तब्लीगी जमात: यह लापरवाही नहीं, समाज के प्रति जुर्म है..

अजय बोकिल

धर्म ग्रंथों में पाप और पुण्य, स्वर्ग और नर्क के बारे में तो बताया जाता है, लेकिन ‘आत्मघाती कृत्यों’ को लेकर वो ज्यादा कुछ नहीं कहते। मानकर कि इंसान इतना तो समझदार हो ही गया होगा कि इंसानियत के संदर्भ में ही सही, सही-गलत का हिसाब खुद लगा लेगा। दिल्ली के निजामुद्दीन तबलीगी मरकज मामले में जो कुछ हुआ है, वह इसी का संकेत है कि हम समझ कर भी समझना नहीं चाहते। चेतावनियां ऐसे लोगों के लिए–‘मूर्खताएं’ हैं और हादसे केवल ‘अल्लाह का सितम।‘

निजामुददीन स्थित इस इस्लामी तब्लीगी मरकज में धार्मिक समागम काफी समय से चल रहा था। इसमें देश विदेश से आईं लगभग 5 हजार जमातें शामिल हुई थीं। इस मरकज की स्थापना इस्लामिक विद्वान मौलाना मोहम्मद इलियास कांधलवी ने 1927 में की थी। इसका पहला इजलास 1941 में हुआ था। तब्लीगी जमात एक गैर राजनीतिक वैश्विक सुन्नी इस्लामिक मिशनरी आंदोलन है, जो मुख्य रूप से सुन्नी इस्लाम का पैरोकार है। कहा यह भी जाता है कि यह मरकज सौ साल पहले आर्य समाज आंदोलन के पंजाब-हरियाणा में बढ़ते प्रभाव से मुसलमानों को बचाने के लिए शुरू किया गया था।

देश में ऐसे धार्मिक समागम होते रहते हैं, क्योंकि यहां सभी को अपना धर्म प्रचार और धार्मिक रीति रिवाजों के पालन का संवैधानिक अधिकार है। मरकज के मुखिया अमीर कहलाते हैं। इस समागम में आने वालों का काम इस्लाम के बारे में ज्ञानवर्द्धन करना और पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब की शिक्षाओं को दुनिया में फैलाना है। इस अर्थ में सभी जमाती इस्लाम के प्रचारक होते हैं और मुसलमानों को धर्मानुसार आचरण के लिए प्रेरित करते हैं।

यह तब्लीगी जमात भी चर्चा का मुद्दा न बनती, अगर दुनिया में कोरोना जैसे निर्दयी शैतान ने दस्तक न दी होती। जमात का खुलासा तब हुआ, जब 22 मार्च को पूरे भारत में लॉक डाउन और सोशल डिस्टेंसिंग के बाद भी मरकज में 2 हजार लोग ठहरे हुए पाए गए। इसके बाद दिल्ली पुलिस ने वहां छापा मारा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने बताया कि 441 जमाती कोरोना पाजिटिव पाए गए हैं। कई को क्वारेंटाइन में भेज दिया गया है तो कुछ अस्पताल में भर्ती कराए गए हैं। मामला तब और गंभीर हो गया, जब जमातों में से तेलंगाना लौटे 6 की और 1 की श्रीनगर में कोरोना वायरस से मौत हो गई। इसके बाद केजरीवाल सरकार ने मरकज के मौलाना के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के निर्देश दिए और पूरे मरकज को आइसोलेट कर दिया गया।

इस पूरे घटनाक्रम ने पहले ही कोरोना से त्रस्त देश को हिलाकर रख दिया। क्योंकि एक मुश्त 441 कोरोना पॉजिटिव का आंकड़ा मामूली नहीं है। सवाल उठा कि जब सारे देश में कोरोना वायरस को लेकर अधिकतम सावधानी बरतने की हिदायतें दी जा रही हों, इंसानी जिंदगी के वास्ते धार्मिक कर्मकांडों को कुछ समय के लिए स्थगित करने के लिए बार-बार कहा जा रहा हो, अधिकांश लोग इसका पालन भी कर रहे हों तब मरकज में इस धार्मिक समागम को जारी रखना किस बुद्धिमानी की निशानी थी?

