भारतीय जनता पार्टी की दिल्ली विधानसभा चुनावों में हुई करारी हार के बाद पार्टी के दो बड़े नेताओं की प्रतिक्रियाएं चुनाव नतीजों के दिन ही आ गई थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरविंद केजरीवाल को बधाई देते हुए कहा था- ‘’दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत के लिए आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल को बधाई। मैं दिल्ली के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उन्हें शुभकामनाएं देता हूं।‘’ इसी तरह भाजपा के नए अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी केजरीवाल को बधाई देते हुए कहा था- ‘’इस विश्वास के साथ कि आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली का विकास करेगी, मैं श्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी को बधाई देता हूँ।‘’
लेकिन चारों तरफ यह सवाल पूछा जा रहा था कि पार्टी के पूर्व मुखिया और ‘राजनीति के चाणक्य’ कहे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह क्यों चुप हैं? गुरुवार को अमित शाह ने अपनी चुप्पी तोड़ी है। उन्होंने अंग्रेजी समाचार चैनल ‘टाइम्स नाउ’ के एक कार्यक्रम में हुए सवाल जवाब के दौरान कहा कि- ‘’हम चुनाव सिर्फ जीत और हार के लिए नहीं लड़ते हैं, बीजेपी वो पार्टी है जो चुनाव विचारधारा के विस्तार के लिए लड़ती है। दिल्ली के नतीजों को सीएए और एनआरसी पर जनमत संग्रह के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।‘’
अमित शाह ने माना कि दिल्ली चुनावों में उनका अंदाजा गलत साबित हुआ है। लेकिन इन नतीजों को शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन से जोड़कर देखना ठीक नहीं है। जो लोग शाहीन बाग का समर्थन करते हैं ये उनका अधिकार है, हम अगर उनके खिलाफ हैं तो ये हमारा अधिकार है। हो सकता है कि भाजपा को पार्टी नेताओं के घृणास्पद बयानों का नुकसान हुआ हो।
दिल्ली चुनावों के दौरान बीजेपी नेताओं के ‘गोली मारो’ और ‘भारत-पाकिस्तान मैच’ जैसे बयानों पर शाह ने कहा कि ऐसी बातें नहीं की जानी चाहिए। पार्टी ने ऐसे बयानों की हमेशा निंदा की है, इस बार भी हमने इन बयानों से दूरी बना ली थी। शाह ने आरोप लगाया कि देश को हिंदू-मुसलमान में बांटने का काम हमेशा से कांग्रेस पार्टी ने ही किया है।
इसके अलावा शाह ने सीएए मुद्दे पर एक बार फिर संवाद की पेशकश करते हुए कहा कि जो कोई भी सीएए से जुड़े मुद्दे पर मुझसे बात करना चाहते हैं, वह मेरे कार्यालय से समय ले सकते हैं, तीन दिन के भीतर समय दिया जाएगा। एनपीआर को लेकर कांग्रेस अफवाह फैला रही है। सरकार पहले भी कई बार स्पष्ट कर चुकी है कि एनपीआर के लिए किसी भी तरह के कागज़ नहीं दिखाने होंगे।
अमित शाह के इन बयानों और उनमें छिपे ‘बिटवीन द लाइन्स’ अर्थों को बहुत ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। पहली बात शाह ने कही कि भाजपा चुनाव को हार-जीत के लिए नहीं अपनी विचारधारा के विस्तार के लिए लड़ती है। यानी भाजपा को दिल्ली में भले ही करारी हार झेलनी पड़ी हो पर उसके चलते यह पार्टी अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करेगी। और विचारधारा से आशय क्या है यह बात किसी से छिपी नहीं है।
