अजय बोकिल
नवागत भाजपा नेता के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया का भोपाल में जैसा ग्रांड भगवा वेलकम हुआ, वैसा कांग्रेस में रहते हुए भी उनका शायद ही हुआ हो। यह भाजपा की संगठन क्षमता और संसाधन विपुलता का ही कमाल है कि पार्टी मामूली घटना को भी इवेंट में तब्दील कर देती है। फिर ये तो बड़ी राजनीतिक जीत थी। हार-फूलों की बारिश ने सिंधिया को अभिभूत कर दिया। पलक-पांवडे बिछाने के इस माहौल में सिंधिया की पुरानी पार्टी कांग्रेस में एक बड़े सिपहसालार को खोने की तल्खी और अफसोस तो दिखा, लेकिन इससे कोई सबक लेने का भाव नजर नहीं आया। दूसरी तरफ राजनीतिक प्रेक्षक अन्य राज्यों में कांग्रेस की राजनीति पर ‘सिंधिया इफेक्ट’ का अध्ययन करने में जुट गए।
सिंधिया के जाने से कांग्रेस कितनी हिली है, हिली है भी या नहीं, यह गारंटी से कहना मुश्किल है, लेकिन सिंधिया के पार्टी को अलविदा कहने के पीछे के कारणों और सिंधिया के व्यक्तित्व के नकारात्मक पहलुओं पर रोशनी डालने में कांग्रेस के नेता जुट गए हैं। इन प्रतिक्रियाओं में भी नेताओं का टोन और तंज अलग-अलग तरह का था। सिंधिया को अपना बाल सखा बताने वाले राहुल गांधी ने सिंधिया से अपनी दोस्ती को याद करते हुए कहा कि उन्होंने राजनीतिक भविष्य के लिए विचारधारा को त्याग दिया। राहुल ने कहा कि ‘यह विचारधारा की लड़ाई है, एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ बीजेपी-आरएसएस है। सिंधिया को जल्द ही अहसास होगा कि उन्होंने क्या किया। सिंधिया अपने सियासी भविष्य को लेकर डरे हुए थे।’
वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजयसिंह का भी यही कहना था कि सिंधिया ने कुर्सी के लिए विचारधारा से समझौता कर लिया। एक और वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी.एल. पूनिया का कहना था कि आखिर एक ही व्यक्ति को सारे पद तो नहीं दिए जा सकते (इसमें गांधी परिवार शामिल नहीं है)। कुछ दूसरे कांग्रेस नेताओं का स्वर मातमपुरसी का ज्यादा था। छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने शायराना अंदाज में कहा कि ‘कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता।‘ सिंधिया के हम उम्र और राजस्थान में उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट का कहना था कि ‘ज्योतिरादित्य का कांग्रेस से जाना दुर्भाग्यपूर्ण है, इसे रोका जा सकता था। काश, चीजें मिलजुलकर पार्टी के भीतर ही सुलझा ली जातीं।‘
सचिन की प्रतिक्रिया में कांग्रेस की उस यंग ब्रिगेड की हताशा झलकती है, जो पार्टी में ज्यादा जिम्मेदारी और निर्णायक भूमिका चाहती है। सचिन की तमन्ना राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने की थी, लेकिन पार्टी की आंतरिक गुटबाजी के चलते उन्हें उप मुख्यमंत्री पद पर संतोष करना पड़ा। लेकिन मध्यप्रदेश में तो वैसा भी न हो सका। कहते हैं कि सिंधिया अपने समर्थक को उप मुख्यमंत्री बनवाना चाहते थे, जो मप्र के नेताओं को मंजूर नहीं था। उधर सिंधिया अपनी परंपरागत गुना सीट भी गवां बैठे। आज उनका भव्य स्वागत कर रही भाजपा का ‘महाराज’ को यह पहला झटका था।
