राकेश अचल
कोरोना से निबटने के लिए लागू किया देशव्यापी लॉकडाउन का चौथा चरण भी समाप्त हो जाएगा, लेकिन लगता है कि लॉकडाउन के कारण मजदूरों के पलायन और उसको लेकर शुरू हुई सियासत कभी समाप्त नहीं होगी। जैसाकि मैंने पहले दिन ही 26 मार्च को कहा था कि लॉकडाउन को बिना तैयारी के घोषित किये जाने से जो असुरक्षा मजदूरों के मन में पैदा हुई ये पलायन उसी का नतीजा है। और दुर्भाग्य से कोई सरकार इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। आतंकी संगठन भी हत्याओं के बाद अपने अपराध का जिम्मा ले लेते हैं लेकिन सरकारें तो इन हत्यारे संगठनों से भी ज्यादा अनैतिक हो गयीं है।
मजदूरों को लेकर अब यूपी में सियासी घमासान चल रहा है। जिस कांग्रेस ने पहले मजदूरों का रेल किराया देने का ऐलान कर केंद्र के मुंह पर तमाचा मारा था उसी कांग्रेस ने यूपी के मजदूरों को लाने के लिए एक हजार बसें देने का प्रस्ताव कर यूपी सरकार की मुश्किल बढ़ा दी।
यूपी सरकार ने आनाकानी के बावजूद कांग्रेस के प्रस्ताव को सशर्त स्वीकार कर लिया और जब कांग्रेस ने बसों की सूची सरकार को सौंप दी तो उसी में कथित जालसाजी का आरोप लगाकर कांग्रेस की यूपी प्रभारी प्रियंका वाड्रा के निज सचिव और यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष के खिलाफ जालसाजी का मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया। कांग्रेस की बसें आगरा में खड़ी रहीं लेकिन मजदूर उनमें नहीं बैठ सके।
मुमकिन है कि कांग्रेस द्वारा दी गयी बस सूची में कुछ नंबर गलत हों, तो ये गलती जालसाजी की श्रेणी में तो नहीं आती। सरकार उक्त नंबरों को खारिज कर कांग्रेस से दूसरे नंबर मांगती लेकिन न सरकार ने अपनी गलती मानी और न कांग्रेस ने। प्रियंका के निज सचिव ने जो सूची सरकार को दी उसे उन्होंने तो नहीं बनाया होगा, उन्हें कांग्रेस की विभिन्न इकाइयों से उक्त नंबर मिले होंगे।
और बहुत मुमकिन है कि इसमें ऑटो रिक्शा,कारों और एम्बुलेंसों के नमबर भी हों। यूपी सरकार को बसे नहीं कांग्रेस को छकाने का बहाना चाहिए था सो उसे मिल गया और कांग्रेस को नाटक का मौक़ा चाहिए था सो उसे मिल गया। केवल मजदूरों को बसें नहीं मिलना थीं, सो नहीं मिलीं। वे आज भी सड़कों पार पैदल मार्च कर रहे हैं।
भारत में लॉकडाउन की वजह से मजदूरों के पलायन की जो तस्वीरें दुनिया के सामने आईं हैं उनसे दुनिया भर में भारत की थू-थू हुयी है, लेकिन केंद्र क्या किसी भी सरकार ने स्थित से निबटने के लिए कोई फुलप्रूफ योजना नहीं बनाई। सब एक-दूसरे के पाले में गेंद फेंकने में लगे हैं। सरकार को अपनी गलती सुधारने के लिए एक-दो दिन नहीं, पूरे पचास दिन मिले, लेकिन किसी ने इस समस्या के निदान को लेकर कोई गंभीर प्रयास नहीं किये।
20 लाख करोड़ का विशेष राहत पॅकेज भी मजदूरों की त्रासदी के नीचे दब-कुचल कर कहीं मर गया। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले साल की ये सबसे बड़ी नाकामी है जो स्वर्णाक्षरों में तो नहीं लिखी जायेगी। इसे बदइंतजामी का सबसे दुखद और काला अध्याय ही माना जाएगा।
मजदूरों के नाम पर बेशर्मी से राजनीति कर रही कांग्रेस और भाजपा को फौरन खारिज किया जाना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य ये है कि ऐसा सम्भव नहीं होगा, क्योंकि जनता मासूम है, बार-बार ठगी जाती है। कोरोना के नाम पर तो जनता से पिछले सत्तर साल की सबसे बड़ी ठगी हुई है। लेकिन न कोई अदालत दखल दे रही है और न कोई संसद, विधानसभाएं तो कर ही क्या सकतीं हैं? पूरा संघीय ढांचा चरमरा रहा है, लेकिन राजनीति को ये चरमराहट सुनाई ही नहीं देती। सरकार के कानों में तो तेल पड़ा हुआ है ऊपर से कानों में रुई ठूंसी हुयी है।
कोरोना ने पहले से हृदयहीन सियासत को और वज्र कर दिया है। सरकार रोते-बिलखते, सड़कों पर कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचलकर मरते मजदूरों और उनके परिवारों को देखने के लिए तैयार ही नहीं हैं। लगातार लॉकडाउन बढ़ाकर उसमें उलझे देश को बाहर निकालने में भी सरकार उसी तरह नाकाम दिखाई दे रही है जैसे कि मजदूरों के मामले में नजर आयी।
आने वाले दिनों में इस देश की जनता का क्या भविष्य होगा राम ही जाने। मुझे तो सब गड़बड़ दिखाई दे रहा है। मजदूर अपने हाल पर हैं और सरकारें अपने हाल पर। दोनों के बीच का रिश्ता टूट चुका है। अविश्वास का जैसा माहौल आज देश में है वैसा कम से कम हमारी पीढ़ी ने तो कभी नहीं देखा।
ये दुरावस्था तो इंदिरा गांधी के आपातकाल से भी गयी-बीती है। तब जनाधिकार निलंबित किये गए थे अब तो मानवाधिकार बर्खास्त ही कर दिए गए हैं। आप रोटी मांगिये तो लाठी मिलेगी, रोजगार मांगिये तो लाठी मिलेगी। दवा मांगिये तो लाठी मिलेगी, रेल-बस मांगिये तो लाठी मिलेगी। लगता है कि सरकार के पास हर सवाल का जवाब लाठी ही रहा गया है।
आप मेरी बातों से असहमत हो सकते हैं लेकिन मजदूरों की दुर्दशा और इसके कारण दुनिया में हो रही देश की बदनामी से भी असहमत हैं तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना और फिर ये आलेख आपके लिए है भी नहीं।
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टीम मध्यमत