अजय बोकिल
जरा इन तारीखवार खबरों पर नजर डालें। ये न तो किसी भुखमरी से ग्रस्त देश के दूरस्थ अंचल की हैं और न ही किसी बदहाल अफ्रीकी या दक्षिण अमेरिकी देश की। ये खबरें अपने ही देश में लॉक डाउन लागू होने के बाद की हैं।
- 31 मार्च। बिहार के आरा शहर के जवाहर टोले में रहने वाले मुसहर समुदाय के आठ साल के राकेश की भूख से मौत। शव को ठेले पर लाद अंतिम संस्कार। लॉक डाउन के कारण पिता की मजदूरी बंद थी। 24 मार्च के बाद घर में खाना नहीं बना था। राकेश का पिता कबाड़ चुनकर बेचता था।
- 16 अप्रैल। देश की राजधानी दिल्ली के निगमबोध श्मशान घाट के पास फेंके गए सड़े-गले केलों में कुछ कम सड़े केले खाकर कुछ लोग पेट की आग बुझाते मिले। पूछा तो बोले- जब खाने को कुछ नहीं मिल रहा है तो सोचा इन्हीं केलों से पेट भरें। सब बंद है। सड़क पर जाओ तो पुलिस मारती है। क्या करें?
- 7 मई। मुंबई से दानापुर (बिहार) जा रही श्रमिक एक्सप्रेस की एक बोगी में भोजन के पैकेटों को लेकर मप्र के सतना स्टेशन पर भूखे मजदूरों में जमकर मारपीट। लात-घूंसे और बेल्ट चले। खाने के मुफ्त पैकेट राज्य सरकार ने मुहैया कराए थे। पुलिस के हस्तक्षेप के बाद मामला किसी तरह सुलझा।
- 16 मई। प्रवासी मजदूरों के लिए बिहार के सहरसा में बने क्वारेंटाइन सेंटर में मजदूरों को खाने के लिए सिर्फ सूखा चूड़ा, नमक और मिर्च। नाराज मजदूरों का भारी हंगामा। लाठी डंडे चले। राज्य के राजद नेता तेजस्वी यादव का ट्वीट…शर्म करो !
- 17 मई। महाराष्ट्र के नागपुर में महज एक पूड़ी के लिए एक मजदूर की हत्या। दूसरा मजदूर गंभीर रूप से घायल। लकड़गंज थाना क्षेत्र में तड़के साढ़े तीन बजे का हादसा।
ये सभी मामले दो माह के भीतर के हैं। पहली घटना तब की है, जब देश में कोरोना से लड़ने वालों के उत्साहवर्धन के लिए थालियां बजी थीं। सब कुछ बंद होने में भी भरे पेट वालों को रोमांटिक-सा महसूस हो रहा था। लेकिन लॉक डाउन 2.0 के आते-आते कोरोना के खिलाफ यह भावनात्मक लड़ाई डरावनी हकीकत में बदलने लगी। पहली बार उजागर हुआ कि कोरोना से भी बड़ा वायरस भूख का है।
किसी को अंदाज नहीं था कि इस कोरोना युद्ध की सतह के नीचे करोड़ों प्रवासी मजदूरों का सागर लहरा रहा है, जो काम-धंधे बंद होने के बाद सब कुछ गंवा के जैसे भी बने अपने गांवो को लौटने पर मजबूर हैं। तमाम अपीलें, पैकेजों की दलीलें भी इस बाढ़ को रोक नहीं पा रही हैं। क्योंकि इन मजदूरों का भरोसा व्यवस्था से उठ चुका है। ऐसे में अधिकांश लोग पैदल, कोई साइकिल से, कुछ ऑटो से तो कुछ बैगेज की ट्रॉली खींचते हुए मीलों-मील चलते-चले जा रहे हैं।
मजबूरी में ही सही, हौसलों ने फासलों को चित कर दिया है। हफ्तों से घरों में बंद हम जैसे कई लोगों को यह अहसास भी नहीं है कि इस वक्त देश के राजमार्ग, वाहनों के बजाए बदहवास प्रवासी मजदूरों से पटे पड़े हैं। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक, चप्पलें घिसते, पैरों के छालों को सहते, भूखे-प्यासे किसी तरह घर पहुंचने की आस में चलते ये मजदूर राज्यों की सीमाओं पर अलग तरह से प्रताडि़त हो रहे हैं तो अपने ही घर जाने देने की भीख पुलिस से मांग रहे हैं। कई जगह अपनी बची-खुची पूंजी भी पुलिस को रिश्वत में दे रहे हैं तो कई के पास वह भी नहीं है। खाने के लिए भी पैसे नहीं हैं तो एक लोटा पानी से ही पिचके हुए पेट को भर रहे हैं।
वो खुशनसीब हैं कि जो किसी तरह हजारों किलोमीटर पदयात्रा कर घर पहुंच भी गए हैं। लेकिन वो बदनसीब हैं, जिनके लिए घर जाने का रास्ता भी यमलोक का रास्ता साबित हुआ। करीब दो सौ मजदूर अलग-अलग हादसों में घर पहुंचने से पहले ही मौत के मुंह में समा चुके हैं। भूख और लॉक डाउन के मारे ये लोग काल से नहीं बच सके।
उधर सरकारें केवल इन मजदूरों के लिए पैकेज घोषित करने, अपनी सीमाओं पर नाकेबंदी करने या फिर श्रमिक एक्सप्रेस जैसी विशेष ट्रेनें चलाकर और इन ट्रेनों पर भी राजनीति कर अपने कर्तव्य की इतिश्री करने में लगी हैं। अपनी स्थापना के डेढ़ माह बाद पीएम केयर्स फंड से मोदी सरकार ने 1 हजार करोड़ रूपए जारी किए। जरूरत के हिसाब से यह बहुत कम है। इसका भी लाभ मजदूरों को वास्तव में कब मिलेगा, अभी तय नहीं है। लेकिन क्या यह फंड दिल्ली के आनंदपुर बस स्टैंड पर उमड़ी मजदूरों की भीड़ के बाद ही जारी नहीं हो सकता था?