सिंधिया अब भाजपा में खुद को केसरिया रंग में कैसे रंगेंगे, यह बाद में पता चलेगा, लेकिन उनकी रवानगी के बाद कांग्रेस में बाकी ‘यंग ब्रिगेड’ में खदबदाहट बढ़ गई है। यानी एक सहेली के हाथ तो पीले हो गए, अब बाकी इंतजार में हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस की कमान युवा राहुल गांधी के हाथों में सौंपी गई तो पार्टी के युवा नेताओं को लगा था कि अब उनके अच्छे दिन आ गए हैं। राहुल ने उन्हें अपने तरीके से आगे बढ़ाया और सड़क की लड़ाई लड़ने की कोशिश भी की। लेकिन उनके किसी एक्शन से यह संदेश नहीं जा सका कि राहुल एक मंजे हुए, प्रतिबद्ध और दूरदर्शी राजनेता हैं। उल्टे मैसेज यही गया कि वो शतरंज भी अंताक्षरी की तरह खेलना चाहते हैं। राजनीतिक कुटिलता तो उनमें नहीं ही है, लेकिन अपेक्षित सियासी चतुराई भी कम है। वो राजनेता और आध्यात्मिक एक साथ होना चाहते हैं।
राहुल ने राजनीति को पार्ट टाइम जॉब की तरह करने का नया ट्रेंड शुरू किया, जो कम से कम भारत जैसे विकासशील देश में एकदम अजूबा और अस्वीकार्य है। राहुल निजी तौर पर भावुक और ईमानदार हो सकते हैं, लेकिन यह पकड़ पाना बेहद मुश्किल है कि गंभीरता और चंचलता में से उनका असली चेहरा कौन-सा है?
अपने बाल मित्र को दूसरी पार्टी में जाने से रोकने में नाकाम रहना और चले जाने के बाद अफसोस जताने के तरीके ने भी यंग ब्रिगेड के बाकी बचे सिपहसालारों की चिंताओं को और गहरा कर दिया है। क्योंकि अगर सिंधिया अपने राजनीतिक भविष्य को सुरक्षित (?) करने भाजपा में चले गए हैं तो बाकी बचे आधा दर्जन युवा नेताओं को अपनी किस्मत किस स्लेट पर लिखनी चाहिए? किसके पल्ले से बांधना चाहिए? और यह भी कि कांग्रेस में उन्हें रहना ही क्यों चाहिए? किस विचारधारा के लिए, किस मुआवजे के लिए और किस कॅरियर ग्रोथ के लिए? यही कारण है कि कई बार ये युवा नेता अहम मुद्दों पर पार्टी लाइन से हटकर बयान देते रहते हैं। चाहे वह कश्मीर से धारा 370 हटाने का मामला हो या एनआरसी या फिर बालाकोट में एयर स्ट्राइक का मुद्दा हो।
आज कांग्रेस में आधा दर्जन ऐसे युवा नेता हैं, जो पार्टी या सत्ता में निर्णायक भूमिकाओं के आंकाक्षी हैं। इनमे सचिन पायलट के अलावा महाराष्ट्र में मिलिंद देवड़ा, यूपी में जितिन प्रसाद, हरियाणा में कुलदीप विश्नोई और दीपेन्द्र हुड्डा, केरल में शशि थरूर और दिल्ली में संदीप दीक्षित। हालांकि इनमें से अधिकांश वंशवादी कुलदीपक हैं, लेकिन कांग्रेस में अपनी बड़ी और अहम भूमिका के आकांक्षी हैं। इस संदर्भ में प्रतितर्क है कि आखिर एक ही परिवार के कुलदीपकों अथवा दीपिकाओं को सत्ता और संगठन की मलाई कब तक?
