अजय बोकिल
तब्लीगी जमात प्रकरण ने कोरोना के खिलाफ देशव्यापी जंग को साम्प्रदायिक मोड़ दे ही दिया था, अब मप्र के इंदौर, बिहार के मधुबनी और झारखंड के रांची में धर्मांध और जाहिल लोगों ने जांच के लिए पहुंची मेडिकल टीमों पर हमले कर उस मानसिकता का इजहार कर दिया है, जो पूरी तरह अस्वीकार्य है। क्योंकि राष्ट्रों के बीच युद्ध के दौरान भी मानव सेवा करने वाले रेडक्रॉस के लोगों को बख्श दिया जाता है, तब कोरोना से लड़ने वालों पर थूकना और उन पर पत्थरबाजी इसी बात का परिचायक है कि ऐसे लोगों की सोच नफरत के उस मुकाम पर पहुंच गई है, जहां किसी मरहम पट्टी की भी गुंजाइश नहीं है।
मुमकिन है कि इन लोगों को भड़काया गया हो, ऐसे लोगों की संख्या भी थोड़ी हो, लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि संदिग्ध बस्तियों में शैतानी हमले को रोकने न तो आसपास के कदम बाहर निकले और न ही इसे रोकने के लिए कोई हाथ उठा। अच्छी बात यह है कि ऐसी घटनाओं की पूरे देश में एक स्वर से निंदा हुई है। इस्लाम में पत्थर शैतान को मारे जाते हैं। तो क्या ऐसे जाहिल लोगों को डॉक्टर और नर्स भी शैतान लगते हैं? अगर ऐसा है तो फिर इस दुनिया में फरिश्ता कौन है? जन्नत का ख्वाब दिखाने वाले या मौत के मुंह से निकालने वाले?
तीनों मामले वाकई गंभीर हैं। इसलिए, क्योंकि यह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं है। यह सीएए या एनआरसी के लिए अपने दस्तावेज दिखाने का मामला भी नहीं है। यह केवल मुसलमानों को देश के स्वास्थ्य नक्शे से बेदखल करने का इरादा भी नहीं है। यह वोटों की खातिर चेहरे गिनने का मसला भी नहीं है। यह उस आलमी जंग का जरूरी और ऐहतियाती हिस्सा है, जो कोरोना जैसे दुर्दांत वायरस के साथ लड़ी जा रही है। जिसे पूरी दुनिया जी जान से लड़ रही है।
हालांकि ऐसे में यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि ऐसी जांचें मुसलमानों की ही क्यों? बाकी की क्यों नहीं? कहीं यह कोरोना की आड़ में धार्मिक आइसोलेशन का कोई छुपा एजेंडा तो नहीं? तो इन सबका जवाब यह है कि पूरे देश में जितने कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं, उनमें (बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक) 20 फीसदी वो हैं, जो निजामुद्दीन तब्लीगी मरकज से बाहर निकल कर फैल गए हैं। लेकिन कोरोना पॉजिटिव जो गैर मुसलमान हैं, उनमें तकरीबन सभी या तो अस्पतालों में हैं या फिर क्वारेंटाइन में। इनमें समाज के हर तबके और रसूख वाले लोग शामिल हैं। क्योंकि कोरोना की शैतानी सल्तनत में जिंदा रहने का कोई वीआईपी पास नहीं होता, जो किसी विशेष प्रार्थना या इबादत की सिफारिश पर मिल जाए। मतलब साफ है कि अगर शक है तो जांच तो होगी। और यह लाजमी इसलिए है कि आपके साथ-साथ दूसरों की जिंदगी भी खतरे में पड़ सकती है।
अफसोस इस बात का है कि ऐेसे लोग कोरोना के खिलाफ लड़ाई में अनावश्यक बेरिकेड खड़े करने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी आशंकाओं और कुंठाओं के चलते उन लोगों को निशाना बना रहे हैं, जिनका मिशन बहुत साफ और मानवता से प्रेरित है। इंदौर के रानीपुरा और टाटपट्टी बाखल कांड में शामिल सभी आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है। उन पर कानूनी कार्रवाई भी होगी। बताया जाता है कि वहां पहले तो लोग मेडिकल स्क्रीनिंग करवा रहे थे, बाद में अचानक हिंसक हो गए। पूरी टीम को उन्होंने पत्थर मार कर भगा दिया।
इसी तरह बिहार के मुंगेर में संदिग्धा मरीजों की जांच के लिए पहुंची मेडिकल टीम पर भी हमला किया गया। वहां टीम एक बच्ची की मौत के बाद उसके परिवार को होम क्वारंटाइन में रखने और जांच के लिए गई थी। उसे बचाने जब पुलिस पहुंची तो उसकी गाड़ी पर भी हमला हुआ। इसके पहले राज्य के मधुबनी में तब्लीगी जमातियों की तलाश में पहुंची पुलिस टीम पर पथराव हुआ। झारखंड की राजधानी रांची में भी ऐसी ही नौबत आ गई थी। शहर के हिंदपीढ़ी इलाके में जब स्वास्थ्य विभाग की टीम घर-घर जांच करने के लिए पहुंची, तो इलाके के लोग उत्तेजित हो गए और हाथों में पत्थर उठा लिए। बाद में पुलिस ने उन्हें शांत किया।
इन सभी राज्यों में काम करने वाली मेडिकल टीमों का एक ही सवाल है कि आखिर हमारा कसूर क्या है? इंसानी जिंदगी को बचाने के लिए खुद को खतरे में डालना या उन लोगों के साथ मानवीयता का बर्ताव करना, जिन्हें शायद इसकी परिभाषा ही नहीं मालूम?
