इस एकांत में असहाय होने का अहसास

कोरोना के कारण चल रहे लॉकडाउन के दौरान खाली समय में हर कोई कुछ न कुछ अलग करने की कोशिश कर रहा है। ऐसे में कलाकार और तानाबाना पत्रिका के संपादक राकेश श्रीमाल ने कलाकारों और सजृनधर्मियों से बातचीत कर उनसे जानने की कोशिश की वे इन दिनों क्‍या कर रहे हैं। उनकी इस कोशिश को दैनिक सुबह सवेरे धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर रहा है। हम मध्‍यमत के पाठकों के लिए उसी श्रृंखला को यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं। इसी सिलसिले में ‘एकांत और कलाकार’ श्रृंखला की पहली कड़ी में आज पढि़ये प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश के अनुभव….  

एकांत और कलाकार-1 चित्रकार अखिलेश के अनुभव 

इसमें याद आने की बात इसलिए नहीं है कि इसके पहले कोई कोरोना नहीं फैला था। चूँकि ऐसा हुआ नहीं सो घर में समय बिताने की सीमा नहीं रही। वैसे भी कोई क़ानून रचने में बाधा नहीं डाल सकता। किसी भी कलाकार को कानूनन कलाकर्म करने का कारण नहीं दिया जा सकता। वह रचता है अपने एकान्त में। यह एकान्त बाहरी नहीं भीतर से पाया एकान्त है। जीवन जीने की उलझन और कलाकर्म का संशय दो विपरीत बातें हैं। हम अनजाने जीवन जीते हैं और वो एक वक़्त पर आकर पूरा हो जाता है। कलाकर्म हर दर्शक के साथ पूरा होता रहता है। आज जो दर्शक मोनलिसा देख रहा है उसके लिए यह कलाकृति आज पूरी हो रही है। तब यह कहना कि आज का समय जो कोरोना-काल है, जहाँ सामाजिक जीवन स्थगित है, रचनात्मक जीवन में कुछ मोहलत मिली है, तब समझ में न आने वाली बात इसलिए नहीं है कि यह कोरोना-काल आप स्वयं के लिए निर्मित करते रहे हैं।

एकान्त की खोज़ कलाकार नहीं करता, वह पाता है। बाहरी एकान्त से ज़्यादा उसे भीतरी एकान्त की ज़रूरत है। जिसे वह एकाग्रता और ध्यान से पाता है। इस तरह के रचनात्मक एकान्त के आदी कलाकार के जीवन में कृत्रिम कोरोना-काल उथल-पुथल नहीं ला सकता। यह कोई ऐसी अवस्था नहीं है जिसकी चाहना न हो। यह मन-माँगा काल है जिसे समेटकर सहेजना सामान्य प्रक्रिया है।

सामाजिक रूप से इस भीषण समय में रचने का आनन्द उसी तरह का है जो अन्यथा था। इस दौरान मैंने कुछ काम इस तरह के किए जिन्हें मैं लम्बे समय से टालता आ रहा था। जिसमें पत्राचार को व्यवस्थित करना भी शामिल है। मेरे लिए भी यह आश्चर्य का विषय रहा, जब मैं उन्हें देख रहा था। मेरे पास जो पत्र हैं उनमें निर्मल वर्मा के यदि दस से ज़्यादा ख़त हैं, तो कृष्ण बलदेव वैद के ख़त चालीस के क़रीब होंगे। दयाकृष्ण, यशदेव शल्य, मुकुँद लाठ, अनुपम मिश्र, वागीश शुक्ल, मणि कौल, कुमार शाहनी, रज़ा, अंबादास, कोलते, उदयन वाजपेयी, हुसैन, मनीषा कुलश्रेष्ठ, गिरिराज किराडू, आशुतोष भारद्वाज, अनिरुद्ध उमट आदि अनेक विद्वतजनों के ख़त का ज़ख़ीरा है। इसमें मैंने अनेक युवा चित्रकारों का नाम ही नहीं लिया कि बिलावजह ‘नेम ड्रॉपिंग’ का आरोप मुझ पर लगेगा।

