अनिल यादव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉकडाउन पार्ट टू की घोषणा करते हुए उसे तीन मई तक बढाए जाने की घोषणा कर दी है और मुझे यह ठीक लग रहा है कि मैं आज आपको बताऊँ की लॉकडाउन के ठीक पहले हमने हमारी घर-संसद में ऐसा क्या किया था कि लॉकडाउन से पैदा परेशानियों से घर में निपटा जा सके।
कोरोना संक्रमण का प्रसार और हो रही मौतें रोकने के लिए लॉकडाउन जरूरी और उचित फैसला है लेकिन देश के लिए ही नहीं परिवारों के लिए भी उसमें कई परेशानियां छिपी हुईं हैं। और बाइयों पर निर्भर परिवारों में तो सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि इतना काम कैसे और कौन करेगा?
तो लॉकडाउन के संकट का हमारे घर पर क्या असर होगा यह अनुमान लगा कर ‘हम दोनों’ ने लॉकडाउन से ठीक पहले घरसंसद की बैठक बुला ली। दोनों बेटे और उनकी बहुओं को अनुमान नहीं था कि सबको सवेरे की चाय पीने को एक साथ क्यों बैठाया गया है। थोड़ी देर पुराने दिनों की याद करने के बाद मैंने धर्मपत्नी शशि से पूछा कभी तुमने इन बहुओं को बताया कि अपनी शादी के बाद घर का काम कैसे किया जाता था और फिर दूसरे-तीसरे, चौथे और पांचवे देवर के विवाह के बाद जेठानियों-देवरानियों में काम का बंटवारा घर में कैसे होता था?
चालीस साल पुराने फ्लैश बैक में जाते हुए शशि ने उन्हें बताना शुरू किया कि जब हमारा विवाह हुआ था तो पहली बहू आने की ख़ुशी तो परिवार में सभी को थी लेकिन सबसे ज्यादा ख़ुशी संझले देवर देवेंद्र जी ने यह कहते हुए व्यक्त की थी “ये अच्छा हुआ भाभी आ गईं, अब शाम की चाय बनाने की मेरी जिम्मेदारी खत्म।”
तब तक हम सभी भाई चाय पीने के बाद अपने कप-प्लेट खुद साफ़ करते थे। अपने बिस्तर खुद बिछाते-उठाते थे। अचानक मेहमान आने पर या शाम की चाय बनाने की जिम्मेदारी बेचारे देवेन्द्र की रहती थी, हम दो भाई बड़े थे और बाकी दो छोटे थे और वे ‘स्टोव में हवा भर कर’ चाय नहीं बना सकते थे।
शशि ने आगे सुनाया हैण्डपम्प पर जब सबके कपड़े धुलते थे तो उसको लगातार चलाने और कपड़ों को निचोड़ने का काम संजय या मनोज जी का होता था। सुनील जी गाय की ‘सानी’ बनाते थे, गाय लगाने का काम इनका (मेरा) था।
गर्मियों में गाय का भूसा आने पर उसे इकट्ठा करने काम संजय, मनोज करते थे। मेरा (शशि) काम भूसा ‘खूंदना’ हुआ करता था ताकि कम जगह में ज्यादा भूसा रखा जा सके और दोनों देवर कई बार हंसते हुए पूरा भूसा मेरे ऊपर उड़ेंल देते थे। गर्मियों में भूसा कैसा चुभता होगा, सोच लो? और यह सब चल रहा था पोस्ट-ग्रेजुएशन करते हुए।
फिर सुनील भाईसाहब की भी शादी हो गई। चौके में अम्मा का काम मैंने संभाल लिया और मेरी जिम्मेदारी उर्मिला ने ओढ़ ली। फिर देवेन्द्र भैया का विवाह भी हो गया, सब्जी बनाने की तैयारी से लेकर उन्हें बनाने का काम साधना संभालने लगीं। वह सबसे पहले चौके में पंहुच जाती थीं। परिवार लगातार बड़ा होता जा रहा था। अम्मा अब बच्चों को नहलाने-तैयार करने का काम करती थीं।
