पल्लवी अनवेकर
हमारे देश में सदियों से ही स्त्री को देवी के रूप में पूजने की परंपरा चली आ रही है। पूजन की यह परंपरा हमारे आदर्शों की परिचायक है परंतु दुर्भाग्य यह है कि कलियुग में आदर्श वास्तविकता में नहीं होते। इस सत्य को हम जितनी जल्दी स्वीकार कर लें उतना ही अच्छा होगा। महिलाओं को देवी मानने की बजाय मानव रूप ही मान लें तो भी बहुत सारी समस्याओं का निराकरण हो जाएगा। मूर्ति या फोटो को पूजना और जीवित स्त्री को जाने-अनजाने अपमानित करना विरोधाभास परंतु वर्तमान का का सत्य है। आज समाज की इस दुर्दशा के लिए जितना पुरुष वर्ग जिम्मेदार है, उतनी ही स्त्री भी जिम्मेदार है। कुछ अपवादों को छोड़ कर आज महिला स्वयं को ही ठीक ढंग से पहचान नहीं पा रही है। उसे अपने अंदर झांकने की आवश्यकता है। उसे ‘स्व’ को पहचानने की आवश्यकता है। इसके लिए उसे अपनी तुलना किसी और से करने की आवश्यकता नहीं है। पुरुष वर्ग से तो कतई नहीं हैं क्योंकि प्रकृति ने स्त्री-पुरुष को एक दूसरे की तुलना करने के लिए नहीं वरन एक दूसरे को पूर्ण करने के लिए बनाया है। महिलाएं अगर अपने ‘स्व’ का स्मरण रखें, उसका निरंतर जागरण करें और उसका क्षरण होने से बचाएं तो महिलाओं की और साथ ही साथ सारे समाज की परिस्थिति में बदलाव निश्चित होगा।
ये ‘स्व’ क्या-क्या हो सकते हैं इसके कुछ उदाहरण और उस पर मेरा मत प्रस्तुत है। ये पूर्ण हैं यह तो मैं नहीं कहूंगी परंतु ये बिंदु विचारों को दिशा अवश्य दे सकेंगे।
स्वज्ञान- स्वज्ञान का अर्थ है स्वयं को पहचानना। यहां गहन आध्यात्मिक विवेचन की आवश्यकता नहीं है। स्वयं को पहचानना अर्थात अपने गुण-दोषों को जानना। अपने कला गुणों को पहचानना। अपनी योग्यता-अयोग्यता पर चिंतन करना। अपने शौक को जिंदा रखना। आज अपनी कला को लोगों के सामने प्रस्तुत करने के विभिन्न माध्यम उपलब्ध हैं। इसे अर्थार्जन का साधन भी बनाया जा सकता है। परंतु कई बार महिलाओं को अर्थार्जन की आवश्यकता नहीं होती फिर भी अपने विकास के लिए और मुख्यत: स्वयं को खुश रखने के लिए अपने अंदर के कलागुणों का विकास करना अत्यंत आवश्यक है। मेडिकल साइंस ने भी यह माना है कि अगर अपने शौक को जिंदा रखा गया तो नकारात्मकता आपके अंदर प्रवेश नहीं कर सकती और आजकल महिलाओं में प्रमुखता से नजर आने वाली बीमारी ‘डिप्रेशन’ से भी बचा जा सकता है। उदाहरण के लिए अगर आपको खाना बनाने के शौक है तो आप अपने घर के लोगों के साथ उन लोगों के लिए खाना बना सकती हैं जो घर से दूर हैं और घर के खाने को प्राथमिकता देते हैं। आजकल कुछ विशेष एप्स के जरिए ऐसे लोगों से सम्पर्क किया जा सकता है। आवश्यकता हो तो अर्थार्जन भी होगा और न हो तो आपका शौक पूरा हो जाएगा।
स्वाभिमान- स्वज्ञान होने के बाद स्वाभिमान अपने आप जागृत हो ही जाता है। इस जागृत स्वाभिमान का क्षरण न हो यह ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है। अक्सर महिलाएं ‘न’ कहने में झिझकती हैं और भावानात्मक दवाब में आकर वे कार्य भी करती हैं जो उन्हें सही नहीं लगते। सम्बंधों को टिकाए रखने के लिए या अपने प्रति लोगों की धारणा गलत न बन जाए इसलिए कई बार अपने स्वाभिमान से समझौता कर लेती हैं, जो कि बिलकुल गलत है। अपने स्वाभिमान का क्षरण होने से बचाने के लिए आवश्यकता होने पर ‘न’ कहने की आदत डालें।
स्वानुशासन- महिलाओं विशेषत: कामकाजी महिलाओं को घर, परिवार तथा नौकरी या व्यवसाय जैसी दो नावों पर सवार होकर आगे बढ़ना होता है। ऐसे में अगर दिनचर्या में अनुशासन न हो तो दोनों क्षेत्र संभालना बहुत कठिन हो जाता है। घंटे, दिन, सप्ताह के अनुरूप कामों का विभाजन करके अगर उपयुक्त नियोजन किया गया तो तनाव कम होगा और सभी कार्य व्यवस्थित रूप से पूर्ण होंगे। कार्यों का विभाजन करते समय अपने शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी कुछ समय अवश्य निकालें। इससे तनाव कम होगा तथा स्फूर्ति का संचार होगा।
स्वानुभव- लोगों के अनुभवों से सीखना अच्छा है परंतु अपने अनुभवों के आधार पर निर्णय लेना उससे भी अधिक अच्छा है। अपने अनुभवों को बढ़ाने के लिए आस-पास घटित होने वाली घटनाओं की जानकारी रखें। उन पर तार्किक और भावनात्मक चिंतन करें। अपनी पांचों इंद्रियों को सदैव जागृत रखें। महिलाओं की तो छठवीं इंद्रिय अर्थात ‘सिक्स्थ सेंस’ भी जागृत होती है, उस पर विश्वास करें। किसी व्यक्ति की नजर, स्पर्श का अनुभव ही उस व्यक्ति की सुप्त इच्छा को जाहिर कर देता है, इन्हें पढ़ना और जागृत रखना सीखें तथा आवश्यकता पड़ने पर योग्य प्रतिकार अवश्य करें।
