अजय बोकिल

देश भर के शराबियों को इतना ‘क्रेडिट’ तो दिया ही जा सकता है कि थोड़े वक्त के लिए ही सही लॉक डाउन 3.0 का फोकस उन्होंने जमातियों से हटाकर खुद पर केन्द्रित करने की पूरी कोशिश की। जैसे ही मुल्क में खबर फैली कि सरकारें कोरोना की दहशत कम करने शराब की दुकानें खोलने और खुलवाने वाली है, तमाम शराबियों को यह तारीख अलग ढंग का ‘मई दिवस’ महसूस होने लगी। लिहाजा सोमवार की सुबह से ही दारू की दुकानों पर शौकीनों की किलोमीटरों लंबी लाइनें लग गईं। कई जगह गजब का भाई चारा दिखा तो कुछ जगह सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ती भी दिखीं। दिल्ली में तो पुलिस को लाठी चार्ज भी करना पड़ा। केवल हरियाणा और मध्यप्रदेश में कलारियां नहीं खुल सकीं तो इसकी वजह यह थी कि वहां सरकार और शराब ठेकेदारों के बीच दारू के रेट या टैक्स को लेकर विवाद चल रहा है।

हालात बेकाबू होते देख कुछ राज्यों ने ‘जनहित’ में लिया यह फैसला वापस ले लिया। अलबत्ता इस मदमाते माहौल में जो संजीदा सवाल तैरता दिखा वो ये कि जब अत्यावश्यक वस्तुओं को छोड़कर हर चीज पर तालाबंदी है तो शराब दुकानें खुलवाने की सरकार को इतनी जल्दी क्या थी? अगर शराब इतनी ही ‘जरूरी’ थी तो उसे लॉक डाउन में बंद क्यों किया गया? क्यों शराबियों के धीरज की परीक्षा ली गई? और जब इस जबरिया उपवास के ‘उद्यापन’ का वक्त आया तो उन पर डंडे भी चलाए।

देशभर की कलारियों पर सोमवार को जो नजारा दिखा, वह कोरोना काल के इतिहास में अलग से दर्ज करने लायक है। बीते चालीस दिनों में देश की अप्रदूषित हवा में यह भ्रम तैरने लगा था कि इतने दिनों तक मयखानों पर ताले पड़े रहने से ज्यादातर बेवड़े इस बुराई को छोड़ भगवत भक्ति में लीन हो गए होंगे। क्योंकि सरकारी दावा यही था कि लॉक डाउन में शराब तो क्या, चैतन्य चूर्ण और गुटखा तक मिलना नामुमकिन है। अर्थात यह लॉक डाउन के ‘डाउन टू अर्थ’ होने की पराकाष्ठा थी।

जिन्होंने 25 मार्च के पहले यूं ही जरूरत से ज्यादा स्‍टॉक कर लिया था, उनकी कुछ शामें ‘सुकून’ में कटीं। लेकिन बाद में सारा वक्त ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सीरियलों के भरोसे ही काटना पड़ा। जिन्हें पीने के बाद ही होश आता हो, उनको तो कोरोना से ज्यादा ‘लॉक डाउन’ ने परेशान किया। अपने देश में साल में कुछ तय दिन ‘ड्राय डे’ होते हैं, लेकिन ‘ड्राय चालीसा’ (शराबबंदी वाले राज्यों को छोड़कर, हालांकि चाहने पर वहां भी मिल जाती है) शायद पहली बार देखने को मिला। यानी फुर्सत मिली तो जाम न था। जब जाम था तब फुर्सत न थी।

ऐसे में जैसे ही सरकार का ‘नेक’ फैसला लागू हुआ, तमाम प्रदेशों के सुराप्रेमी घर से यूं निकल पड़े मानो लाम पर जा रहे हों। तकरीबन हर राज्य के हर शहर में एक-सा नजारा था। लोग लंबी लाइनों में बाउम्मीद लगे थे कि कम से कम आज तो हर गम गलत होगा। यहां किसी तरह का साम्प्रदायिक, धार्मिक, जातीय या वर्गीय भेदभाव नहीं था। अमीर और गरीब, सेठ और मजदूर सब एक ही सफ (कतार) में खड़े थे। किसी को किसी से गिला नहीं था। कर्नाटक में तो कदरदान शराब की दुकानें खुलने की खुशी में ठेकों पर सामूहिक रूप में पहुंचे और शराब दुकानों पर किसी आराध्य की तरह ‌फूल, नारियल चढ़ाए। अगरबत्ती, कपूर जलाए और पटाखे चलाए। साथ में ‘सुरामाता’ की स्तुति में प्रार्थना भी की।

कई धार्मिक-सामाजिक समागम करवाने वाले ठेकेदारों के लिए यह वाकई चैलेंजिंग सीन था। कुछ जगह तो गजब का अनुशासन, भाई-चारा और सोशल डिस्टेंसिंग दिखी। सब के मन में एक ही भाव था- मैं चला हूं मैकदे को जहां कोई गम नहीं है, जिसे देखनी हो जन्नत मेरे साथ-साथ आए। कुछ शराबखानों पर लोग पूरे आस्था भाव से शटर उठने का इंतजार करते दिखे। लाइन न बिगड़े इसके लिए कई लोगों ने फिजिकल डिस्टेसिंग के पैमाने पर बतौर ‍निशानी अपनी चप्पल-जूते रख दिए। वो भी पूरी बेफिकरी के साथ। वरना ज्यादातर धार्मिक अथवा सामाजिक समागमों में हिस्सा लेते वक्त आधा दिमाग तो इसी चिंता में लगा रहता है कि जो पादुकाएं अंदर आते वक्त उतारी थीं, वो जाते समय उसी रूप में मिलेंगी या नहीं?

