देश में जब छोटी-छोटी बात पर एक दूसरे का गला तक काट लेने जैसा माहौल पैदा किया जा रहा हो और छोटे-छोटे मसलों को लेकर लोग रोज अदालतों का दरवाजा खटखटा रहे हों ऐसे में यह कहना बहुत जोखिम वाला काम है कि कुछ मामले अदालतों से बाहर निपटाने के प्रयास भी होने चाहिए। लेकिन स्वागत किया जाना चाहिए भारत के प्रधान न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े जी का जिन्होंने यह सुझाव देकर न्याय तंत्र की बहुत ही जरूरी मांग पर ध्यान दिलाया है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा है कि यह बिलकुल सही समय है जब ऐसा व्यापक, सुविचारित और सशक्त कानून बनाया जाए जिसमें मुकदमे से पहले ‘मध्यस्थता’ को अनिवार्य किया जाए। इस तरह का कानून बनने से न सिर्फ अदालतों की कार्यक्षमता बढ़ेगी बल्कि अदालतों में मुकदमों की संख्या घटने के साथ ही वहां बरसों बरस उनके लंबित रहने की समस्या भी कम होगी।
न्यायमर्ति बोबडे शनिवार को ‘वैश्वीकरण के युग में मध्यस्थता’ विषय पर तीसरे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने भारत में संस्थागत मध्यस्थता के विकास के लिए एक मजबूत ‘आरबिट्रेशन (मध्यस्थता) बार’ की जरूरत बताई और कहा कि यह ज्ञान और अनुभव रखने वाले पेशेवरों की उपलब्धता और पहुंच को सुनिश्चित करेगा।
बोबडे ने कहा कि आज अंतरराष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्य और निवेश वाले वैश्विक ढांचे में मध्यस्थता की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत वैश्विक समुदाय का एक अभिन्न सदस्य है और व्यापार एवं निवेश के लिहाज से दुनिया में इसका अपना अलग महत्व है। इस नाते अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में यदि हमारी भागीदारी होती है तो उसका सीमा पार अंतरराष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्य और निवेश के प्रवाह पर गहरा असर पड़ेगा।
अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में भारत की भूमिका को और स्पष्ट करते हुए जस्टिस बोबडे ने कहा, ‘हाल के समय में, वैश्वीकरण के चलते, भारत से जुड़े सीमा पार लेनदेन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है जिससे सीमा पार मध्यस्थता की मांग भी बढ़ी है। इसके परिणामस्वरूप बढ़ते मामलों की जटिलता से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की जरूरत बढ़ती जा रही है।’
उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों का उद्देश्य एक विवाद को हल करना होता है, लेकिन फैसले पर असंतोष के कारण अपील की जाती है जिसे टाला नहीं जा सकता है। न्याय करना एक कठिन काम होता है और जजों को फैसला लेना पड़ता है जिससे सब बचते हैं। ऐसे में ‘मेरा मानना है कि एक व्यापक कानून बनाने का यह बिल्कुल सही समय है, जिसमें मुकदमे से पहले मध्यस्थता अनिवार्य हो…’
जस्टिस बोबडे के इस सुझाव पर न सिर्फ सरकार बल्कि देश की तमाम कानूनी संस्थाओं खासतौर से बार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। यह सुझाव हमारी अदालतों को काम के बोझ के दमघोटू दबाव से राहत देगा साथ ही उन लाखों लोगों के समय और धन की बचत भी करेगा जो छोटी छोटी बात में अदालत तक पहुंच तो जाते हैं लेकिन बाद में महसूस करते हैं कि उन्होंने अदालत से बाहर एकदूसरे से बात कर ली होती तो दोनों पक्षों का भला हो सकता था।
भारत में वैसे मध्यस्थता के लिए कानून मौजूद है। 1996 में सरकार मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) कानून बना चुकी है। उसके बाद मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में 2018 में इसमें कुछ जरूरी संशोधन किए। इससे पहले इस कानून में 2015 में संशोधन कर मध्यस्थता प्रक्रिया को सहज बनाने, प्रक्रिया की लागत को कम करने, मामलों का तेजी से निपटारा करने और मध्यस्थता करने वालों की तटस्थता सुनिश्चित करने जैसे प्रावधान किए गए थे।
उसके बाद भी इस कानून की कुछ कमियों पर लगातार बात होती रही और 2015 के संशोधित अधिनियम पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बी.एच. श्रीकृष्ण की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित की गई। इसका मुख्य कार्य प्रचलित कानून में आ रही कठिनाइयों को दूर करते हुए मध्यस्थता के असर का आकलन करना और ऐसे सुझाव देना था जिसमें मध्यस्थता की व्यवस्था को संस्थागत रूप से प्रोत्साहित किया जा सके।
सरकार ने मध्यस्थता अधिनियम में 2018 में जो संशोधन किया था उसकी सबसे प्रमुख बात थी एक स्वतंत्र संस्था के रूप में मध्यस्थता परिषद (एसीआई) का गठन। इस संस्था का काम मध्यस्थता करने वाले संस्थानों को ग्रेड देना और नियम तय करके मध्यस्थता करने वालों को मान्यता प्रदान करना था। इस सस्था के जिम्मे यह दायित्व भी था कि वह मध्यस्थता और वैकल्पिक विवाद समाधान व्यवस्था से जुड़े सभी मामलों में पेशेवर मानकों को बनाने के लिए नीति और दिशा निर्देश तय करे और मध्यस्थता वाले सभी निर्णयों का इलेक्ट्रोनिक रिकार्ड रखे।
दरअसल भारतीय समाज में मध्यस्थता या सुलहसफाई जैसी परंपरा नई नहीं है। हमारी पंचायतों की व्यवस्था का मूल आधार ही यही रहा है जहां लोग आपस में मिल बैठकर अपने विवादों और झगड़ों को सुलझाते रहे हैं। लेकिन जैसे जैसे कानूनी पेचीदगियां बढ़ती गईं, पंचायतों का स्थानीय स्तर पर ‘न्याय’ करने वाली संस्था का स्वरूप खत्म होता गया। पंचायत स्तर पर राजनीति के प्रवेश ने भी इस व्यवस्था को दूषित किया, नतीजा यह हुआ कि लोग एक दूसरे को विश्वास में लेकर आपसी बातचीत से मामले सुलझाने के बजाय उन्हें कोर्ट में ले जाने लगे।
एक और जटिलता बार के कारण भी आई। ‘न्याय’ के लिए पैरवी करने वाले वकील तंत्र ने थोड़ी सी समझाइश से मामले सुलझ जाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के बजाय मामलों को अदालतों में ले जाने और वहां उन्हें लंबा खींचने की प्रवृत्ति अपनाई और नतीजा यह हुआ कि न सिर्फ अदालतों पर काम का बोझ बढ़ा बल्कि लोगों को न्याय मिलने में सालों साल लगने लगे। कई पीढि़या कोर्ट की तारीख पर तारीख के मकड़जाल में उलझकर बरबाद हुईं।
अब जब प्रधान न्यायाधीश ने स्वयं यह सुझाव दिया है कि कोर्ट में मामले ले जाए जाने से पहले मध्यस्थता या सुलह समाधान को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया जाना चाहिए तो इस पर तेजी से अमल की दिशा में कदम उठाने की जरूरत है। यदि ऐसा हो जाता है तो कई सारे मामले अदालतों की दहलीज तक पहुंचेंगे ही नहीं और न्याय तंत्र पर पड़ने वाला मुकदमों का बोझ भी काफी हद तक कम होगा। उम्मीद तो यह भी है कि इससे मुकदमों के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली दुश्मनी की भावना भी कम होगी।