स्वदेशी ‘माडल’ ही समर्थ भारत का आधार

जयराम शुक्ल

यह समय बाहर से न्योती गई इस बाजारू गुलामी के सत्य को समझने का है। संकट और एकांत में मनुष्य के ज्ञानचक्षु खुल जाते हैं उन्हें आज खोलने की जरूरत है।

बाजार आज हमें हाँक रहा है। हम क्या खाएं, क्या देखें, सुनें, सोचें कैसे रहें इन सब बातों का नियामक आज बाजार और उपभोगवाद बन गया है।

विगत दो महीनों से जिस तरह हम सब जी रहे हैं उससे यह सोचने का अवसर तो मिलता ही है कि हम क्यों बाजार की कठपुतली के तौरपर खुद को बदले दे रहे हैं।

इस ओढ़ी हुई गुलामी को उतार फेंकें और उतने में ही गुजारा करने की सोचें जो हमारा अपना है, स्वदेशी है, स्वनिर्मित है।

पिछले दिनों राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपने बौद्धिक में स्वदेशी की उसी बात को आगे बढ़ाया जिसकी अवधारणा गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ और ‘मेरे सपनों के भारत’ में रखी, डॉ. राममनोहर लोहिया, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने समय-समय पर अपने लेखन व प्रबोधनों में व्यक्त की थी।

स्वदेशी का विचार ही हमारे स्वाभिमानी भविष्य का आधार बन सकता है यह सोचना चाहिए। आज यदि स्वदेशी का प्रादर्श/प्रकल्प हमारे पास होता तो हम इस संकट को भी पहले की भाँति चींटी के दंश की तरह झेल जाते।

हम ज्यादा नहीं साठ के दशक की ओर ही लौटें। देश में आधुनिक संसाधन कुछ भी नहीं थे। सिंचाई, सड़क, बिजली, संचार, परिवहन बहुत ही कम, सिर्फ़ शहरों, कस्बों तक सीमित। वैश्विक पैमाने पर दरिद्रता भले ही रही हो पर ग्राम्य समाज में स्वदेशी का स्वाभिमान था।

हर छोटे से बड़ा गांव अपने आप में आर्थिक इकाई था। इस ग्राम्य समाज में हर वृत्तिकर्ता का बराबरी का योगदान था। गांव का उत्पादन और पूँजी गाँव को तृप्त करने के बाद ही बाहर निकलती थी।

पक्के मकान, मोटर गाड़ी, मोबाइल, कुछ नहीं थे लेकिन आदमी खुश था। समाज सन् सरसठ का अकाल झेल गया। शायद ही किसी ने किसानों या मजदूरों की आत्महत्या की खबर सुनी हो। देसी अन्न, देसी मन, देसी पद्धति सब कुछ देसी।

भले ही उत्पादन कम रहा हो लेकिन सबकुछ तृप्ति दायक था। अब इस नई खेती ने हमारे पाँच हजार वर्ष पुराने सहकार को एक झटके में नष्ट कर दिया..।

जिस सहकार ने गोधन, गोबरधन, गोपाल, कृषि, कृष्ण, किसन, किसान, हलधर जैसे शब्द दिए और समाज ने इनकी दैवीय प्राण प्रतिष्ठा की। बाजार ने हमारी उत्सवधर्मिता को विद्रूप कर दिया, उसके मायने बदल दिए।

आज खेत अन्न उगल रहे हैं लेकिन हर अन्न अपने भीतर एक बीमारी लिए हुए है। बीज, डंकल, पेटेन्ट.. और उसके साथ खरपतवार बोनस में फ्री।

उस खरपतवार को मारने वाली दवा बीज से भी मँहगी। कीटपतंगों को मारने वाला पेस्टीसाइड नई भयंकर बीमारियों के साथ हमारे जीवन में घुस गया।

अन्न उपजाने वाले पंजाब हरियाणा से दिल्ली-मुंबई जाने वाली रेलगाड़ियां भाँगड़े का उल्लास नहीं अपितु कैंसर की कराह ढोती हैं। अन्न के उत्पादन का ड्योढ़ा बीमारियों का इलाज खा जाता है। इलाज के उपकरण और दवाई भी वहीं से आयातित जहां से अन्न का बीज, खरपतवार नाशक विष।

खेती गुलाम बना दी गई। हमारे बीज छिन गए। मैकाले ने हमारी विद्यापद्धति छीनी थी, डंकल ने हमारे पारंपरिक बीज और खेती की पुरातन पद्धति छीन ली।

खेतों से गोवंश का निर्वसन हो गया। अमानवीय, निर्दयी और ह्रदयहीन खेती से उपजा अन्न शरीर में नहीं लगेगा, ऐसी ही ब्याधियां जन्मेगा।

ऐसे समय में डॉ. मोहन भागवत के बौद्धिक ने जगाने का काम किया है। स्वदेशी, पारंपरिक और जैविक खेती, गोवंशीय सहकारिता के साथ।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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टीम मध्‍यमत

 

 

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