कोरोना ‘वॉरियर्स’: पीएम, सीएम व अफसरों की पांडव सेना!

अजय बोकिल

इस देश में कोरोना वायरस के खिलाफ प्रशासनिक-आर्थिक व राजनीतिक लड़ाई वास्तव में कौन लड़ रहा है? क्या कोरोना ने भारत में लोकतांत्रिक सरकारों के उस नए अवतार पर भी मोहर लगा दी है, जिसमें सरकार के नाम पर केवल प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और चंद आला अफसर ही नजर आते हैं? कोरोना के हल्ले में भी यह अहम सवाल इसलिए उभरा, क्योंकि मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने रविवार को राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान पर आरोप लगाया कि वे अपने मंत्रिमंडल का गठन नहीं कर रहे हैं। नाथ ने कहा कि देश में मप्र अकेला ऐसा राज्य है, जो कोरोना जैसे गंभीर संकट के बावजूद स्वास्थ्य और चिकित्सा मंत्री विहीन है।

इसके एक दिन पहले कांग्रेस नेता, राज्यसभा सांसद और विधिवेत्ता विवेक तन्खा ने इसी संदर्भ में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार ‘असंवैधानिक’ है। क्योंकि ये सरकार बिना मंत्रिपरिषद के काम कर रही है। तन्खा ने यह मांग कर डाली‍ कि यदि मुख्यमंत्री चौहान अपनी कैबिनेट बनाने में सक्षम नहीं हैं तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए, क्योंकि कोरोना प्रकोप की वजह से राज्य में स्थिति बहुत खराब है। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री अकेले ही सरकार चला रहे हैं। बिना कैबिनेट के यह कैसा प्रजातंत्र है?

कमलनाथ और विवेक तन्खा की बात पहली नजर में बिल्कुल जायज नजर आती है, क्योंकि ‍राज्य में शिवराज सरकार बने तीन हफ्ते हो रहे हैं, लेकिन प्रदेश में सरकार के रूप में केवल स्वयं‍ शिवराज और उनके अफसरों की टीम ही है। यह भी सही है कि मुख्यमंत्री को सारे जहान का बोझ खुद उठाने के बजाए अपने अधिकारों का बंटवारा सहयोगी मंत्रियों को कर देना चाहिए। और सबसे बड़ी बात तो यह कि राज्य में सरकार, एक ‘सजी हुई सरकार’ के रूप में तो दिखनी ही चाहिए, जिसमें कई चेहरे हों। रहा सवाल इस सरकार के ‘असंवैधानिक’ होने का तो यह राजनीतिक आरोप ज्यादा है। क्योंकि संविधान के भाग 6 के अध्याय 2 में कार्यपालिका के बारे में स्पष्ट कहा गया है कि किसी भी प्रदेश के राज्य की कार्यपालिक शक्ति राज्यपाल में ‍निहित होगी और राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए मंत्रि परिषद होगी। मुख्यमंत्री इस मंत्रि परिषद का प्रधान होगा। मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेंगे तथा मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल मुख्यमंत्री की सिफारिश पर करेंगे।

यानी संविधान में मं‍त्रि परिषद के गठन का उल्लेख तो है, लेकिन कोई मुख्यमंत्री अपना मंत्रिमंडल कितनी समयावधि में बनाए या ऐसा करने की कोई कालावधि नियत हो, ऐसा नहीं है। मोटे तौर पर यह काम यथासंभव जल्दी और राजनीतिक तकाजों के आधार पर होता है। वैसे भी मुख्यमंत्री में ही मंत्रि परिषद की शक्तियां निहित होती हैं, वो मंत्रि परिषद बनाकर केवल इनका बंटवारा करता है।

तो फिर शिवराज अपना मंत्रिमंडल क्यों नहीं बना रहे हैं? वो अकेले ही सरकार को एंजॉय कर रहे हैं या इसके पीछे कोई राजनीतिक दबाव या मजबूरियां हैं? या फिलहाल अर्जुन की तरह उनकी आंख केवल कोरोना से दो-दो हाथ करने पर है? उत्तर दोनों हो सकते हैं। पहला तो खुद भाजपा के अंदर मंत्री बनने और बनवाने को लेकर घमासान है। आखिर पार्टी ने सत्ता विहीन सवा साल भी बड़ी बेचैनी में काटा है। ऐसे में मंत्री बनने के दावेदार कई हैं। लिहाजा मंत्रिमंडल में किसे लिया जाए और किसे नहीं, यह तय करना आसान नहीं है। मुख्यमंत्री शिवराज के पास पहले जैसा ‘फ्री हैंड’ नहीं है। क्योंकि वे ‘बैक डोर’ से सीएम बने हैं। इसके अलावा उन्हें वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के कम से कम आधा दर्जन समर्थकों को भी मंत्रिमंडल में लेना है, जिन्होंने पिछले महीने ही भाजपा की दीक्षा ली है। अलग राजनीतिक संस्कृति से आए इन लोगों को सत्ता में भागीदारी देने से पहले काफी सोचना-समझना होगा। हालांकि ताजा खबर यह है कि शिवराज लॉक डाउन 2.0 में मंत्रिमंडल गठन का ताला अनलॉक कर सकते हैं।

एक सवाल यह भी है कि शिवराज द्वारा मंत्रिमंडल न बनाने की चिंता विपक्ष में बैठी कांग्रेस को इतनी ज्यादा क्यों है? जबकि ये स्वर तो खुद भाजपा में से या फिर ज्योतिरादित्य कैंप से उठने चाहिए थे, जहां लोग सूट सिलवाकर शपथ के लिए तैयार बैठे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि भाजपा की अंदरूनी लड़ाई कांग्रेस के माइक्रोफोन से लड़ी जा रही है? जो दर्द और बेचैनी भाजपाई खुलकर नहीं जता पा रहे, वो कांग्रेस के डायस से कहलवाई जा रही है?