इस बारे में जमात के एक प्रवक्ता मौलाना मतीउर रहमान हैदराबादी की सफाई है कि मरकज में धार्मिक सम्मेलन 7 मार्च से ही शुरू हो गया था। कोरोना के चलते 22 मार्च को जैसे ही जनता कर्फ्यू लगा, कई लोगों को मरकज से बाहर भेज दिया गया। लेकिन कर्फ्यू के चलते आवागमन के साधन अचानक बंद होने से बाकी लोग बाहर नहीं जा सके। मौलाना के मुताबिक इस मामले को धार्मिक रंग देकर हमें जबरन बदनाम किया जा रहा है।

मुमकिन है बात सही हो, लेकिन ये सवाल फिर भी बाकी हैं कि जब चीन के बाद दुनिया के बाकी इस्लामिक मुल्कों में भी कोरोना का कहर शुरू हो गया था, तब उसीके मद्देनजर भी यह समागम तुरंत रद्द किया जा सकता था। वहां इतने लोग जमा हैं, इसकी सूचना भी पुलिस को नहीं दी गई। यही नहीं, उन इस्लामिक देशों से भी सबक नहीं लिया गया, जहां कोरोना पहले ही आ चुका था। इस्लामिक देशों में भी सबसे ज्यादा मौतें ईरान में हुई हैं। वहां कोरोना से पहली मौत 19 फरवरी को ही सामने आ गई थी। इसी तरह तुर्की में कोरोना का पहला शिकार 11 मार्च को हुआ था। यहां तक कि कट्टर वहाबी इस्लाम को मानने वाले सऊदी अरब ने भी अपने यहां कोरोना की रोकथाम के लिए 16 मार्च से ही सारी मस्जिदों में सामूहिक नमाज पर रोक लगा दी थी और मक्का-मदीना भी सील कर दिए थे।

वैसे कोरोना को लेकर इस्लामिक जगत का रवैया बहुत गंभीर नहीं रहा है। ‘द बिगिन सादात सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज’ के डॉ. डी.ए. कोहेन की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो चीन में कोरोना प्रकोप के बाद अरब जगत में कई ने पहले तो यह कहकर खुशी जताई कि वहां उइगुर मुसलमानों पर अत्याचार करने वाले चीनियों को ‘अल्लाह ने सबक सिखा‍ दिया’ है। जब यह कोरोना चीन से ईरान पहुंचा तो सुन्नी मुसलमानों ने इसे ईरान द्वारा इराक, सीरिया और यमन में वहां के सुन्नी मुसलमानों के साथ क्रूर बर्ताव पर ‘अल्लाह द्वारा दिया गया दंड’ बताया। जब कोरोना अरब देशों और तुर्की में भी फैलने लगा तो अरबों ने इसे ‘ईरान की साजिश’ करार दिया। अरब देश जॉर्डन के एक सांसद अब्दुल हमीद कुदाह ने तो कोरोना को‘अल्लाह का सिपाही’ तक बताया। लेकिन कुछ लोग कोरोना की गंभीरता समझ रहे थे।

‘अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक विद्वान संघ’ ने धार्मिक फतवा जारी कर मुसलमानों को सलाह दी कि कोरोना के प्रकोप से बचने के लिए मस्जिदो में सामूहिक नमाज पढ़ने से बचें। जिस ईरान में 2 हजार 898 जानें अब तक जा चुकी हैं, वो खुद कोरोना को लेकर कितना अगंभीर था, इसे वहां के उप स्वास्थ्य मंत्री हरीरची के बयान से समझा जा सकता है। हरीरची ने पहले तो ईरान में कोरोना मरीज मिलने से ही इंकार किया। लेकिन जब देश के कोम शहर में इसके मरीज मिलना शुरू हुए तो हरीरची ने कहा कि हम कोरोना से आसानी से निपट लेंगे। बाद में खुद हरीरची कोरोना पॉजिटिव पाए गए। ईरान में मौतों का सिलसिला अभी भी थम नहीं रहा।

कहने का तात्पर्य इतना कि उपरोक्त उदाहरणों से ही तब्लीगी मरकज को सबक ले लेना चाहिए था। वो शायद भूल रहे थे कि कोरोना किसी का मजहब या राष्ट्रीयता चीन्ह कर हमला नहीं करता। अब डर इस बात का है कि जो जमातें अपने साथ कोरोना के लक्षण जहां भी ले गई हैं, वो और कितनों की जिंदगी मुसीबत में डालेंगी। कुछ ऐसी ही गलती पिछले दिनों दक्षिण कोरिया में शिन्चे आंजी चर्च के अनुयायियों ने भी की थी। उन्होंने देश के दाएगू शहर में कोरोना चेतावनी के बाद भी समागम किया और आज देश के कोरोना पीडि़तो में बड़ी तादाद इन्हीं लोगों की है।

