शिवकुमार विवेक
आज रंगपंचमी पर मध्यप्रदेश के लोकजीवन का सबसे बड़ा और अनूठा मेला लग रहा है। नगरों को डरा रहे कोरोना वायरस से बेख़ौफ़ ग्रामीण समाज इससे आनंद और ऊर्जा लेने के लिए तैयार है। यह वो समाज है जिसे टेलिविज़न ने निरर्थक कार्यक्रमों में बाँधकर अकेला नहीं किया और जिसे सामूहिकता से होने वाले संक्रमण ने डराया नहीं है।
मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले के करीला ग्राम में हर साल रंगपंचमी पर राम की परित्यक्ता पत्नी व लोक में माँ के रूप में पूजित जानकी को समर्पित मेला लगता है। इस तरह समझने में यह सामान्य समागम लगेगा लेकिन इसे असाधारण बनाया है बेड़नी जाति की महिलाओं के नृत्य की परंपरा ने। सैकड़ों बेड़नियां रंगपंचमी की रात भर यहाँ अनवरत नाचती हैं। बिना रुके अठारह से अड़तीस घंटे देह संचालन की समूह प्रस्तुति को शायद विश्व रिकॉर्ड की पुस्तकों में शामिल किया जाना चाहिए। पर यह आधुनिक समाज की इस तरह की चिंताओं और सरोकारों से बेफ़िक्र है।
बेड़नी जाति की औरतें देह व्यापार के लिए बदनाम हैं इसलिए सभ्य समाज इनके आयोजनों से खुद को एकाकार नहीं कर पाता लेकिन मध्यप्रदेश में लोक साहित्य व कलाओं के जाने माने विद्वान तथा मप्र लोक कला अकादमी के पूर्व निदेशक डॉ.कपिल तिवारी का कहना सटीक है कि बेड़नियों का नृत्य लोक कला का एक उम्दा रूप है। इसे बेड़नियों के व्यक्तिगत जीवन या पेशे से अलग होकर देखना चाहिए। बुंदेलखंड के शिखर सम्मान प्राप्त लोक कलाकार राम सहाय पांडे के पुत्र व उनके सहयोगी संतोष पांडे कहते हैं-बेड़नियों का राई नृत्य बुंदेलखंड की बेहतरीन कलाओं का नमूना है। सिर से पाँव तक ढंकी नर्तकी के नृत्य में किसी तरह की लज्जाहीनता या अश्लीलता नहीं होती। दूसरे, करीला में यह नृत्य माता जानकी को समर्पित होता है, इसलिए धार्मिक भावना से ओतप्रोत है। पांडे पूछते है कि यदि यह नृत्य अश्लील या अपवित्र होता तो समाज इसे मंदिरों में करने की अनुमति कैसे देता?
लोक मान्यताओं के अनुसार जिला मुख्यालय अशोकनगर से 38 किमी दूर करीला वो जगह है जहाँ सीता (जानकी) ने लव-कुश को जन्म दिया था। तब वे अयोध्या के राजा राम द्वारा निर्वासित कर दी गई थीं। समझा जाता है कि आसपास के वन क्षेत्र में स्थित बाल्मीकि आश्रम में ही उन्हें आश्रय मिला था। लोगों का मानना है कि लव-कुश के जन्म के समय यहाँ अप्सराओं ने बधाई नृत्य किया था। तब से ही बधाई देने के लिए आने वाली महिलाएँ नृत्य करती रहीं जिसकी बानगी ही राई नृत्य है। यहाँ मनौती पूरी होने पर नृत्य करने की परंपरा है। ऐसे लोग जिनकी कोई मनोकामना पूरी हो जाती है, इच्छा व संकल्प के मुताबिक उतनी संख्या में बेड़नियों को नचवाते हैं। जितनी बड़ी मन्नत या जितना ज्यादा सामर्थ्य, उतनी ही ज्यादा नृत्यांगनाएं। (माफ़ कीजिए, हम नागरी नृत्यों के मामले में ऐसी शब्दावली का उपयोग नहीं कर सकते। यह लोकसमाज ही है जो हमारी इस सपाट भाषा को सहज स्वीकार कर लेता है।) यही वजह है कि रंगपंचमी की रात करीला में हज़ारों पाँव एक साथ थिरकते हैं और लाखों लोग इस जलसे को देखने के लिए जमा होते हैं। यदि इस मौके पर सागर जिले के हवला, पथरिया, फ़तेहपुर, लोहारी, चौकी जैसे बेड़िया बहुल गांवों में झाँककर देखा जाए तो रंगपंचमी के दिन वहाँ एक भी बेड़नी नर्तकी नहीं मिलेगी। यानी इनके गाँवों की सारी राहें करीला में जाकर खुलती हैं। गत वर्ष यहाँ आने वाले लोगों की तादाद का अनुमान दस लाख से ज्यादा का था। कुछ विद्वान मानते हैं कि यह नई फसल आने का उत्सव रहा होगा जो प्राचीन परंपरा से आया।
