अजय बोकिल
लॉक डाउन में समूचा देश मानो कई विरोधाभासों को एक साथ जी रहा है। एक तरफ खुली शुद्ध हवा, नदियों के निर्मल जल, नीला साफ आसमान, चहकती चिडि़यों के दुर्लभ नजारे, सूनी सड़कें, फ्लैशबैक में जा चुकी पारिवारिकता का लौट आना, कोरोना कर्मवीरों की जांबाजी तो दूसरी तरफ जीने की सिहराने देने वाली जद्दोजहद, भूख और कोरोना के बीच मौत के कम तकलीफदेह कारण को वरण करने की मजबूरी, भयंकर हताशा एवं अंधेरे भविष्य के गहराते साए हैं। कोरोना जैसे मायावी वायरस से बचना सभी चाहते हैं, लेकिन उसकी कीमत सब अलग-अलग तरीके से अदा कर रहे हैं या करने पर मजबूर हैं। किसी को आगे का रास्ता ठीक से सूझ नहीं रहा है। क्या होगा, कैसे होगा?
इस लॉक डाउन में तमाम एहतियाती उपायों के बाद भी कोरोना के बढ़ते कूच, मौतों के निरंतर बढ़ते आंकड़े, कोरोना की कयामती लहर में डूबते काम-धंधे, राजनेताओं की शोशेबाजियां और चौतरफा उठती आहों और कराहों ने समूची मानवता को घनचक्कर बना दिया है। सुझाव बहुतों के पास है, समाधान किसी के पास नहीं है। आलोचनाओं के तेजाबी घोल हैं, संजीवनी बूटी किसी के पास नहीं है। यूं तो दुनिया में विश्व युद्धों में लाखों लोग मरे हैं। लेकिन आज पूरा विश्व एक ऐसे अदृश्य शत्रु से लड़ रहा है, जिसका सिर काटने के लिए जरूरी सुदर्शन चक्र किसी के पास नहीं है।
ये अलग-अलग अहसासों का समय है। एक अहसास सकारात्मक (भले थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो) भी है। पर्यावरण रक्षा का जो काम वैश्विक चर्चाओं, सौदेबाजियों और संगठनों से न हो पाया, वो कोरोना ने महीने भर में कर दिखाया। उसने मानव सभ्यता को लॉक डाउन पर मजबूर किया तो लॉक डाउन ने प्रकृति को उसकी आबरू फिर लौटा दी। यातायात, प्रदूषणकारी और आर्थिक गतिविधियां और प्राकृतिक स्रोतों के अनैतिक और निष्ठुर दोहन से मैली हुई नदियों का पानी फिर निर्मल होने लगा है। जलीय जीव खुली हवा लेने फिर जल की सतह पर विचरण करने लगे हैं।
शहरों की हवाओं से धुंध छंट चुकी है। असहज लगने वाली शांति में कई जगह कोयल की कूक भी सुनाई देने लगी है। सड़कों पर आवारा कुत्ते निश्चिंत भाव से विचरने लगे हैं। इन अघोषित रखवालों के मन में सवाल है भी तो यह कि आखिर सारे इंसान चले कहां गए? नगर निगम की गाडि़यां हम कुत्तों की जगह कहीं गलती से मनुष्यों को तो नहीं उठा ले गईं? अब कोई हमें हड़काने के लिए भी सड़क और गली में नजर नहीं आता। शहर की जहरीली हवा को पी-पीकर थक चुके पेड़-पौधे भी सुकून में हैं। पेट्रोल-डीजल और चिमनियों का जहरीला धुआं पेड़ों की पत्तियों पर कालिख नहीं पोत रहा है। सब कुछ थम सा गया है।
पूरा शहर घरों में कैद है। फ्लैटों में लोग कभी-कभार बालकनियों से झांक लेते हैं। एक फर्क और पड़ा है। बरसों बाद लोगों को छतों की अहमियत फिर समझ आने लगी हैं। एक मराठी सीरीयल में डायलॉग था- जिसमें नवब्याहता पत्नी, पति से नियरेस्ट डेस्टिनेशन पर चलने का आग्रह करती है। लेकिन लॉक डाउन में हनीमून मनाने भी कहां जाएं। चतुर पति तुरंत जवाब देता है- घर की छत पर ही चलते हैं। एकदम नियरेस्ट और नॉवेल भी।
बहुत ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब मध्यम और निम्न वर्गीय घरों में छतों का बहुआयामी उपयोग हुआ करता था। गर्मियों में दिन में पापड़-बड़ी सुखाने से लेकर रात में सोने के लिए। तकरीबन हर घर में बच्चों की ड्यूटी रात को छत पर बिस्तर बिछाने और सुबह उठकर उन्हें लपेटकर रखने की हुआ करती थी। जैसे-जैसे रात उतरती जाती, हवाओं में ठंडक घुलती जाती। लोग बिना कूलर, पंखे या एसी के चैन की नींद सोते और तड़के पक्षियों की चहचहाहट उनकी आंखें खोल देती। जिन घरों में छतें नहीं थीं, गर्मियों में उनकी रातें आंगन में खाट या पलंग बिछाकर सोने में कटतीं।
