भारत के गांधी और ट्रम्प के गांधी

राकेश दीवान

दुनिया के सर्वशक्तिमान माने और मनवाए जाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प ने भी आखिर ‘अपने गांधी’ को याद कर ही लिया। अपनी पहली भारत यात्रा के अहमदाबाद पड़ाव में ‘नमस्ते ट्रम्प’ के अलावा उन्होंने साबरमती आश्रम जाकर अतिथि-पुस्तिका में महात्मा गांधी की बजाए अपने परम मित्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आभार जताया। वैसे भी कुछ महीने पहले अमेरिका में हुए ‘हाउ-डी मोदी’ में ट्रम्प मोदी को ‘भारत के पितृ-पुरुष’ की डिग्री दे ही चुके हैं। इससे और कुछ हो, न हो, उनका आपसी याराना खासा झलकता है।

अपने शहर जबलपुर के भेड़ाघाट के बहाने हरिशंकर परसाई ने लिखा था कि हरेक शहर में अतिथियों को दिखाने-बहलाने के लिए एकाध ‘नाक’ जरूर होती है, भले ही वह ‘छिनकी’ ही क्यों न हो। अहमदाबाद में यह दर्जा आजकल साबरमती आश्रम को मिलने लगा है जिसे ‘वर्ल्ड–क्लास टूरिस्ट अट्रेक्शन’ बनाने की धुन में अव्वल तो सरकार बदहाल करने में लगी है। दूसरे, गरीबी, बीमारी और भुखमरी को ट्रम्प से छिपाने की खातिर खड़ी की गई दीवार उस गांधी की ठिठोली करती दिखती है जो सचाई, ईमानदारी और पारदर्शिता का विश्वविख्यात पुजारी था। ट्रम्प के दो दिनी दौरे में हुए 22 हजार करोड डॉलर के रक्षा-उपकरणों के सौदे ने बचे-खुचे, दिखाने लायक ‘शांतिदूत गांधी’ को भी गैर-जरूरी साबित कर दिया। कमाल यह है कि तीन घंटे में सात बार गले मिलने की मशक्कत के जरिए ट्रम्प-मोदी ने जिस आपसी गर्मजोशी का खुलासा किया, ठीक वही गर्मजोशी हथियारों की सौदेबाजी करते हुए भी उजागर की गई।

असल में ट्रम्प हों या मोदी, गांधी को लेकर यह असमंजस मौजूदा दौर के सभी छोटों-बड़ों के सामने खड़ा है। ट्रम्प की भारत यात्रा के आसपास ‘मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी’ द्वारा गांधी के ‘अभय’ पर भोपाल में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में भी कुछ इसी तरह के सवाल उठे थे। एक तरफ, जहां गांधी को आजादी के बाद के दौर में अप्रासंगिक होता हुआ बताया जा रहा था तो दूसरी तरफ, उन्हें आज के समय का सर्वाधिक प्रासंगिक व्यक्तित्व निरूपित किया जा रहा था। ध्यान से देखें तो गांधी के साथ होने वाला यह व्यवहार आज की वास्तविकता भी है।

आजादी की लड़ाई के दौरान ही गांधी उनके संगी-साथियों में अव्यावहारिक माने जाने लगे थे। आजादी के तुरंत बाद गांधी-नेहरू के बीच के विरोधाभास दरअसल विकास की अवधारणा पर तत्कालीन राजनेताओं के विरोधाभासों को ही उजागर करते हैं और इस लिहाज से नेहरू हरेक रंगों-झंडों-विचारों वाले हमारे राजनेताओं का पूरी शिद्दत से प्रतिनिधित्व करते हैं। आज भले ही सत्तारूढ भाजपा नेहरू को गरियाकर अपनी राजनीतिक गोटियां बिठाने की मशक्कत में लगी हो, लेकिन विकास की मौजूदा अवधारणा को देखें तो करीब पांच दशक पुराने नेहरू और ‘जनसंघ’ के रास्ते सत्तर के दशक में गठित भाजपा में कोई असहमति नहीं है। दोनों एक ही तरह की पद्धतियों, संसाधनों और मूल्यों के आधार पर विकास करना चाहते हैं। जाहिर है, ऐसे में ‘भारतीय संस्कृति’ की दुहाई देती भाजपा और खुद को गांधी, नेहरू का वारिस बताने वाली कांग्रेस, दोनों अपने कामकाज, नीतियों और समझ में गांधी को गैर-जरूरी ही मानती हैं। उनका बस चले तो वे गांधी को अपने-अपने ‘मार्ग-दर्शक मंडलों’ तक से खारिज करके मानें।