ऐसा ही सवाल ज्योतिरादित्य को लेकर उनके जाने के बाद उठाया गया कि पार्टी ने उन्हें क्या नहीं दिया, जो वो प्रतिपक्ष के खेमे में चले गए? सब कुछ तो उन्हें ही नहीं दिया जा सकता। आखिर कांग्रेस एक अ.भा.पार्टी है। ठीक है। लेकिन यह सवाल भी पार्टी के शीर्ष पद पर बरसों से एक ही परिवार के कब्जे से उपजा है। राजनीतिक संगठन केवल ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ से नहीं चलते। उसकी धमनियों में नया रक्त दौड़ता दिखना और महसूस भी होना चाहिए। वैसे भी पीढि़यों के बीच सत्ता और अधिकारों का समय रहते हस्तांतरण एक सहज प्रक्रिया है। लेकिन कांग्रेस में इसके लिए भी बायपास सर्जरी की जरूरत पड़ती है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? पार्टी अक्सर एक अजब दुविधा में फंसी रहती है। वो ये कि नयों को दायित्व दें तो अपरिपक्वता का खतरा और न दें तो कुर्सी से चिपके रहने का आरोप। ऐसे में वाइब्रेंट और युवा चेहरे क्या करें? अपनी ऊर्जा और क्षमताओं को कहां इन्वेस्ट करें?
यह मान लेना गलत नहीं होगा कि सिंधिया ने ऐसे दुविधाग्रस्त चेहरों को एक राह दिखा दी है। बगैर ज्यादा सोचे कि खुद उनका क्या होगा? जब राहुल कहते हैं कि सिंधिया को अपना भविष्य सुरक्षित नहीं दिखाई दे रहा था तो यह कटाक्ष के साथ आत्मस्वीकृति भी है कि कांग्रेस में ऐसे लोगों का कोई भविष्य नहीं है। सो, जिसे जहां जगह मिले, निकल ले। ये गाड़ी तो यूं ही रुकते-ठहरते चलती रहेगी। पार्टी में जमीनी स्तर की लड़ाई लड़ने की चाहत खत्म-सी हो गई है। नेताओं की अधिकांश ऊर्जा पदों को कब्जाने और सत्ता को दोनों हाथों से समेटने में खर्च हो रही है। सड़क का संघर्ष तो उन बुद्धूरामों के लिए है, जो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवानों की तरह न जाने क्यों कांग्रेस की चुनरी डाल कर नागिन डांस करते रहते हैं।
कांग्रेस के सामने खतरा यही है कि ऐसे नेता सिंधिया के नक्शे कदम पर न चलने लगें। हालांकि इन लोगों को यह उम्मीद अभी भी है कि पार्टी और ज्यादा सिंधियाओं को खोना अफोर्ड नहीं कर पाएगी। लिहाजा इन नेताओं की पूछपरख बढ़ेगी। कांग्रेस अगर समय पर सही निर्णय लेने की अमृतधारा भी प्राशन करने लगे तो काफी समस्याएं हल हो जाएं। लेकिन असली सवाल यही है कि ये करे कौन? जो पार्टी अपना अध्यक्ष भी नहीं चुन पा रही, उसे स्मार्ट बनने की बूटी देने से भी क्या होना है? सिंधिया को कांग्रेस ने क्या दिया, क्या नहीं दिया, उन्होंने पार्टी के लिए क्या किया, क्या नहीं किया, वो किसी जाल में फंसे या उन्होंने ही कोई नया जाल डाला, जैसे सवाल अब बेमानी हैं।
कोई बड़ी राजनीतिक पार्टी किसी एक व्यक्ति के भरोसे जिंदा नहीं रहती। सिंधिया के जाने से भी कांग्रेस का महल भरभराकर नहीं गिर जाएगा। लेकिन यह महल भीतर से जर्जर हो चुका है और जर्जर महल जीर्णोद्धार की गुहार करता है। यह जीर्णोद्धार वैचारिक, सांगठनिक और ऊर्जा के नवसंचार के रूप में होना चाहिए। उसकी निश्चित दिशा और प्राथमिकताएं होनी चाहिए। इसको लेकर कांग्रेस अभी भी गंभीर नहीं होगी तो आगे भी कई ‘सिंधिया’ कांग्रेस को अलविदा कहते रहेंगे। मध्यप्रदेश तो इसकी शुरुआत है।