कुछ लोग इन तमाम घटनाओं के पीछे सोची समझी साजिश, सामूहिक कुंठा और हद दर्जे का अविश्वास मान रहे हैं। मगर बड़ा सवाल यह कि ये कौन सी मानसिकता है, जो ‘दवा’ को ‘जहर’ बताने में भी संकोच नहीं कर रही? धर्मांधता भी तब तक जायज है, जब तक वह इंसानियत की सीमा में हो। लेकिन वह इस लक्ष्मण रेखा को भी लांघ ले तो उसे किस डिग्री की मेथड से समझाया जाए? और फिर जो अपना हित ही नहीं समझना चाहता, उसे कौम का खैरख्वाह कहलाने का हक कैसे है?
माना कि मुसलमानों की नाराजी मोदी से है, उनके निजाम से है। लेकिन मेडिकल टीम किसी पार्टी, समुदाय या धर्म की ताबेदार नहीं होती। उसका धर्म कोई है भी तो केवल मानवता है। विश्वास और समर्पण ही उसकी पूंजी है। यह कहना गलत नहीं होगा कि तमाम आलोचनाओं के बाद भी जो चंद पेशे अभी भी मजहब की रेड लाइन से परे हैं, उनमें से एक डॉक्टर, नर्स और पैरामेडिकल सहायकों का है। आज देश का माहौल कितना ही धार्मिक ध्रुवों में तब्दील हो गया हो, लेकिन शायद ही कोई डॉक्टर होगा, जो इलाज से पहले मरीज से उसका मजहब पूछता होगा।
जीवन की भोली आशा भी डॉक्टर की एक दिलासा पर अंतिम क्षण तक टिकी रहती है, फिर चाहे वह झूठी क्यों न हो। उन पर भी पथराव? यह तो खुद के विवेक पर पत्थर फेंकने के समान है। यह विरोध इसलिए भी बेमानी है, क्योंकि कोरोना वायरस हाथ में मौत का परवाना लेकर पूरी दुनिया में छुट्टा घूम रहा है। उसके लिए राम के भक्त और अल्लाह के बंदे एक समान हैं। जो उसकी जद में आया, वह जान से गया।
एक कुतर्क हो सकता है कि कोई अगर अपनी मर्जी से मरना चाहता है तो बाकी को इसकी चिंता क्यों होनी चाहिए? ठीक है। अपनी मौत मरने का अधिकार सबको है। चाहे सुकून से प्राण त्यागे या कोरोना की मर्चुरी का हिस्सा बन जाए। लेकिन ध्यान रहे कि मनुष्य किसी धर्म के साथ-साथ एक वृहद समाज का हिस्सा भी है। इस नाते उसकी नैतिक जिम्मेदारी है कि कोई व्यक्ति भले ऊपर चला जाए मगर बाकी समाज सुरक्षित और स्वस्थ रहे। इसलिए कोई यह कहे कि मैं किसी भी तरह की जांच से ऊपर हूं तो यह देश के साथ समाज के प्रति भी द्रोह है। आखिर दुनिया जीने की चाहत रखने वालों के लिए है, मरने को जन्नत नशीनी का मुगालता पालने वालों के लिए नहीं।
बुनियादी सवाल तो यह है कि जिस मेडिकल टीम पर फूलों की जगह पत्थर बरसाए गए, उनका अपराध क्या है? क्या ये कि उसे प्रशासन ने भेजा? क्या ये कि प्रशासन सरकार के आदेश का पालन कर रहा था? क्या ये कि मेडिकल टीम उस इलाके में पहुंची ही क्यों, जिसने हर खतरे से आंखें मूंद कर खुद को परम सुरक्षित मान लिया है? क्या ये कि किसी की स्वास्थ्य जांच भी अपराध है, खासकर तब कि जब पूरी दुनिया भयावह महामारी से जूझ रही हो?
अगर इन बस्तियों में केवल पुलिस घुसती तो एकबारगी माना जा सकता है कि उसके पीछे दमन या धमकाने का इरादा हो। लेकिन डॉक्टरों-नर्सों से डर और दुश्मनी किस बात की? कम से कम इतना तो समझ लेते कि पुलिसिया इंटरोगेशन और डॉक्टरी स्क्रीनिंग में एक बेसिक फर्क है। पहले में शक को पुष्ट करने का दबाव है तो दूसरे में शक को नष्ट करने की जिद।
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