इस साल कोरोना वायरस के विश्वव्यापी संक्रमण के मद्देनज़र मेले के आयोजन को लेकर दुविधा थी लेकिन स्थानीय पत्रकार सचिन शर्मा के मुताबिक प्रशासन ने माना कि यह लोगों का स्वत: स्फूर्त आयोजन है इसलिए इस पर पाबंदी लगाना उचित व व्यावहारिक नहीं है। दूसरे, यह रोग प्रकोप से भी सुरक्षित है। इसलिए इस परंपरा के बाधित होने का संकट टल गया। यह मेला कब से चल रहा है, यह स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता। यहाँ जानकी का प्राचीन मंदिर है, जिसमें राम के बिना ही सीता की मूर्ति है। कहा जाता है कि यही एकमात्र मंदिर है जिसमें अकेली सीता विराजमान हैं। मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि तक़रीबन दो सौ साल पहले एक साधु ने जंगल में इस स्थान को खोजकर बताया था कि यहाँ बाल्मीकि आश्रम था और लव-कुश इसी धरती में पले-बढ़े। हालाँकि ऐसा ही दावा पंजाब के अमृतसर क्षेत्र में भी किया जाता है।
सागर के इतिहास अध्येता डॉ. रजनीश जैन इसे मध्य भारत का राई डांस कॉर्निवाल बताते हुए कहते हैं- यह आयोजन भले ही किसी को टैबू लगे लेकिन यह है भारत का कल्चरल हैरिटेज। इसे पर्यटन की दृष्टि से प्रचारित किया जाना चाहिए। वहीं अशोकनगर में रहने वाले प्रदेश के प्रगतिशील साहित्यकार हरिओम राजौरिया कहते हैं-करीला का मेला ग्रामीण क्षेत्र में मप्र के सबसे बड़े आयोजनों में से ही नहीं है बल्कि, लोक द्वारा आयोजित कला का सबसे बड़ा आयोजन है। लेकिन यह आयोजन अब शहरी सांस्कृतिक अपदृष्टि का शिकार हो रहा है। ग्रामीण यहाँ आस्था और पवित्र भाव के साथ आते हैं जबकि शहरों से कई लोग सिर्फ दैहिक सरोकारों को निहारने के लिए पहुँचते हैं। इससे मैंने कई कलाकारों को असहज होते देखा है। राई कलाकार हीरा को मलाल है कि इस क्षेत्र में अन्य जातियों की कुछ नई लड़कियाँ जिस्मानी आकर्षण के लिए आ रही हैंl इनका बेड़िया जाति की सामाजिक व्यवस्था से कोई लेना-देना नही है जिसके कुछ विधि निषेध हैं l
बेड़िया मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड में पाई जाने वाली आदिवासियों की प्रमुख जाति है। वैसे यह किसी न किसी रूप में राजस्थान, झारखंड, बंगाल व हरियाणा आदि प्रदेशों में भी रहती है। इस जाति में महिला प्रधान पारिवारिक व्यवस्था है। महिला अविवाहित रहती है और प्राय: देह व्यापार कर परिवार को चलाती है। इस जाति की कई महिलाएँ पुराने जागीरदारों, रईस-रजवाड़ों और रसूखदारों के आश्रय में रहती रही हैं। यही वो पक्ष है जो इस जाति को सभ्य समाज की नजर से गिराता है। इसी नजर का शिकार हुआ इनका नृत्य राई। अन्यथा राई का कला पक्ष इतना मजबूत है कि देश के लोक नृत्यों की क़तार में इसे आगे खड़ा करता है। संतोष पांडे की दलील है-हमें नर्तकी के व्यक्तिगत जीवन की बजाय उसकी कला को देखना चाहिए। उसकी पृष्ठभूमि को ज़ेहन में लाते ही हम यह भुला देते हैं कि वह कितनी सिद्धहस्त कलाकार है।
