संजोग का नाम था अजित जोगी

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राकेश अचल

नौकरशाही के लिए गढ़े गए अजित जोगी अब नहीं रहे, उनकी यादें ही अब मन को पुलकित करती रहेंगी।  बहुत कम लोगों को पता होगा की इस मिठबोले नेता का नौकरशाही का पहला स्कूल ग्वालियर था। वे ग्वालियर में शायद एडिशनल कलेक्टर थे। मुझे जोगी की पदस्थापना का समय ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि वे ग्वालियर के गोरखी में प्रथम तल पर बैठते थे। जोगी हालांकि कम समय ही ग्वालियर रहे, लेकिन वे ग्वालियर को कभी भूले नहीं।

जोगी मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बेहद निकट थे। वे नौकरशाह होते हुए भी कभी नौकरशाहों जैसा आचरण नहीं कर पाए। एक स्निग्ध मुस्कान उनके चेहरे पर सदा चिपकी रहती थी, जो कभी भी कुटिल भी हो सकती थी और निर्मल भी। जोर देकर बोलना उन्हें आता नहीं था।  उनकी आवाज में छत्तीसगढ़िया स्वाद अलग से झलकता था।

वे जब इंदौर कलेक्टर थे उस समय उनसे अनेक अवसरों पर मिलना हुआ। उन दिनों मैं जनसत्ता का संवाददाता था।  सम्पादक जी की कृपा थी कि उन दिनों में ग्वालियर का होते हुए भी प्रदेश में कहीं से भी रिपोर्टिंग कर सकता था। जोगी प्रेस के लिए बेहद पारदर्शी थे। जब वे ग्वालियर में थे उस समय मैं छात्र था लेकिन कोई भी समस्या हो जोगी सबकी मदद के लिए तैयार रहते थे। एक छात्र के रूप में मेरे जैसे पत्रकार को उन्होंने वर्षों बाद भी भुलाया नहीं। उनकी याददाश्त जबरदस्त थी।

अजित जोगी सर्व सुलभ थे, इसलिए लोकप्रिय भी रहे। सियासत में उनकी दिलचस्पी थी जरूर लेकिन वे यकायक राजनीति को अपना कॅरियर बना लेंगे ये कोई नहीं जानता था। उन्हें जानने वाले जानते हैं कि जोगी ने कैसे एक झटके में मात्र ढाई घंटे के अल्टीमेटम पर नौकरशाही को ठोकर मारकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर कांग्रेस की सदस्य्ता ग्रहण कर ली थी।

जोगी को अर्जुन सिंह पसंद करते थे, किन्तु दिग्विजय सिंह से उनकी अनबन रहती थी। हमारे साथी नईम कुरैशी जोगी जी के परम प्रिय थे, उनके साथ भी एक बार मैं उनके दिल्ली स्थित आवास पर रुका। वे अपने कार्यकर्ताओं के लिए सहज-सुलभ थे। उनका यही गुण उनकी लोकप्रियता का एक कारण भी था।

जोगी के साथ इतने संयोग जुड़े थे कि उन पर अलग से कहानी बनाई जा सकती है। उनका मुख्यमंत्री बनना भी एक संयोग ही था और बाद में संयोगों के चलते ही वे कांग्रेस से बाहर भी हुए। कांग्रेस में शामिल होने के कुछ ही दिन बाद उनको कांग्रेस की ऑल इंडिया कमिटी फॉर वेलफेयर ऑफ़ शेड्यूल्ड कास्ट एंड ट्राइब्स का मेंबर बना दिया गया।  कुछ ही महीनों में वे राज्यसभा भेज दिए गए।

अजीत जोगी ने हवा का रुख भांप अर्जुनसिंह को अपना गॉडफादर बना लिया। बड़ा हाथ सिर पर आया तो अजीत खुद को पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों का नेता मानने लगे। इतने बड़े कि जो दिग्विजय सिंह उन्हें राजनीति में लाए थे, उनके ही खिलाफ मोर्चा खोल दिया। 1993 में जब दिग्विजय सिंह के सीएम बनने का नंबर आया तो जोगी भी दावेदार थे। दावेदारी चली नहीं, पर दिग्विजय जैसा एक दोस्त दुश्मन जरूर बन गया। बाद में दिग्विजय कैसे जोगी के काम आये ये अलग किस्सा है।

जोगी आदिवासी थे या नहीं, इस पर लंबा विवाद रहा, लेकिन अदालत से उन्हें राहत मिली। उनका पारिवारिक जीवन सुखद था, लेकिन उस पर दुःख का पहाड़ भी टूटा। पर जोगी ने हर बार अपने आपको सम्हाला। जोगी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने और फिर लगातार छत्तीसगढ़ की राजनीति में प्रासंगिक बने रहे। जब कांग्रेस में उनके खैरख्वाह कम हुए तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ अपनी अलग पार्टी बना ली। लेकिन दोबारा सत्ता की सीधी नहीं चढ़ सके। वे एक बार व्हील चेयर पर आये तो फिर उसी पर सवार होकर इहलोक को रवाना हुए।

नौकरशाही छोड़कर लोकशाही में जगह बनाने वाले जोगी जैसे लोग कम ही होते हैं, आजकल दिल्ली में अरविंद केजरीवाल जोगी की तरह एक अपवाद हैं। जोगी नहीं रहे लेकिन जब भी उठापटक की राजनीति के किस्से कहे और सुने जाएंगे उनमें अजित जोगी के किस्सों को भी शुमार किया जाएगा। जोगी को एक विनम्र नेता के रूप में मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

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टीम मध्‍यमत

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