संयम, उपयुक्तता, अहिंसा और सत्य से निकले विकास के गांधीवादी ताने-बाने को देखें तो इसकी बुनियाद में हमें आम नागरिक ही दिखाई देता है। गांधी अक्सर कहते भी थे कि उनके पास जो कुछ भी है, वह कोई अजूबा न होकर आम जन-जीवन की सीख से निकला है। इस सीख ने ही उन्हें भारी-भरकम मशीनों, सर्वग्राही अर्थतंत्र और दूसरों के शोषण पर आधारित विकास की मुखालिफत करना सिखाया था। अंग्रेजी राज से मुक्त हुए भारत को भी वे इसी तर्ज पर आम लोगों के लिए मौजूं बनाना चाहते थे, लेकिन तत्कालीन नेताओं को यह मंजूर नहीं हुआ। बाद में भी गांधी की मान्यताओं पर सत्ता और सेठों की यह नामंजूरी इतनी फैली कि उसने भांति-भांति के और अक्सर एक-दूसरे के विपरीत ध्रुवों वाले राजनीतिक-सामाजिक विचारों, आंदोलनों और संगठनों को अपने में समाहित कर लिया। विकास की गांधी की अवधारणा का विरोध करने की खातिर सभी राजनीतिक जमातों में गजब की एकरूपता पैदा हो गई।

विडंबना यह रही कि गांधी को गरियाते हुए राजनीतिक जमातें उन आम लोगों और उनके जीवन से गांधी के सम्बन्धों को अनदेखा करती गईं जिनसे खुद गांधी ने सीखा था। नतीजे में आजादी के बाद का विकास उन बेहद बुनियादी मामलों में भी फिसड्डी साबित हुआ जो आम जीवन के लिए सर्वाधिक जरूरी थे। आजादी के बाद के सात दशकों को देखें तो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, पानी, रहवास, परिवहन जैसी बुनियादी जरूरतें उन बहुसंख्यक लोगों तक नहीं पहुंच पाईं जिन्हें उनकी खास जरूरत थी। गांधी की तरफ पीठ करके खड़ी राजनीति, सत्ता और विकास इस क्रम में खुद भी समाज से दूर होते गए। राजनीतिक-प्रशासनिक फैसले, अश्लील गैर-बराबरी और बढ़ता सामाजिक-आर्थिक तनाव सत्ता और समाज के बीच की इस दूरी की पुष्टि करते हैं। यह दूरी इस हद तक बढ़ी है कि अब खुद राजनीति ही अप्रासंगिक होती जा रही है और गांधी को ‘मार्ग दर्शक मंडलों’ तक से खारिज करने के मंसूबे बांधे जा रहे हैं।

गांधी को गायब करने के इन कारनामों के बरक्स एक और भी गांधी है जो शिद्दत से आम लोगों के साथ खड़ा और संघर्ष कर रहा है। ‘अभय’ संगोष्ठी में दिल्ली के ‘शाहीन बाग’ का जिक्र करते हुए पत्रकार अरविन्द मोहन और अरुण त्रिपाठी ने इसी गांधी की बात की थी। गांधी के ‘एकादश व्रतों’ को अपने कामकाजी रूप में देखना हो तो देशभर में खड़े करीब डेढ़ सौ ‘शाहीन बागों’ को देखा-समझा जा सकता है। विनम्र दृढ़ता से अपनी बात कहना, शिष्टता बनाए रखना, सादगी बरतना, कानून से असहमति के बावजूद उसे मानना, संविधान में गहरी आस्था रखना, अपने संगी-साथियों की परवाह करना, जाति-धर्म-वर्ग-लिंग आदि के आधार पर विभाजन अस्वीकार करना कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें ‘शाहीन बाग’ के वाशिंदे मानते, वापरते हैं। जल-जंगल-जमीन, विस्थापन, कृषि जैसे मसलों पर देशभर में जारी जनांदोलन गांधी की इन्हीं बातों पर भरोसा रखकर सक्रिय हैं। हाल के दिल्ली-दंगों में जहां-जहां इंसानियत दिखाई दी है, उसके पीछे गांधी की मौजूदगी को स्पष्ट देखा जा सकता है। जाहिर है, आम लोगों को गांधी आज भी प्रभावित कर रहे हैं।

जनता के पड़ोस में गांधी की मौजूदगी उन राजनीतिक जमातों को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर रही हैं जो अपनी कथनी और करनी में गांधी से कोसों दूर चले गए हैं। दिल्ली-दंगों में भी राजनीतिक जमातों ने दंगे भड़काने के अलावा कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे दंगा प्रभावितों की मरहम-पट्टी तक की जा सकती, दंगे रोकने की हिम्मत, हैसियत तो दूर की बात है। सवाल है कि क्या समाज की तरफ पीठ करके बैठी हमारी मौजूदा राजनीति समाज को बढ़ने, बरकरार रखने में कामयाब हो पाएगी? डोनॉल्ड ट्रम्प गांधी के विपरीत खड़ी उन्हीं वैश्विक ताकतों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अंतत: सब कुछ डुबोने, बर्बाद करने में लगी हैं। साबरमती आश्रम में गांधी को भूलकर वे इसीलिए मोदी का गुणगान करते दिखाई देते हैं।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here