स्वावलंबन- वैसे तो यह सभी के लिए आवश्यक है, परंतु महिलाओं के लिए अधिक आवश्यक है क्योंकि अधिक परावलंबन धोखे को निमंत्रण देता है। स्वावलंबन केवल आर्थिक ही नहीं होता। अन्य कार्यों के लिए अगर आपको किसी दूसरे पर निर्भर रहना पड़ रहा है तो भी आप परावलंबियों की श्रेणी में ही आती हैं। उदाहरणार्थ अगर आपके रोजमर्रा के कई कार्य केवल इसलिए नहीं हो पाते क्योंकि आप किसी भी प्रकार का वाहन चलाना नहीं जानती तो आपको स्वावलंबी होने के अन्य मार्ग खोजने होंगे। संभव हो तो वाहन चलाना सीख लें और अगर नहीं तो रिक्शा, ऑटो, बस जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग करना सीखें। रास्तों को याद रखें। बैंक, दुकान या अन्य इमारतों को लैंडमार्क के रूप में याद रखने की आदत डालें। बस से सफर करते समय आपके गंतव्य की ओर जाने वाली बसों के नंबर याद करें तथा आवश्यकता हो तो बस का रूटमैप भी साथ में रखें।
स्वसंरक्षण- आज समाज के वातावरण को देखते हुए स्वसंरक्षण अत्यधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है। समाज में घटित हो रहे कुकर्मों के समाचार पढ़ कर केवल क्रोधित होने या डरने से काम नहीं चलेगा। उसके प्रतिकार के लिए तैयार होने की आवश्यकता है। राष्ट्र सेविका समिति तथा दुर्गा वाहिनी की शाखाओं में निरंतर महिलाओं को स्वसंरक्षण का अभ्यास कराया जाता है। ‘सेल्फ डिफेंस’ सिखाने वाले अन्य क्लासेस भी आजकल कई जगह खुल चुके हैं। इन सभी के माध्यम से अपनी शारीरिक रक्षा करने की ट्रेनिंग ली जा सकती है। शारीरिक सुरक्षा की तरह ही मानसिक तथा भावनात्मक सुरक्षा भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों से आपकी भावनाओं का गलत फायदा उठाने वालों से सतर्क रहने की आवश्यकता है। सम्पूर्ण जानकारी के अभाव में किसी भी व्यक्ति को अपनी या अपने परिवार की निजी जानकारी न दें। यह भविष्य में खतरे को निमंत्रण देता है। विशेषकर किशोरवयीन लड़कियों को सावधान रहने की आवश्यकता है। इन्हीं भावनात्मक चालों में फंसने के कारण झूठे प्रेम प्रकरण, लव जिहाद और मानव अंग तस्करी जैसे भयानक मामले भी सामने आ रहे हैं। अत: अपना शारीरिक और मानसिक स्वसंरक्षण अवश्य करें।
स्वधर्मपरायणता- यहां धर्म का व्यापक अर्थ अपने कर्तव्यों को निभाने के संदर्भ में है। एक महिला बेटी, बहू, पत्नी, माता इत्यादि संबंधों को निभाते हुए परिवार की धुरी का कार्य करती है। विभिन्न संबंधों में अगर वह अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करे तो ही उन्नत परिवार और समाज का निर्माण हो सकेगा। महिला के कर्तव्यों में परिवार के लोगों के पालन पोषण के साथ-साथ उन्हें सही मार्ग पर चलने के लिए दिशा देना भी शामिल है। राष्ट्र सेविका समिति की प्रार्थना में एक पंक्ति है-
पिता-पुत्र-भातृंश्च भर्तारमेवम्, सुमार्गं प्रति प्रेरयन्तीमिह।
अर्थात, हे ईश्वर! हमें अपने पिता, पुत्र, भाई व पति को सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने की शक्ति प्रदान करें।
परिवार के साथ ही महिला भी समाज की एक घटक है। अत: समाज के घटक के रूप में तथा देश के नागरिक के रूप में उसके जो भी कर्तव्य हैं उसना पालन करना महिला का कर्तव्य है। यही उसकी स्वधर्मपरायणता है।
हालांकि कोई एक दिन मनाने भर से महिलाओं के सामाजिक स्तर में कोई परिवर्तन नहीं होगा। यह नियमित चलने वाली प्रक्रिया होनी चाहिए परंतु जैसे किसी भी कार्य की शुरुआत करने के लिए एक दिन नियोजित किया जाता है उसी प्रकार 8 मार्च को महिला दिन के उपलक्ष्य में हम सभी उपरोक्त बिंदुओं पर सोच विचार कर सकते हैं। जैसा कि मैंने आलेख की शुरुआत में ही कहा था कि ये सम्पूर्ण नहीं है, परंतु विचारों को दिशा देने का कार्य अवश्य कर सकते हैं, अत: इन पर तो विचार करें ही साथ ही अपने संज्ञान तथा ‘सिक्स्थ सेंस’ के अनुसार अन्य आवश्यक बातों पर भी ध्यान दें। महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।