सोने से पहले परिवारजनों में अंताक्षरी, ताश के पत्तों की बाजी या फिर किस्से-कहानियां सुनाने का दौर चलता। बिना किसी क्लास अथवा काउंसलिंग के संस्कारों का डोज भीतर तक उतर जाता। लॉक डाउन ने छतों के उस रोमांच को फिर जिंदा कर दिया है। तपती दोपहर के बाद शाम को मल्टी अथवा अपार्टमेंट के फ्लैटों में कैद चेहरे फिर छतों पर जुटने लगे हैं। थमी हुई जिंदगी को छतों की ऊंचाइयों से देखने लगे हैं। बच्चों के लिए भी खेल का मैदान छत ही रह गया है तो बड़े-बूढ़ों को ‘मन की बात’ करने का यही माध्यम कारगर लगने लगा है। फर्क इतना है कि आजकल छत को टेरेस कहा जाने लगा है।
कोरोना के कारण परिवारों में आपसी संवाद भी बढ़ा है। मोबाइल, लैपटॉप और वॉकमैन आदि ने परिजनों को साथ में रहते हुए भी अलग-थलग कर दिया था, उसका असर भी कुछ कम हुआ है। इन गैजेट्स से ऊब कर लोग रूबरू बातें भी करने लगे हैं। घरों में कामों का बंटवारा हो गया है। सीमित संसाधनों में आत्मनिर्भर जीवन के सबक बगैर कोचिंग और यू ट्यूब के सीखे जा रहे हैं। ज्यादा शेयरिंग हो रही है।
कुछ रोमांटिक-सी लगने वाली इन बातों के बरखिलाफ वो कड़वी और भयावह सच्चाइयां भी रूबरू हैं, जहां मानवता ही जीने का कठोर संघर्ष कर रही है। नाइजीरिया में एक मां की वो कहानी दिल दहला देने वाली है, जो चूल्हे पर चढ़े पतीले में पत्थर उबालने के लिए सिर्फ इसलिए रख देती है कि उसका मासूम भूखा बेटा इस उम्मीद में सो जाए कि मां खाना पका रही है। हमारे देश में सड़क पर ट्रक से गिरे गेहूं के दाने बीनती उस बच्ची की तस्वीर भी रोंगटे खड़े कर देती है, जो मां के कहने पर इस आस में यह सब करती है कि इतने दानों से कम से कम छोटे बेटे की रोटी तो बन ही जाएगी।
एक राज्य से दूसरे राज्य में लौट रहे प्रवासी मजदूरों की कहानियां भी उतनी ही डरावनी है। कहीं लोग भूखे प्यासे सैंकड़ों किलोमीटर पैदल ही चले जा रहे हैं तो कहीं भयानक गरमी में मिक्सिंग प्लांट में कैद होकर घंटों सफर कर घर लौटने की जद्दोजहद करने को मजबूर हैं। ज्यादातर के पास दो कपड़ों और चार बर्तन के अलावा कुछ भी नहीं बचा है। राशन खरीदने तक के लिए उनके पास पैसे नहीं है। गरीब तो वो थे ही, लॉक डाउन ने उन्हें लाचार भी बना दिया है। केवल नकद राशि और पेट भरने लायक खाना ही इनकी जिंदगियां बचा सकता है। हालांकि सरकारें और कई सामाजिक संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं, लेकिन जरूरत उससे कहीं ज्यादा है।
दरअसल कोरोना ने समाज के चेहरे को भी सीधे-सीधे दो भागों में बांट दिया है। जहां एक तरफ लॉक डाउन के चलते घरों में कैद होने को एंज्वाय करने का आग्रह है तो दूसरी तरफ यह काल कोठरी या किसी अंतहीन मसान का एंट्री गेट बन गया है। मानो कोरोना के रूप में प्रकृति हमसे बदला ले रही है। उसके साथ अवांछित और निर्लज्ज छेड़छाड़ का प्रतिशोध ले रही है। शायद इसीलिए कोरोना हाल की सदियों में उपजे प्रगति और विकास के मानकों को मिसाइल की तरह टारगेट कर रहा है। हालांकि मनुष्य इससे कुछ सीखेगा, इसकी संभावना कम है। लेकिन बदले हालात में कुछ तो बदलेगा। नहीं बदलेगा तो और भी कई कोरोना हमले के लिए तैयार खड़े हैं।
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)
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टीम मध्यमत