इस कोरोना काल में कला, जो कल्पना की कोरी स्लेट पर उभरती है, को समय सापेक्ष बनाना अत्याचार होगा। वैसे भी कला में समय कल्पना सापेक्ष है। यह समय है प्रकृति को जानने का। मानुष होने के अहंकार को त्यागने का। समुद्र के किनारे ऊँट और हिरण को दौड़ते कुलाँचे भरते देख उनको अपने साथ जगह देने का। यह कोरोना-काल, ऐसा मानना कि मनुष्य के लिए ही आया है, यह दरिद्रता है। विचारों की दरिद्रता। यह सबके लिए समान है और मनुष्य भी एक प्राणी ही है। मैं रेखांकन भी कर रहा हूँ, कुछ पढ़ रहा हूँ और एक लम्बे साक्षात्कार में भी हूँ जो राजेश्वर त्रिवेदी कर रहे हैं। दोस्तों से फ़ोन पर बात और कुछ पत्र-लेखन जारी है। दोनों बेटे ईबयुग और भाद्रपद से बातचीत लगभग रोज़ होती रहती है। इस तरह इस एकान्त में डूबने का सौभाग्य जो मिला है।

यह एकांत प्रेरित करता है वार्तालाप के लिए। यह वार्तालाप अपने चित्रों के साथ भी है और बचे हुए समय के साथ भी। रेखांकन समय चाहता है और इन दिनों मैं रेखांकन ही कर रहा हूँ। जिसमें रूप का एकान्त है, रेखा की गतियाँ हैं और स्थगन है। एकान्त और स्मृति का साथ स्थायी लगता है। मुझे भी ऐसी बहुत सी यादें प्रफुल्लित करती हैं और बहुत सी उस एकान्त को सार्थक कर देती हैं। प्रियजनों की स्मृति हमेशा सुख देती हैं और उनके ना होने का गम भी नहीं होने देती। हमेशा यही लगता है कि उनकी जगह मैं भी इस अबूझ संसार से जा सकता था। अबूझ इसलिए भी कह रहा हूँ कि पिछले दिनों युवाल नोउवा हरारी की तीन पुस्तकें, जिनका अनुवाद हमारे मित्र मदन सोनी ने किया है, पढ़ीं और जिस क्रमबद्ध तरीके से उन्होंने मनुष्य के पतन-यत्नों का ज़िक्र किया है, वह तारीफ के काबिल है।

किंतु इस कोरोना-काल में फैले वाइरस का ज़िक्र करना उनकी कल्पना से बाहर ही रहा। उन्होंने मनुष्य के पतन का एक बड़ा कारण आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखा, जो बहुत भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता भी है। उनकी तीसरी किताब ‘इक्कीसवीं शताब्दी के लिए इक्कीस सबक’ में भी किसी वायरस से खतरे का जिक्र नहीं है। युवाल को उम्मीद ही नहीं थी कि इन सब के अलावा भी कई और रास्ते हैं, जिन पर मनुष्य चल रहा है। वह आव्हान कर चुका है बहुत से जाने-अनजाने रास्तों का, जिनसे वह नष्ट होना चाहेगा। उसे अंदाज नहीं है कि आव्हान उसी ने किया है।

अपने एकान्त से आतंकित आदमी कोरोना-एकान्त में रच रहा है, नया भविष्य, जिससे निकलने के बाद दुनिया भर के मनुष्य थोड़ा सा बदलेंगे और बहुत सा संसार बदलेगा। यह थोपा हुआ एकान्त मनुष्य की आजाद ख्याली के खिलाफ बड़ा अवांछित हस्तक्षेप है। जिसको वह पकड़ नहीं सकता, धरना दे नहीं सकता, जहाँ सारी विचारधाराएं खोखली सिद्ध हो गईं, जहाँ मनुष्य के असहाय होने के अलावा कोई और अहसास नहीं बचा। उस एकान्त में रचना ही मनुष्य होने, बचे रहने की उम्मीद है।

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