मुमकिन है कि ऐसा हो। लेकिन सामान्य राजनीतिक-आर्थिक सामाजिक परिस्थि‍ति और वर्तमान हालात के तकाजे बिल्कुल अलग-अलग हैं। मप्र ही नहीं पूरा देश इन दिनों कोरोना नामक महाराक्षस से जूझ रहा है। ऐसे में मंत्रिमंडल जल्द बनवाने का तगादा सूर्योदय से पहले ही मुर्गों से बांग दिलवाने की जल्दी ज्यादा लगता है। रहा सवाल कोरोना का तो यह हकीकत है कि आज देश के प्रधानमंत्री समेत लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री यही ‘संदेश’ देने में व्यस्त हैं कि यह लड़ाई उन्हीं की अगुवाई में लड़ी जा रही है। देश की राजधानी में हर तीसरे दिन मोदी टीवी पर एक नया संदेश और नसीहत के साथ नमूदार होते हैं, लेकिन देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन कहां है, ज्यादा किसी को नहीं मालूम। जबकि वे तो खुद मेडिकल डॉक्‍टर हैं। बीते पौन माह में वो एक-दो बार ही स्क्रीन पर नजर आए।

दूसरी तरफ केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव और अन्य आला अफसर रोज पत्रकार वार्ता कर कोरोना वार का अपडेट देश को दे रहे हैं। राज्यों में भी अमूमन यही स्थिति है। मुख्यमंत्री ही जनता को कोरोना के संदर्भ में क्या, क्यों और कैसे समझा रहे हैं। चाहे फिर दिल्ली में अरविंद केजरीवाल हों या पंजाब में कैप्टन अमरिंदरसिंह, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे हों या पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी, यूपी में योगी आदित्यनाथ हों या केरल में पी. विजयन। इनमें से‍ किस राज्य में स्वास्थ्य मंत्री कौन है और वो क्या कर रहे हैं, कभी आपने सुना? सभी राज्यों में मुख्यमंत्री के अलावा मैदानी लड़ाई लड़ने का काम अफसरों की ब्रिगेड ही कर रही है। टीवी चैनल वाले भी कोरोना से सम्बन्धित सवाल या तो सीएम से करते हैं या कलेक्टरों से। बाकी जगह बची तो उन डॉक्‍टरों से भी सलाह ले ली जाती है, जो अपनी जान पर खेल कर इलाज में जुटे हैं। इसका सीधा अर्थ है कि संकट की घड़ी में नौकरशाही ही हनुमान साबित होती है न कि नेताओं की समारोही फौज।

वैसे देश के इन कोरोना वॉरियर्स मुख्यमंत्रियों में शिवराजसिंह चौहान की एंट्री जरा देर से हुई है, क्यों‍‍कि उन्हें सीएम बने एक पखवाड़ा ही हुआ है। देश के टॉप कोरोना वॉरियर सीएम में अभी उनकी गिनती नहीं हो रही है, लेकिन शिवराज अपनी जुझारू प्रकृति के अनुरूप इस ‘टॉप टेन’ में जगह बनाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। कोरोना संग्राम की खुद समीक्षा कर रहे हैं, लोगों से फीड बैक ले रहे हैं। हालांकि इसके अपेक्षित नतीजे अभी नहीं दिख रहे हैं, लेकिन उन्हें यह लड़ाई जीतने का विश्वास है। ऐसे में राज्य में कोई स्वास्थ्य मंत्री है या नहीं है, इससे व्यावहारिक फर्क क्या पड़ता है? उल्टे पहले ही आर्थिक संकट झेल रहे प्रदेश में कुछ लोगों के मंत्री बनते ही उनका ‘मीटर’ चालू हो जाएगा, सो अलग।

तस्वीर बहुत साफ है। वो ये कि आज देश में इस ‘महाभारत’ में एक तरफ कोरोना है और दूसरी तरफ उससे तुमुल संघर्ष करती एक पीएम, तमाम सीएम और चंद अफसरों की पांडव सेना है। ये वो चतुरंगिणी सेना है, जो अपनी सोच, समझ, परामर्श, हालात और विजन के हिसाब से काम कर रही है। चूं‍कि ये लड़ाई ‘इस पार या उस पार’ वाली है, इसलिए इसमें कोई हिडन राजनीतिक एजेंडा सूंघना कोरोना युद्ध की नैतिकता के अनुरूप नहीं होगा। लेकिन जो संदेश अंडरग्राउंड केबल की तरह जा रहा है, वह यही है कि देश में कोरोना से धर्म युद्ध या तो प्रधानमंत्री कर रहे हैं या फिर मुख्यमंत्री। इस अंगने में किसी स्वास्थ्य मंत्री या दीगर मंत्रियों का क्या काम? दरअसल यह भी एक ‘राजनीतिक बोवनी’ है, जिसकी फसल सही समय पर निश्चित लक्ष्य के साथ कटेगी या काटी जाएगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं। इससे वेबसाइट का सहमत होना आवश्‍यक नहीं है। यह सामग्री अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के तहत विभिन्‍न विचारों को स्‍थान देने के लिए लेखक की फेसबुक पोस्‍ट से साभार ली गई है।)

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