाराज बारह वर्ष के थे। पन्द्रह वर्ष की आयु में शिवा ने युद्ध में हिस्सा लिया। यह युद्ध पूना के दक्षिण में जुन्नारनगर में हुआ। जिसका नेतृत्व स्वयं शिवा ने किया। शिवाजी पूना के विध्वंस को कभी नहीं भूले। उन्होंने पूना का पुनर्निर्माण कराया और सोने का हल चलवाया।

शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित साम्राज्य स्थापना के इस विवरण में संपूर्ण भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। वैदिक वाड्मय से लेकर आचार्य चाणक्य के सिद्धांत तक सभी सिद्धान्तों की झलक। जिसमें राजा स्वामी नहीं सेवक होता है। राज्य की शक्तियाँ या तो समाज के पास होतीं हैं या प्रधानों के पास। शिवाजी महाराज ने पूरा मंत्रिमंडल बनाया जिन्हें ‘अष्ट प्रधान’ का नाम दिया गया।

अष्‍ट प्रधानों में पेशवा, आमात्य, मंत्री, सचिव, सुमन्त, नायक, पंडितराव और न्यायधीश ये कुल आठ पद थे। इस मंत्रिमंडल को ही अष्टप्रधान कहा गया। प्रत्येक प्रधान अपने विभाग से संबंधित कार्यों का निर्णय लेने में स्वतंत्र था। इसमें पेशवा के अधिकार प्रधानमंत्री के रूप में, आमात्य के पास समस्त वित्तीय अधिकार, मंत्री के पास साम्राज्य में घटी समस्त घटनाओं का विवरण, सचिव के पास समस्त कार्यालय और कार्य प्रगति का विवरण रहता था।

सुमन्त की भूमिका विदेश मंत्री जैसी, नायक की भूमिका सेनापति के रूप में, पंडितराव के पास धर्मस्व निर्णय अधिकार और न्यायधीश के पास विवादों के निराकरण का दायित्व था। कहने के लिये यह हिन्दवी स्वराज्य या हिन्दू साम्राज्य था लेकिन इसमें सभी मतों और धर्मों का समान आदर था। शिवाजी महाराज ने यदि मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया तो पूना में अपने निवास के सामने मस्जिद का निर्माण भी कराया। वहीं पादरी एंब्रोज के आग्रह पर चर्च का निर्माण भी कराया।

उनके शासन में मंदिरों और मस्जिदों को समान अनुदान मिलता था। महिलाओं, निराश्रितों और बुजुर्गों के सम्मान के विशेष निर्देश थे। इसका उदाहरण बसई युद्ध में मिलता है। युद्ध के बाद खजाने की पूछताछ करते वक्‍त नवाब की बहू को बंदी बनाकर पूछताछ हुई, इसपर शिवाजी महाराज ने क्षमा याचना की और उन्‍हें सम्मान सहित विदा किया। शिवाजी महाराज ने संस्कृत और मराठी को राजभाषा घोषित किया, अपनी मुद्रा निकाली।

यह राज मुद्रा संस्कृत में थी जिसे बनारस के गागा भट्ट ने तैयार किया था जिसमें अंकित था-

‘प्रतिपच्चंद्र लेखेव वर्धिष्णु विश्ववंदिता

शाहसुनोः शिवस्येषा मुद्राय राजते’

अर्थात “जिस प्रकार बाल चन्द्र प्रतिपदा से धीरे धीरे बढ़ता है और सारे विश्व द्वारा वंदनीय होता है उसी प्रकार शाहजी राजे के पुत्र शिवा की यह मुद्रा बढ़ती जायेगी”

शिवाजी महाराज ने नई कर प्रणाली लागू की जिसमें छोटे कृषक से कम और बड़े कृषक से अधिक कर लेने के मानदंड स्थापित किये गये। गोहत्या निषेध और स्त्री सम्मान का आदेश जारी हुआ। उन्होंने नौसेना का एक बेड़ा तैयार किया। यही बेड़ा भारत में नौसेना की शुरुआत है। हालांकि भारतीय नौ सेना के इतिहास में शुरुआत अंग्रेजों द्वारा तैयार उस टुकड़ी को बताया जाता है जो उन्होंने अपने व्यापार की रक्षा के लिए तैयार की थी। पर वह तो व्यापार रक्षा के लिए लिये थी। युद्ध के लिये तो बेड़ा शिवाजी महाराज ने ही तैयार किया था

शिवाजी महाराज ने उस समय के अधिकांश राजाओं को स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के लिये भी प्रेरित किया था और सहायता का आश्वासन दिया था। उनके कहने पर ही बुन्देलखण्ड में महाराज छत्रसाल ने, असम में महाराज चक्रधर सिंह ने और कूचविहार में महाराज सत्य सिंह ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की थी। शिवाजी महाराज ने राजा जयसिंह को भी पत्र लिखकर स्वतंत्र राजा बनने का आग्रह किया था।

यह हिन्दवी स्वराज्य का संकल्प ही था जिससे सैकड़ों साल बाद भारत में स्वतंत्र सत्ता का बोध हुआ। शिवाजी महाराज तक आते आते भारतीय शासक स्वतंत्र सत्ता मानों भूल चुके थे। आक्रामकों द्वारा उनसे छीनी गयी सत्ता में अधीनस्थ रहना ही जैसे भारतीयों ने अपना भाग्य समझ लिया था।

हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना ने पूरे देश को झकझोर दिया। आत्म अभिमान का बोध जागा और अपनी सत्ता का संघर्ष आरंभ हुआ और अंततः भारत ने अपने स्वतंत्र आसमान तले श्वांस लेना आरंभ की।

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टीम मध्‍यमत

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