जो लोग मान रहे थे या मान रहे हैं कि दिल्ली का चुनाव सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दों पर भाजपा को कदम पीछे खींचने पर मजबूर करेगा उनके लिए भी साफ संदेश है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला। क्योंकि शाह ने केजरीवाल सरकार के तीसरी बार सत्ता में आ जाने को सीएए और एनआरसी मुद्दे पर जनमत संग्रह मानने से इनकार कर दिया है।
मतलब साफ है कि आने वाले दिनों में केंद्र सरकार उस दिशा में और तेजी से आगे बढ़ सकती है जिस दिशा में वह दुबारा सत्ता में आने के बाद चल पड़ी है। धारा 370 की समाप्ति और सीएए लागू करने के बाद यह रास्ता जनसंख्या नियंत्रण कानून, समान नागरिक संहिता जैसे नए लक्ष्यों की ओर बढ़े तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसा लगता है कि मोदी 2.0 में भाजपा ‘किसी भी कीमत पर’ उन सारे मुद्दों को निपटा लेना चाहती है जो बरसों से उसके एजेंडे में रहे हैं।
हां, अमित शाह का यह कहना चौंकाता है कि ‘देश के गद्दारों…’ जैसा बयान नहीं दिया जाना चाहिए था। पार्टी को ऐसे बयानों से संभवतः नुकसान पहुंचा है। लेकिन जब इस तरह के बयान दिए जा रहे थे तब पार्टी का मूड बिलकुल अलग था। उस समय तो कई नेता अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा और गिरिराजसिंह जैसे नेताओं की बातों को अपनी ध्रुवीकरण की कोशिश की सफलता के टूल के रूप में देख रहे थे।
जहां तक शाहीन बाग का सवाल है, भाजपा माने या न माने, उसने इस मुद्दे को चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की जी तोड़ कोशिश की थी, यह बात अलग है कि यह हथियार काम नहीं आया। भाजपा ने शाहीन बाग से जुड़कर अपने को नुकसान पहुंचा लिया जबकि केजरीवाल ने उससे दूरी बनाकर फायदा उठा लिया।
यह पूछा जा सकता है कि शाहीन बाग मामले में आगे क्या? तो अमित शाह के गुरुवार के बयान को आप एक बार फिर गौर से पढि़ए। उन्होंने कहा- ‘’दिल्ली के नतीजों को शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन से जोड़कर देखना ठीक नहीं है। जो लोग शाहीन बाग का समर्थन करते हैं ये उनका अधिकार है, हम अगर उनके खिलाफ हैं तो ये हमारा अधिकार है।‘’
संकेत साफ है कि भाजपा शाहीन बाग जैसी चुनौतियों से अपने तरीके से निपटने की रणनीति पर कायम है। वैसे यह मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है लेकिन जो लोग यह कयास लगा रहे थे कि दिल्ली चुनाव हो जाने के बाद शाहीन बाग का धरना दिल्ली पुलिस बलपूर्वक खत्म करा देगी उन्हें अब कुछ और इंतजार करना चाहिए।
हो सकता है केंद्र सरकार अब इस धरने को उठवाने में कोई रुचि न दिखाए। वह सारा मसला सुप्रीम कोर्ट या फिर दिल्ली की केजरीवाल सरकार के मत्थे मढ़ दे। कोशिश यह हो सकती है कि यह धरना अब जितना ज्यादा लंबा खिंचे उतना खिंचता रहे। ऐसा होने से भाजपा को निकट भविष्य में कोई नुकसान नहीं है।
शायद मंशा यह हो कि अब इलाके के लोग (यहां हिन्दू पढ़ें) खुद धरना देने वाले लोगों (यहां मुसलिम पढ़ें) के खिलाफ उग्र होकर सामने आएं और आमना सामना उस इलाके के दो समुदायों के बीच हो। यदि ऐसा होता है तो यह टकराव अरविंद केजरीवाल की नई सरकार के लिए पहला और बहुत बड़ा सिरदर्द होगा। और भाजपा भला क्यों चाहेगी कि केजरीवाल का सिरदर्द कम हो…