इस स्तम्भ के आरंभ में जिन मार्मिक घटनाओं का जिक्र है, उसका निहितार्थ यही है कि लॉक डाउन 4.0 में कोरोना से भी ज्यादा विकराल समस्या मजदूरों की भूख की हो गई है। सरकार दावा कर रही है कि वह गरीबों को मुफ्त अनाज, दाल दे रही है। कहीं कोई कमी नहीं है। अब तो ‘एक देश, एक राशन कार्ड’ योजना भी आने वाली है। कोई कहीं भी कार्ड दिखाकर अनाज ले सकता है। सरकार गरीबों, जिनमें ज्यादातर मजदूर हैं, को 500 रुपये महीना दे ही रही है। मनरेगा का बजट भी लगभग दोगुना कर दिया है। और क्या करें? सरकार के पास समस्याओं का उतारा योजनाओं की शक्ल में है। ये दिया, वो दिया। वो भी दे दिया। अब और क्या दें?
कहा यह भी जा सकता है कि आप मीडिया में भूखे मजदूरों की कराहें तो छाप रहे हैं, लेकिन उन लाखों गरीब और मजदूरों को सामाजिक संस्थाएं खाना खिलाकर जिंदा रखे हुए हैं, वे खबरें नहीं बन पा रही हैं। मीडिया में भरे पेट पर भूख क्यों हावी है? सवाल वाजिब है लेकिन इसका उत्तर और भी विचलित करने वाला है। इसलिए कि प्रगति के तमाम दावों और तरक्की के जमाने भर के आंकड़ों के बाद भी आज देश में सभी मजदूरों को भरपेट रोटी भी हम नहीं दे पा रहे हैं।
वरना कोई कारण नहीं था कि लॉक डाउन के आगाज में ही बिहार का राकेश भूखे पेट मर जाता। दिल्ली में श्मशानघाट के पास फेंके हुए केले खाकर मजदूर पेट का गड्ढा भरते। ट्रेन में भूखे मजदूर खाने के पैकेट लूटने के लिए एक-दूसरे को न मारते और नागपुर में महज एक पूड़ी के लिए एक मजदूर दूसरे की जान न लेता।
सबसे अफसोस की बात तो यह है कि कोरोना के खिलाफ जंग में राजनीतिक पार्टियों के ज्यादातर नेता नदारद हैं या फिर बयान जारी करने का कर्मकांड कर रहे हैं। कोरोना वॉरियर कहलाने में भी उनकी कोई रुचि नहीं है। वहां चिंताएं अगर हैं भी तो इसकी कि अगला मंत्री कौन बनने वाला है और उपचुनाव में किसको टिकट मिलने वाला है। यहां कुर्सी की लड़ाई कोरोना पर भारी है।
यूं प्रवासी मजदूरों की अंतहीन पीड़ा के प्रति सबके मन में सहानुभूति है। राजनीतिक डर भी है कि वोटों के मैनेजमेंट में ये लोग कैसे और कहां छूट गए? इनका क्या करें? ये काम के लिए इधर से उधर जाते ही क्यों हैं कि लॉक डाउन में इन्हें हाथ से पेट थामे गांवों को लौटना पड़ता है? वो जहां हैं, वहीं क्यों नहीं रुक जाते? सरकारें इतना कुछ कर रही हैं उसकी भी इन्हें कदर नहीं, वगैरह…।
लेकिन आश्वासनों के पने से समस्याओं की लू नहीं उतरती। आज बेहाल श्रमिकों की तत्काल जरूरत है, जीने लायक नकदी पैसा, अनाज के साथ-साथ खाने की और जरूरी चीजें और सिर छिपाने के लिए छत। वो भरोसा करें भी किस पर? मोटे-मोटे पैकेजों की खबरों पर या उन आंकड़ों पर जिन्हें ठीक से गिनना भी उन्हें नहीं आता?
उनकी हैसियत न टीवी देखने की है और न ही अखबार पढ़ने की। अभी भी यह कोई नहीं बता रहा है कि हर महीने पांच सौ रुपये के चढ़ावे से हटकर कम से कम पांच हजार रुपये महीना सीधे मजदूरों के हाथों में कौन, कैसे और कब देगा? ताकि वो किसी तरह अपनी बिखरी जिंदगी समेट सकें। है कोई जवाब?
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टीम मध्यमत