नई नीति कथा: ‘माफ करो महाराज’ से ‘साथ है शिवराज’ तक!

अजय बोकिल

ज्यादा वक्त नहीं हुआ, जब मप्र विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्व कांग्रेस सांसद ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया भाजपा के सीधे निशाने पर थे। भाजपा के चुनाव कैम्पेन की टैग लाइन ही थी- ’माफ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज।‘ दूसरे शब्दों में यह लड़ाई महाराज और प्रजा की थी। महल और कुटिया की थी। आभिजात्य और ग्रामीण अनगढ़पन की थी। लेकिन 14 महीने बाद ही राजनीतिक आकाश में सब बदल गया है। काले बादल धवल मेघों में परिवर्तित हो गए हैं। लगता है कि महाराज और शिवराज दोनों ने जहां एक दूसरे को ‘माफ’ कर दिया है, वहीं प्रदेश में एक नए सत्ता संघर्ष की नींव भी रख दी है।

बेशक, सिंधिया के भाजपा में जाने के पीछे के कारणों, मजबूरियों और भविष्य को लेकर कई सवाल राजनीतिक प्रेक्षकों के मन में तैर रहे हैं। मसलन ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में आने से उनका राजनीतिक भविष्य उज्वल होगा या फिर यह राजनीति के मेले में महल का डेरा तंबू में सिमटने का मंगलाचरण है? भाजपा जैसी विचारधारा केन्द्रित और मजबूत संगठन वाली पार्टी में सिंधिया को कितना स्पेस मिलेगा अथवा वो कितना स्पेस ले पाएंगे? पार्टी अनुशासन के चलते सिंधिया के भाजपा प्रवेश के खिलाफ कोई ऑन रिकॉर्ड नहीं बोल रहा है, लेकिन खासकर ग्वालियर अंचल में जिस महल की राजनीति के खिलाफ भाजपा कार्यकर्ताओं ने अपनी पताकाएं लहराईं, अब वे अपने हाथों में कौन सी ध्वजाएं थामने पर विवश होंगे? खुद शिवराज ‘महाराज’ को कितना पचा पाएंगे? क्या इस बड़ी एंट्री के बाद मप्र भाजपा में नई लामबंदियां दिखेंगीं और इन नई लामबंदियों का अंजाम क्या होगा?

इसमें दो राय नहीं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा में लाना बीजेपी की रणनीतिक के साथ नैतिक जीत भी है। रणनीतिक जीत इस मायने में कि भाजपा इस बहाने राज्य सभा की दो सीटें जीतने में कायमाब हो सकती है। नैतिक इसलिए कि यह एक ‘राजा’ को ‘प्रजा’ के बीच ला बिठाने की कोशिश है। ज्योतिरादित्य के भगवा दुपट्टा ओढ़ते ही ग्वालियर अंचल के रहवासी और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वी.डी. शर्मा द्वारा ‘महाराज’ के कंधे पर हाथ रखना और ज्योतिरादित्य का परिचय कराते समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा द्वारा ज्योतिरादित्य को एक बार भी ‘महाराज’ न कहना कई संकेत देता है। नड्डा ने राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नाम भाजपा के आदर्श के रूप में लिया, लेकिन वो राजमाता, जो ज्योतिरादित्य की दादी थीं, का नाम सिंधिया ने एक बार भी नहीं लिया। वे भाजपा के दफ्तर में उत्साह के साथ आए थे, लेकिन मीडिया के सामने उनकी असहज बॉडी लैंग्वेज छुप नहीं सकी। हालांकि धीरे-धीरे वो सहज हो भी सकते हैं।

सिंधिया ने मीडिया से बात करते हुए अपने कांग्रेस छोड़ने का कारण यह बताया कि प्रदेश में कमलनाथ सरकार अपने ‘वचन’ पूरे नहीं कर पा रही थी। दूसरे, कांग्रेस अब पहले जैसी (यानी 2018 के पहले वाली) नहीं रही। सिंधिया ने यह भी कहा कि उनकी पवित्र इच्छा ‘लोक सेवा’ करते रहने की है। इसीलिए वो भाजपा में आए हैं। इसमें अंतर्निहित भाव यह है कि लोक सेवा का प्रकट माध्यम सत्ता ही है। पद होगा तो काम होंगे। कुर्सी होगी तो कृपा भी बरसेगी। सिंधिया का आशय साफ था कि कांग्रेस में उनकी उपेक्षा हो रही थी, जो उनके लिए असहनीय है। उन्हें वो अहमियत नहीं मिल रही थी, जैसी उनकी अपेक्षा थी। वे मान कर चल रहे हैं कि भाजपा में वैसी स्थिति नहीं होगी। वो यहां बेहतर ढंग से और अपनी इच्छा के मुताबिक जनता की सेवा कर सकेंगे। उधर सिंधिया के कांग्रेस छोड़ते ही उन पर पार्टी द्वारा उन मिसाइलों से हमले शुरू हो गए, जो कभी भाजपा ने अपने इस्तेमाल के लिए रख रखी थीं, जिसमे गद्दारी का आरोप भी शामिल है।