शिन्चे आंजी चर्च के प्रमुख ली मन खुद को ‘जीसस का अवतार’ बताते हैं और उनका दावा है कि वे अपने साथ अपने अनुयायियों को भी स्वर्ग लेकर जाएंगे। ऐसी आध्यात्मिक फतवेबाजी से दूर दक्षिण कोरिया की सरकार ने सख्ती के साथ कोरोना जांचें शुरू की और चर्च प्रमुख ली के खिलाफ मामला दर्ज किया गया।

यह तो हुई कोरोना से इंसानियत की लड़ाई की बात। जाने-अनजाने ही सही निजामुद्दीन मरकज ने कोरोना प्रसंग में सियासत की सुई उस जगह टिका दी है, जिसके बगैर इस ‘कोरोना जंग’ का मजा कुछ लोगों को नहीं आ रहा था। मरकज संचालकों की मूर्खता या लापरवाही को सियासी रंग देने में देर नहीं हुई। भाजपा सांसद राकेश सिन्हा ने इसे ‘मानवता के खिलाफ बड़ा अपराध’ बताया। उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस के बीच यह सम्मलेन कराना एक भारी भूल थी। उधर सोशल मीडिया ट्रोलिंग आर्मी ने अपना काम शुरू कर दिया। कहा गया कि जमातों के माध्यम से मरकज ने पूरे देश में बम लगा दिए हैं। ये फूट पड़े तो देश में सबसे बड़ा जिहाद होगा। इस पर भाजपा समर्थक जफर सरोशवाला को कहना पड़ा कि इस मरकज मामले का राजनीतिकरण हो रहा है।

हालांकि सिन्हा का यह सवाल सही है कि जब देश भर में सभी सामाजिक धार्मिक समागम स्थगित कर दिए गए हों, तब तब्लीगी जमात को जारी क्यों रखा गया? सिन्हा ने कहा कि ये (जमातें) पढ़े-लिखे लोग थे। इन्हें सोशल डिस्टेंसिंग का मतलब तो मालूम ही होगा। फिर भी ऐसा करना जुर्म है। हालांकि सिन्हा ये भूल गए कि मध्यप्रदेश में भाजपा ने भी लॉक डाउन के दौरान सत्ता हासिल करने के ‘जोश’ में कुछ समय के लिए सोशल डिस्टेंसिंग को ताक पर रख दिया था और साथ में हाथ उठाकर ‘जीत’ का इजहार किया था। बाद में ‘होश’ आया तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने शपथ ग्रहण के बाद हाथ मिलाने के बजाए हाथ जोड़कर ही काम चलाया।

यहां मुद्दा यह है कि समूची मानव सभ्यता पर आसन्न खतरों के साफ संकेत मिलने पर भी हम उसे क्यों नकारना चाहते हैं? क्यों उसकी अवहेलना में अपनी शान समझते हैं? आखिर धर्म और सियासत भी मनुष्य के लिए हैं। धर्म या सियासत से मनुष्य नहीं है। समाज संचालन के लिए सत्ता है। सत्ता के लिए समाज नहीं है। मरकज में जो लोग जमा हुए थे, वो ज्यादातर धर्म प्रचारक थे। अमूमन प्रचारक, विचारक नहीं हुआ करते। वो केवल दैवी संदेश अथवा किसी विशिष्ट विचार के निष्ठावान विस्तारक होते हैं। यह निष्ठा उन्हें स्वतंत्र विचार का स्पेस भी दे, यह जरूरी नहीं है। यही प्रचारकों की ताकत भी है और सीमा भी।

ईश्वर भी अपनी बात संकेतों में कहता है। ‘कोरोना’ के रूप में मरकज के प्रचारक (और संचालक भी) उसे समझ गए होते तो न तो इतना बवाल होता और न ही दहशत और सियासत के एक नए चेप्टर की शुरुआत होती। जो हुआ है वह समाज के प्रति जुर्म है, ऐसा करने वालों पर कड़ी कार्रवाई तो होनी ही चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं। यह सामग्री उनकी फेसबुक पोस्‍ट से साभार ली गई है।)

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