आजादी के 73 साल और गणतंत्र के 70 सालों में शायद यह पहला ऐसा अवसर होगा जब गणतंत्र दिवस पर देश का गण और तंत्र इतना विभाजित नजर आ रहा है। देश के विभाजन के समय की यादों या उसके घावों को महसूस करने वाली पीढ़ी के बहुत कम लोग अब बचे हैं, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों ने आजादी के बाद समाज के एक और सांघातिक विभाजन के अनुभव वाली ऐसी पीढ़ी तैयार करने का काम किया है जो आने वाले कम से कम पचास सालों तक इस झुलसन को महसूस करती रहेगी।
भारत विभाजन के जख्मों को तो उस समय की बची खुची पीढ़ी ने किसी तरह सहन कर लिया था और वह नए भारत की तकदीर लिखने के काम में जुट गई थी। पर आज यह कहना मुश्किल है कि अब हो रहे नए तरीके के विभाजन को वर्तमान पीढ़ी किस तरह लेगी और इस प्रक्रिया से गुजरते हुए वह किस तरह के भारत का निर्माण करेगी।
गणतंत्र की 70 वीं सालगिरह पर हमारा लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर आ खड़ा हुआ है जिसमें संभावनाएं और आशंकाएं एक दूसरे से गुत्थम गुत्था हैं। आशंकाओं को संभावनाओं पर तारी करने की कोशिशें (या साजिशें) लगातार हो रही हैं। हमारे संविधान की शुरुआत ही इस वाक्य से होती है- ‘हम भारत के लोग’ लेकिन आज इस बात की पहचान करना मुश्किल है कि संविधान में यह जो ‘हम’ शब्द इस्तेमाल हुआ है वह किसके लिए है? संविधान निर्माताओं के मन में इस ‘हम’ का आशय समस्त भारतवासियों से रहा होगा लेकिन आज हम दावे से नहीं कह सकते कि यह ‘हम’ हमारे एकत्व का परिचायक भी है। आज इस ‘हम’ के सामने बहुत सारे ‘अहम्’ आ खड़े हुए हैं।
जिस आजाद भारत के 21 वीं सदी में विश्वगुरु बनने का सपना देखा गया था वह भारत 21 वीं सदी का दूसरा दशक खत्म होते होते तक एक बार फिर ‘हमें चाहिये आजादी’ के नारों से गूंज रहा है। चुनी हुई सरकारों के चेहरों पर संदेह के पोस्टर चिपकाए जा रहे हैं और ‘सिलेक्टिव समर्थन’ और ‘सिलेक्टिव विरोध’ का जाल पूरे देश पर फैला दिया गया है। विडंबना देखिये कि यह गांधी के 150 साल हो जाने का समय है और दिखावटी सम्मान के अलावा गांधी हमारे जीवन व्यवहार से कोसों दूर हैं। भाषणों में जरूर सत्य और अहिंसा की प्रासंगिकता आज भी अंडरलाइन करके बताई और समझाई जा रही है लेकिन करतूतों में न सत्य का समावेश है और न ही अहिंसा का पुट।
हां, भारत एक बार फिर करवट ले रहा है। यह करवट अंधे कुएं की ओर है या खाई की ओर कहा नहीं जा सकता। यदि सचमुच हमें कुएं या खाई से अलग अपने सपनों का शस्य श्यामल भारत चाहिए तो हमें संविधान की उसी भावना की ओर लौटना होगा जो बहुत उम्मीद के साथ ‘हम भारत के लोग’ कहता हुआ अपने अस्तित्व का उद्घोष करता है। दरअसल यह ‘हम’ भाव ही हमारे गणतंत्र का मूल आधार है और इस ‘हम’ में आने वाली कोई भी दरार हमारे गणतंत्र को ‘गढ़तंत्र’ में तब्दील कर देगी।