बहरहाल भाजपा सिंधिया का उपयोग कांग्रेस के किले को ध्वस्त करने में कितना करेगी, इससे भी बड़ा सवाल यह है कि सिंधिया भाजपा के महासागर में कितनी ताकत से तैर पाएंगे? जब कांग्रेस जैसी अराजकता की हद तक लोकतांत्रिक कहलाने वाली पार्टी में उन्हें अपना वजूद खतरे में दिखा तो भाजपा जैसी मजबूत संगठन और वैचारिक प्रतिबद्धता वाली पार्टी में सिंधिया अपनी ‘सल्तनत’ कैसे कायम रख पाएंगे? अभी भाजपा को उनकी जरूरत है, इसलिए कुछ समय तक सिंधिया को महत्व निश्चित ही मिलेगा, लेकिन यह स्थिति कितने दिन तक रहेगी, कोई नहीं कह सकता। खुदा न खास्ता भाजपा की नजर में सिंधिया की उपयोगिता सीमित रह गई तो ज्योतिरादित्य क्या करेंगे? उनके समर्थक क्या करेंगे?

नि‍श्चय ही ज्योतिरादित्य ने भगवा रंग में रंगने से पहले इन सारे पहलुओं पर विचार किया होगा। क्योंकि वो भी दो दशकों से राजनीति में हैं और उनके समर्थकों का एक बड़ा तबका है। अब भाजपा में आने के बाद उनका पहला संघर्ष तो परिवार के भीतर ही होने की आशंका है। क्योंकि उनकी दो बुआएं पहले ही भाजपा में हैं। सत्ता के कांटे रिश्तेदारियों को बिखेरने में कोताही नहीं करते। इसकी अगली कड़ी ग्वालियर-चंबल अंचल में अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की होगी। कांग्रेस ने तो आजादी के बाद भी सिंधिया राजवंश को ग्वालियर-चंबल संभाग का अघोषित भाग्य विधाता मान लिया था, लेकिन भाजपा में ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है। क्योंकि पहले जनसंघ और बाद में भाजपा ने अपने जमीनी नेताओं की टुकड़ी वहां पहले ही खड़ी कर रखी है।

इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले समय में खुद भाजपा के भीतर सबसे तीखा सत्ता संघर्ष ग्वालियर-चंबल संभाग में देखने को मिले, क्योंकि भाजपा के पास आज की तारीख में ‘ए’ और ‘बी’ श्रेणी के सबसे ज्यादा नेता इसी अंचल से हैं। फिर चाहे वो नरेन्द्रसिंह तोमर हों या नरोत्तम मिश्रा हों, जयभान सिंह पवैया हों या अनूप मिश्रा, प्रभात झा हों या फिर अरविदं भदौरिया। इस सूची में अब वी.डी. शर्मा का नाम भी शामिल हो गया है, जिन्हें लंबी राजनीति करनी है। मप्र बनने के बाद से इस अंचल से कोई भी अब तक मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है, लेकिन बदली परिस्थति में अगर यहां से कोई सीएम बन गया तो वर्चस्व की लड़ाई कौन-सा मोड़ लेगी और इसमें‍ सिंधिया की स्थिति क्या होगी, कल्पना की जा सकती है।

ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास प्लस प्वाइंट उनका आकर्षक व्यक्तित्व, सुशिक्षित होना और राजसी आभा है। लेकिन उन पर स्वभाव से ‘अहंवादी’ और व्यवहार में ‘महाराज’ होने का आरोप भी है। भाजपा में इन ‘बैरिकेड्स’ के साथ वो कैसे काम करेंगे, यह देखने की बात है। पूर्व मुख्ययमंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता शिवराजसिंह चौहान ने ‘महाराज’ के भाजपा में आने का स्वागत यह कहकर किया है कि वे युवा, ऊर्जावान और कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी हैं। ऐसा व्यक्ति जिसने राजनीति को सेवा का माध्यम माना है। लेकिन भारतीय राजनीति में अपनी पार्टी छोड़कर नई पार्टी में आने वाले हर नेता को ‘सर्वगुण सम्पन्न’ के रूप में और पार्टी छोड़कर जाने वाले नेता को पूरी तरह ‘निरूपयोगी’ ठहराने का रिवाज है। अलबत्ता नेताओं के लिए सुविधा यह है कि हमारे यहां दल के साथ वैचारिक प्रतिबद्धताएं भी कपड़े की तरह बदल ली जाती हैं। आलोचना और प्रशंसा पत्रों के संबोधन बदल जाते हैं। ज्योतिरादित्य अपेक्षाकृत अलग राजनीतिक संस्कृति वाले दल में कितना कम्फर्ट महसूस करते हैं, यह वक्त बताएगा। दरसअल यह नई नीति कथा है। ऐसी कथा जिसमे ‘राजा’ और ‘प्रजा’ की नई जुगलबंदी अपेक्षित है। ऐसी सत्य कथा, जिसमें ‘महाराज’ और ‘शिवराज’ दो प्रतीक हैं, दो चरित्र भी हैं। चरित्रों के इस द्वंद्व में कौन विजयी होगा, यह जानने के लिए इस पटकथा के पूरा होने का इंतजार करना होगा।

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