जो लाइन में लगे थे, उनके चेहरे पर अलग ही किस्म की चमक थी। चाहें तो इसे ‘दारू की चमक’ कह लें। एक ऐसा आशावाद जो अस्तित्ववादी चिंतन से उपजता है। जो भी है, बस यही एक पल है। एक ‘क्वाटर’ ही मिल जाए तो जीवन सफल हो जाए। यूं इन दिनों लॉक डाउन में ज्यादातर लोग बगल के मिल्क बूथ तक जाने से भी डर रहे हैं, लेकिन कलारी खुलने का ‘सुसमाचार’ मिलते ही लोगों ने सोशल डिस्टेसिंग तो दूर रीयल डिस्टेसिंग को भी ताक पर रख दिया। किस इलाके में कौन सी दुकान खुली है, बस कदम उसी ओर चल पड़े। देर न हो जाए, कहीं देर न हो जाए। उधर टीवी चैनल वालों को भी बड़े दिनों बाद कुछ नए कवरेज का मौका मिला। वरना कोरोना को तो वो पीस-पीस कर इतना छान चुके हैं कि खुद कोरोना भी इतना वाइड कवरेज देखकर होश खो चुका होगा।

इस कवरेज की खास बात थी कि जिन शराबियों की बाइट ली जा रही थीं, वो बेधड़क अपने ‘दिल की बात’ बता रहे थे। कोई संकोच या शरम नहीं। आए हैं तो ले के जाएंगे। एक ने तो छाती ठोक कर कहा कि वो तो अगले पंद्रह दिन के हिसाब से माल लेने आया है। कई चेहरों पर इस बात का संतोष था कि मोदी सरकार ने पहली बार उनके ‘मन की बात’ सुनी। वरना चालीस दिन तो ‘सूखे’ ही बीते थे।

उधर शराब दुकानदारों में शुरू में काफी उत्साह दिखा। एक ने कहा कि ठीक वक्त पर दुकान चालू हुई है और समय से 10 मिनट पहले बंद होगी। दुकान में भरपूर स्‍टॉक है। किसी को निराश होने की जरूरत नहीं है। यह बात अलग है कि ऐसे दिलासा देने वाले स्टेटमेंट भी सुराप्रेमियों की ललक पर अंकुश नहीं लगा सके और कई शराब ठेकों कर बवाल मच गया। नतीजतन पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। कई शराब दुकानें बंद करनी पड़ीं।

जो अभूतपूर्व नजारा पूरे देश में दिखा, उसने कई भ्रमों पर प्रहार किया और कई सुभाषितों को ट्रैश फोल्डर में डाला। कुछ स्थायी निष्कर्ष भी निकले, जिनकी आप पीडीएफ बना सकते हैं। मसलन देश में चालीस दिन तो क्या चार साल भी लॉक डाउन चले तो भी पीने वालों की तलब कभी खत्म न होगी। मानकर कि ‘पी लिया करते हैं जीने की तमन्ना में कभी, डगमगाना जरूरी है संभलने के लिए।‘

सरकारें शराब को कमाई का जरिया मानती हैं, लेकिन पीने वाले इसे ‘दो पेग जिंदगी के’ मानते हैं। लॉक डाउन में छोटी-सी छूट में लोग अगर जान पर खेल कर भी कलारियों पर जुटे तो इसका मतलब यह है कि वो कोरोना-वोरोना तो मामूली चीज है, डरते हैं तो केवल ठेकों पर तालाबंदी से।

मध्यप्रदेश जैसे राज्य तो शराब से होने वाली कमाई के चलते कई बार ‘मद्यप्रदेश’ की सीमा में चले जाते हैं। इस साल जब सरकार की झोली लगभग खाली है, शराब ठेकों से ही कुछ उम्मीद है। वैसे पूर्ववर्ती कमलनाथ सरकार ने तो ज्यादा कमाई की उम्मीद में ऑनलाइन दारू सेवा, पर्यटन स्थलों पर नए आउट लेट को भी मंजूरी दे दी थी। लेकिन ठेके पर जाकर पौव्वा खरीदने का जो पारंपरिक आनंद है, उसे कोई शराबी ही समझ सकता है।

वैसे शराब ठेकों का अपना अलग खेल है, जो हर साल खेला जाता है। लेकिन दारू को ‘दवा’ मानने वाले ऐसी बातों की फिकर नहीं करते। मौत सबको आनी है। लेकिन पीने के बाद ऊपर जाने का बायपास जन्नत का अहसास कराता है। वो अहसास, जो कोरोना के पंजों से बहुत दूर है। आपका क्या खयाल है?

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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