भाजपा को अपनी राजनीतिक शैली पर विचार करना होगा

झारखंड चुनाव परिणाम को लेकर मीडिया और सोशल मीडिया में कुछ रंगों के सहारे देश का नया नक्‍शा प्रस्‍तु‍त किया जा रहा है। यह नक्‍शा अलग अलग रंगों के माध्‍यम से देश के मध्‍य भाग को पांच साल पहले और आज की स्थिति में तुलनात्‍मक रूप से प्रस्‍तुत करते हुए बताता है कि भाजपा का रंग कहां कहां से उड़ गया है। निश्चित रूप से रंग केवल नक्‍शे से ही नहीं उड़ा है, आप इसे कई चेहरों से उड़ा हुआ भी महसूस कर सकते हैं।

झारखंड चुनाव पर बात करने से पहले वो कुछ तथ्‍य देख लें जो चुनाव परिणाम आने के बाद से मीडिया में चल रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख तथ्‍य भाजपा की दुर्दशा से जुड़ा है जो कहता है कि पिछले पांच सालों में भाजपा ने पांच बड़े राज्‍य गंवाए हैं। इनमें मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान, छत्‍तीसगढ़ और महाराष्‍ट्र के बाद अब झारखंड का नाम भी जुड़ गया है। पहले भाजपा देश के 71 प्रतिशत भूभाग पर राज कर रही थी जो सिकुड़कर 35 फीसदी रह गया है। इसी तरह पहले देश की 68 फीसदी आबादी भाजपा सरकारों की छाया तले थी जो अब कम होकर 43 फीसदी रह गई है।

2014 में जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व में लोकसभा की 282 सीटें जीतकर केंद्र में अपनी सरकार बनाई थी उस समय उसकी देश के सिर्फ 7 राज्यों में सरकार थी। उसके बाद से भाजपा की राजनीतिक सत्‍ता का विस्‍तार होना शुरू हुआ। 2015 में उसके पास 13 राज्य हुए, 2016 में ये बढ़कर 15 हो गए, 2017 तक 19 राज्य और 2018 में देश के 21 राज्यों में भाजपा सत्‍ता में आ चुकी थी। यह उसकी चरम स्थिति थी।

लेकिन 2018 का अंत आते आते राज्‍यों में उसकी सत्‍ता का क्षरण शुरू हो गया और आज स्थिति यह है कि भाजपा अपने बूते पर सिर्फ 11 राज्‍यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, गोवा और असम में सरकार में है जबकि मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड, सिक्किम, बिहार में वह सहयोगी दलों (एनडीए) के साथ सत्‍ता में है। तमिलनाडु में एनडीए की सहयोगी एआईएडीएमके की सरकार है। इन राज्‍यों में से भी कर्नाटक, मणिपुर, गोवा और हरियाणा में भाजपा ने किस तरह सरकार बनाई है यह किसी से छिपा नहीं है।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भले ही अपने दावे के मुताबिक अबकी बार 300 पार का नारा पूरा कर लिया हो लेकिन राज्‍यों में वह लगातार सिकुड़ती जा रही है। कोंडाणा की लड़ाई में अपने सेनापति तानाजी के मारे जाने पर छत्रपति शिवाजी ने कहा था- ‘‘गढ़ आला पण सिंह गेला’’ यानी गढ़ तो हमने जीत लिया पर मेरा शेर जैसा सेनापति शहीद हो गया। भाजपा ने नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंद्र में प्रचंड बहुमत के साथ अपनी सरकार तो बना ली है लेकिन राज्‍यों में उसकी जो स्थिति होती जा रही है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि ‘‘सिंह आला पण गढ़ गेला…’’

झारखंड की हार के बाद भाजपा नेताओं से स्‍वाभाविक सवाल पूछा गया कि क्‍या यह केंद्र सरकार की रीति-नीतियों और केंद्रीय नेतृत्‍व की हार नहीं है, तो जवाब आया कि नहीं ऐसा नहीं है। खुद पराजित मुख्‍यमंत्री रघुवरदास का बयान था कि यह मेरी पराजय है केंद्र की नहीं। भाजपा अपना मन समझाने, पार्टी को फजीहत से बचाने, आला नेताओं की नाराजी से बचने जैसे किसी भी कारण से भले ही यह कह दे कि यह विशुद्ध प्रदेश का मामला और प्रादेशिक नेताओं की हार है, लेकिन इससे केंद्रीय नेतृत्‍व पर पड़ने वाले छींटे रुक नहीं जाते।

