निजी दूरसंचार कंपनियों पर बकाया राशि के मकड़जाल को समझने के लिए आपको कई साल पीछे जाना होगा। यह बात शुरू होती है 1994 से जब भारत सरकार ने राष्ट्रीय दूरसंचार नीति घोषित की और उसके तहत कई कंपनियों को दूरसंचार गतिविधियों के लिए लायसेंस जारी किए। उससे पहले भारत का डाकतार विभाग ही सारी टेलीफोन सेवाएं देखता था। कॉरपोरेट जमाने को ध्यान में रखते हुए सरकार ने बाद में सितंबर 2000 में दूरसंचार सेवाओं के लिए भारत संचार निगम लिमिटेड यानी बीएसएनएल के नाम से अलग निगम का गठन किया। पर उसकी अपनी अलग कहानी है।
तो जब 1994 में सरकार ने दूरसंचार की नई नीति के तहत दूरसंचार सेवाओं का क्षेत्र निजी कंपनियों के लिए भी खोला तो उस समय तय किया गया कि इसके एवज में ये कंपनियां हर साल सरकार को एक निश्चित फीस अदा करेंगी। लेकिन ये कंपनियां निश्चित फीस अदा करने में नाकाम रहीं। पांच साल बाद यानी 1999 में सरकार ने उनके लिए एक बेलआउट पैकेज दिया जिसमें तय किया गया कि ये कंपनियां अपनी समायोजित सकल आय Adjusted Gross Revenue (AGR) का एक निश्चित हिस्सा एक अगस्त 1999 से लायसेंस फीस के रूप में अदा करेंगी। उसी समय यह भी तय हुआ कि एजीआर का कितना आनुपातिक हिस्सा लायसेंस फीस के रूप में लिया जाए यह भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण यानी ट्राई की सिफारिशों के बाद तय किया जाएगा।
इसके बाद सरकार ने लायसेंस अनुबंध को संशोधित कर दिया और उसमें एजीआर आधारित फार्मूले के अनुसार शुल्क लेना तय हुआ। इसके मुताबिक सभी कंपनियों को भविष्य में एजीआर की उसी परिभाषा के अनुसार शुल्क देना था जो सरकार ने तय की थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और एक नया खेल शुरू हो गया। हुआ ये कि 2003 में एसोसिएशन ऑफ युनाइटेड टेलीकॉम सर्विस प्रोवाइडर्स ऑफ इंडिया (ऑस्पी) ने लायसेंस अनुबंध में तय की गई एजीआर की परिभाषा की वैधता को टेलीकॉम डिस्प्यूट सेटलमेंट एंड अपीलेट ट्रिब्यूनल (टेडसेट) में चुनौती दे दी।
टेडसेट ने जुलाई 2006 में फैसला सुनाया कि निजी दूरसंचार सेवा प्रदाताओं को अपनी उसी आय के हिस्से पर लायसेंस फीस देनी होगी जो दूरसंचार लायसेंस के अधीन की जाने वाली गतिविधियों से होती है। बाकी गतिविधियों से होने वाली आय पर यह फीस नहीं लगेगी। लायसेंसी और गैरलायसेंसी गतिविधियां कौनसी होंगी उन्हें परिभाषित करने के लिए डेटसेट ने ट्राई से सिफारिश मांगी।
ट्राई ने इस हिसाब से उन गतिविधियों का ब्योरा दे दिया जो लायसेंस फीस वसूल किए जाने की दृष्टि से एजीआर के दायरे में आती थीं। 2007 में दूरसंचार विभाग ने टेलीकॉम लायसेंस की शर्तों को लेकर टेडसेट के अधिकार क्षेत्र को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। उसका यह भी कहना था कि लायसेंस की शर्तों को पहले बिना किसी हीलहवाले के कंपनियों ने स्वीकार किया था। पर सुप्रीम कोर्ट ने दूरसंचार विभाग की यह याचिका नामंजूर करते हुए विभाग से कहा कि वह अपनी आपत्ति टेडसेट के ही समक्ष उठाए।
अगस्त 2007 में टेडसेट ने ट्राई द्वारा इस संबंध में की गई अधिकांश सिफारिशों को मंजूर करते हुए एक आदेश पारित किया जो ऑस्पी के उन सदस्यों पर लागू होता था जो टेडसेट में मूल रूप से यह मामला लेकर गए थे। इस आदेश को लागू करने की तारीख भी ऑस्पी के उन सदस्यों द्वारा दायर की गई याचिका की तारीख को माना गया। इस पर ऑस्पी और सेल्यूलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (कोआई) ने फिर टेडसेट में पुनर्विचार याचिका दायर कर अनुरोध किया कि उसका आदेश दोनों संस्थाओं के सदस्यों पर समान रूप से उसी तारीख से लागू किया जाए जिस तारीख को उन्होंने (ऑस्पी) मूल याचिका दायर की थी।