राई में नर्तकी के इर्द-गिर्द लोग घेरा बनाकर खड़े होते हैं और पुरुष उसके साथ मृदंग बजाते हुए पद संचालन करता है। यह पुरुष अक्सर महिला का पति होता है। यह रात में मशाल की रोशनी में होता है l इसमें ज्यादातर लोक कवि ईसुरी की फागें गाई जाती हैं लेकिन अन्य गीतकारों के गीत भी गाए जाते हैंl पांडे को शिकायत है कि अब कुछ लोग अश्लील गीत लिखकर भौंडेपन का प्रदर्शन कर रहे है l बाजार इसका मनमाना उपयोग कर रहा है। इससे यह लोक कला बदनाम हो रही हैl
बेड़िया समाज की परंपराओं का उद्गम खोजते हुए कला मर्मज्ञ कपिल तिवारी का अनुमान है कि अंग्रेज़ों के लश्कर जब कहीं शिविर लगाते थे तब रात्रि में मनोरंजन की महफ़िल में जो महिलाएँ नाचती होंगी, वे ही बेड़नियों रही होंगी। बाद में अंग्रेज़ बहादुरों की जगह हमारे रायबहादुरों, जागीरदारों व रईसों ने ले ली। आगे चलकर यह नृत्य समाज जीवन का हिस्सा बन गया। श्री तिवारी बुंदेलखंड की परंपराओं पर गहन शोध की जरूरत बताते हैंl
रामसहाय पांडे 90 साल की उम्र में भी इस कला का परचम देश-दुनिया में लहरा रहे हैं। जब मैं इस आलेख के लिए जानकारी जुटा रहा था तब वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कार्यक्रम के लिए गुजरात गए थे। उनके पुत्र संतोष पांडे का कहना है कि उनके पिता को समुचित सम्मान मिलने की दरकार तो है ही, राई को भी प्रशासन का पहले जैसा प्रश्रय जारी रहना चाहिए। राई को मध्यप्रदेश की अर्जुन सिंह सरकार के समय काफी बढ़ावा दिया गया था। तभी भारतीय प्रशासनिक सेवा के मध्यप्रदेश में तैनात वरिष्ठ अधिकारी व नामी साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने भारत भवन के माध्यम से इसे व्यापक मंच दिया और प्रशासन द्वारा आयोजित उत्सवों का अहम हिस्सा बनाया। वाजपेयी खुद सागर के जन्मे थे और उनकी पत्नी शास्त्रीय नृत्य की मशहूर कलाकार रही हैं। अस्सी के दशक में राई के दल को विदेशों में होने वाले भारत महोत्सवों में भेजा गया और कई प्रतिष्ठित आयोजनों का हिस्सा बनाया गया। यह दशक असल में मध्यप्रदेश की क्षेत्रीय कलाओं के प्रोत्साहन का दौर था। रामसहाय पांडे को उसी दौर में मप्र के शीर्ष कला सम्मान शिखर सम्मान से नवाज़ा गया।
पांडे को यह मलाल है कि मप्र सरकार की नज़रें अब इससे फिर गईं हैं। उनका दावा है कि पिछले आठ साल से राई नृत्य प्रदेश के किसी बड़े व प्रतिष्ठित आयोजन का हिस्सा नहीं है।वे इस संबंध में लगभग आठ सौ चिट्ठियाँ लिख चुके हैं। वे पूछते हैं कि यदि राई खराब है तो पहले इसे सरकारी स्तर पर ही राष्ट्रीय सम्मान कैसे मिला? अभी भी केन्द्र की अथवा राष्ट्रीय कला संस्थाएँ इसे मंच देती हैं तो मप्र का संस्कृति विभाग क्यों परहेज़ करता है? दूसरी तरफ, शासन का संस्कृति विभाग इसकी उपेक्षा से इंकार कर रहा है। इसकी कहानी कुछ राजनीतिक हो गई है। मप्र की भाजपा सरकार के मंत्री गोपाल भार्गव के क्षेत्र गढ़ाकोटा में भरने वाले रहस मेले में हर साल राई नृत्य कराया जाता है। कुछ विरोधी नेताओं ने इसे मुद्दा बना लिया। इसके बाद अधिकारी भी सतर्क हो गए। इतने कि राई से ही कन्नी काटने लगे यानी राई को लेकर किसी विवाद से बचना चाहते हैं। अब मध्यप्रदेश में कोई अशोक वाजपेयी तो है नहीं!
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)