दरअसल भाजपा जिस तरह केंद्र की राजनीति में लीन होती जा रही है वह हैरान कर देने वाला है। बड़ा सवाल यह है कि क्‍या पार्टी ने सोच लिया है कि उसे सिर्फ केंद्र में सत्‍ता में आने से मतलब है, राज्‍य यदि हाथ से निकल रहे हैं तो निकलते रहें। यह सवाल इसलिए है क्‍योंकि जिस तरह वह राज्‍यों में चुनाव लड़ रही है और उसके सहयोगी लगातार उससे छिटकते या असहज होते जा रहे हैं इस स्थिति ने राज्‍यों में उसके प्रभाव और राजनीतिक मारक क्षमता को बहुत हद तक कम किया है। महाराष्‍ट्र में बरसों पुरानी शिवसेना को नाराज कर सत्‍ता गंवाने के बाद झारखंड में आजसू जैसे सहयोगियों को अलग कर, 81 में से 65 सीटें जीत लेने का दावा करते हुए अकेले अपने बूते पर चुनाव लड़ना मुगालते के अलावा और क्‍या कहा जा सकता है।

ऐसा लगता है कि पार्टी अपने संगठन तंत्र को भी सत्‍ता तंत्र की तरह से संचालित कर रही है। भारत के सत्‍ता तंत्र में केंद्र सर्वशक्तिमान है उसी तरह भाजपा में क्षेत्रीय संगठन और क्षेत्रीय नेताओं का महत्‍व लगातार कम होता जा रहा है। इस स्थिति ने उसकी मैदानी पकड़ और समझ दोनों पर असर डाला है। जब केंद्र के सवाल पर पार्टी के नेता यह कहते हैं कि देश की सरकार और राज्‍य की सरकार चुनते समय मतदाता अलग अलग तरीके से व्‍यवहार करता है तो लगता है कि भाजपा में सबकुछ ‘केंद्रित’ ही है।

आने वाले समय (2020) में भाजपा को दिल्‍ली और बिहार में विधानसभा चुनाव की अग्नि परीक्षा से गुजरना है। उसके बाद 2021 में  तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, असम, केरल और पुडुचेरी में चुनाव होंगे। अलग अलग कारणों से ये सभी राज्‍य भाजपा की राजनीति को कसौटी पर कसने वाले होंगे। इनमें एक ओर जहां उसे अपने धुर विरोधियों का सामना करना होगा वहीं क्षेत्रीय दलों का भी। तमिलनाडु और बिहार जैसे राज्‍यों में उसे सहयोगी दलों जेडीयू और एआईएडीएमके से तालमेल बिठाना होगा तो पश्चिम बंगाल में खांटी रीजनल नेता ममता बैनर्जी से उसकी भिडंत होगी। सामाजिक और स्‍थानीय समीकरणों के लिहाज से केरल और असम उसके लिए अग्नि परीक्षा साबित होंगे।

महाराष्‍ट्र और झारखंड के परिणामों ने भाजपा के सामने यह यक्ष प्रश्‍न भी खड़ा कर दिया है कि वह राज्‍यों में खुद के बूते पर चुनाव लड़ने का जोखिम ले या फिर सहयोगी दलों को मना पुचकारकर उनके साथ चुनाव मैदान में उतरे। इन दो राज्‍यों के घटनाक्रम ने भाजपा के सहयोगी दलों के हौसले भी बढ़ाए हैं और जाहिर है उनका दबाव और बढ़ेगा। इस दबाव से तगड़ा सामना आने वाले कुछ ही महीनों के भीतर बिहार में नी‍तीश कुमार के साथ होगा। देखना होगा भाजपा नीतीश के साथ कैसे और क्‍या डील करती है?

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