इस बीच टेडसेट के 30 अगस्त 2007 के आदेश के खिलाफ दूरसंचार विभाग फिर सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। उधर एक घटना और हुई। जिस समय दूरसंचार विभाग की यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन थी उसी समय कुछ निजी टेलकॉम कंपनियों ने टेडसेट में आवेदन दिया कि उन्हें भी ट्रिब्यूनल के 30 अगस्त के आदेश में शामिल किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2011 में टेडसेट के 30 अगस्त 2007 के आदेश को खारिज कर दिया। लेकिन उसने लायसेंसधारी कंपनियों को यह छूट दी कि वे दूरसंचार विभाग द्वारा उनसे मांगी जाने वाली राशि को टेडसेट में चुनौती दे सकते हैं जो दावे का गुणदोष के आधार पर आकलन करेगा। इसके साथ ही वह यह भी देखेगा कि मांगी गई राशि लायसेंस की शर्तों व एजीआर की परिभाषा के अनुरूप है या नहीं। इस पर सभी टेलीकॉम लायसेंसधारी कंपनियों ने दूरसंचार विभाग द्वारा निकाली गई शुल्क की राशि को टेडसेट में चुनौती दे दी।
अप्रैल 2015 में टेडसेट ने सभी टेलीकॉम ऑपरेटर्स की याचिकाओं को मंजूर करते हुए दूरसंचार विभाग की मांगों को खारिज कर दिया। उसने दूरसंचार विभाग को यह भी आदेश दिया कि वह लायसेंस फीस निर्धारिण का पुनर्मूल्यांकन करे। इस आदेश को दूरसंचार विभाग ने फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सारे तथ्यों और दलीलों को सुनने के बाद फैसला सुनाया कि टेलीकॉम कंपनियों को, उन पर बकाया लायसेंस फीस के मामले में किसी भी तरह की कोई राहत नहीं दी जा सकती, उन्हें यह बकाया राशि सरकार को चुकानी ही होगी। और उसके बाद से लेकर ‘डेस्क ऑफिसर’ के पत्र तक का ताजा घटनाक्रम तो सबके सामने है ही।
मैंने यह इतनी लंबी रामायण आपको इसलिए बताई ताकि आप जान सकें कि सरकारों में योजनाओं को लेकर क्या क्या और कैसे कैसे खेल चलते हैं। दूरसंचार की क्रांति और लोगों को उससे मिलने वाले लाभ अपनी जगह हैं लेकिन इस क्रांति में अर्थव्यवस्था का कितना लहू बहा है इसकी परतें शायद ही कभी खुल पाएं। जिस समय सरकार को अदा की जाने वाली लायसेंस फीस का यह विवाद न्यायिक संस्थाओं में इधर से उधर टल्ले खा रहा था उसी दौरान कथित रूप से एक लाख 76 हजार करोड़ रुपये का 2-जी घोटला भी सामने आया और 2017 में दिल्ली की एक अदालत ने सिर्फ एक लाइन के आदेश में उसके सभी आरोपियों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया।
यह कथा बताती है कि सिर्फ निर्भया से बलात्कार कर उसे मौत के दरवाजे तक पहुंचाने वाले अपराधी ही, मामले को कानूनी विवादों में उलझाकर सजा से नहीं बचते, जनता की गाढ़ी कमाई से भरने वाले सरकारी खजाने से बलात्कार कर उसे मौत के मुंह तक ले जाने वाले भी कानून से ऐसे ही खेलते हैं।
जरा सोचकर देखिये… निजी कंपनियां पहले सरकार से कारोबार का लायसेंस लेती हैं, लायसेंस लेने के लिए शुल्क की सभी शर्तें पहले मान लेती हैं और बाद में सरकार को वह शुल्क देने के बजाय शर्तों को चुनौती देते हुए लाखों करोड़ रुपये की राशि से बचने के लिए तरह तरह के खेल खेलती हैं। यह भी हैरान करने वाली बात हैं कि सुप्रीम कोर्ट अंतत: दूरसंचार विभाग की जिस मांग को उचित बताता है उसी मांग को लेकर दूरसंचार विभाग के विवाद निपटाने वाली संस्थाएं, निजी कंपनियों के पक्ष में झुकती नजर आती हैं। सुप्रीम कोर्ट के सामने तो सिर्फ एक ‘डेस्क ऑफिसर’ का कारनामा उजागर हुआ, सरकारी महकमों और सत्ता के गलियारों में तो कदम कदम पर ऐसे ‘डेस्क ऑफिसर’ बैठे हुए हैं, क्या करियेगा…
अरे हां, इस ‘शुल्क कथा’ के बीच वह सवाल तो छूट ही गया कि इस सारे खेल के पीछे का खेल आखिर क्या है?