तब तक खाना, लकड़ी वाले चूल्हे पर ही बनता था और सब चौके में ही बैठ कर खाना खाते थे। हम लोगों का खाना बनाने का तरीका बड़ा सामान्य सा था, यदि एक रोटी बेलती थी तो उसे सेंकने का काम दूसरी बहू का होता था। एक ही काम करते हुए ‘उकता’ जाने पर दोनों बहुएं आपस में काम बदल लेतीं थीं।
फिर संजू जी का विवाह भी हो गया, घर में काम बढ़ गया था तो हाथ बंटाने के लिए नई बहु ऋतु आ गईं थीं। अब बहुएं चार हो गईं थीं। फिर मनोज का विवाह भी हो गया और अंजली के आते ही मेरा दर्जा बहुत बढ़ गया और काम बदल गया। अब देवरानियों के अस्पताल और सब बच्चों के स्कूल की जवाबदारियां मुझ पर आ गईं।
खाना तब भी एक ही चूल्हे पर, दिन में एक ही बार बनता था और एक बार में करीब छह किलो तक आटे की रोटियाँ बनाई जाती थीं। जाड़ों में तो ठीक-ठाक, गर्मियों में घंटों इतनी रोटियाँ बनाना किसी चुनौती से कम नहीं था, ये एक ऐसी चुनौती थी जिसका सामना हम सबको रोज ही करना होता था। रोटी बनाने के लिए कोई बाई नहीं लगाई गई थी।
शशि ने अपनी बहुओं को बताया, परिवार में छोटे-बड़े सब सदस्य हो गए थे कुल चौबीस, इनके अतिरिक्त मेहमान भी आते-जाते रहते थे। तब तक बर्तन साफ़ करने वाली ‘बाई’ के अलावा कोई ‘काम वाली बाई’ नहीं थी। सारे काम हम पाँचों ही निपटाती थीं। याद नहीं, कभी काम को लेकर किसी में विवाद या असंतोष हुआ हो, अम्मा बारीकी से सब देखती रहतीं थीं और किसी भी बहू को परेशान देख खुद उसका काम संभाल लेतीं थीं और यह देख उनकी दूसरी बहुएं शर्मिंदा होकर खुद काम में जुट जाती थीं।
शशि की कहानी खत्म होने को थी और दोनों बहुएं सिद्धि और रिद्धि हँस रही थीं क्योंकि वे समझ चुकी थीं कि घरसंसद का यह विशेष सत्र क्यों रखा गया था। दोनों ने एक सुर में कहा अब आगे कुछ सुनाओ या न सुनाओ, हम सब समझ गये हैं। अब भले ही कल से कोई न आये, सारे काम हम खुद कर लेंगी।
शशि ने अपने बेटों नितिन और अनुज को तो (मुझे भी घूर कर देखते हुए) इस तरह घुमाफिरा कर कहने की जगह, सीधे ही कह दिया कि अब पहनने के लिए रोज कपड़े नहीं निकलेंगे, अपना ‘फैलारा’ सबको खुद समेटना होगा और ‘चाय बना दो या ये बना लो-वो बना दो’ की आवाजें भी अब तब तक नहीं आएँगी जब तक यह लॉकडाउन ख़त्म नहीं हो जाता।
उस दिन से घर में फरमाइशी कार्यक्रम तो सब बंद हैं। लेकिन बाकी सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है। बेचारी सिद्धि-रिद्धि वो सब काम भी कर रही हैं जो उन्होंने अपने विवाह के बाद कभी नहीं किये थे। अब प्रधानमंत्री जी ने तीन मई तक के लिए लॉकडाउन को और बढ़ा दिया है। मैं आशा करता हूँ आगे भी ठीक-ठाक ही चलता रहेगा।
आज आप सबको मैंने यह कहानी इसलिए सुनाई क्योंकि लॉकडाउन में ‘कामवाली बाइयों’ के न आने से कई घरों में महिलायें, विशेषकर युवा कामकाजी महिलाएं/नई बहुएं बहुत ज्यादा परेशान और तनाव में हैं। लेकिन हमारी यह कहानी पढ़ कर उन्हें भी पता चलेगा कि ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब ज्यादातर परिवार ‘कामवाली बाइयों’ पर इतने निर्भर नहीं हुआ करते थे और संयुक्त घर-परिवार ऐसे ही चलते थे।
(यह सामग्री लेखक के फेसबुक पेज से साभार ली गई है)