आज जो बात मैं करने जा रहा हूं उसके बारे में मुझे यह अच्छी तरह से पता है कि ऐसी बातों का अब न तो कोई मतलब रहा है और न ही किसी को इससे कोई फर्क पड़ता है। खासतौर से बेशर्मी को ही अपनी सर्वोच्च नीति मान लेने वाले राजनीतिक दलों को तो बिलकुल भी नहीं। फिर भी यह हमारा कर्तव्य बनता है कि बात को कहने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करें।
बात ‘विचारधारा’ और ‘मूल्यों’ की है। हालांकि ये दोनों शब्द भी इन दिनों सच्चे अर्थों में पूरी तरह अप्रासंगिक हो गए हैं। फिर भी गाहे-बगाहे इनका इस्तेमाल राजनीतिक पैंतरेबाजी के लिए हो जाता है। ऐसा ही ताजा मामला भोपाल संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सांसद प्रज्ञासिंह ठाकुर से जुड़ा है जिन्होंने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को लेकर संसद में फिर वैसी ही विवादास्पद टिप्पणी की जैसी टिप्पणी संसद के बाहर करने पर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें फटकार लगा चुके थे।
दूसरा मामला महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में बनी शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस सरकार के गठन का है। यह एक ऐसा गठजोड़ है जिसमें सरकार का नेतृत्व करने वाली पार्टी और उसका सहयोग करने वाली पार्टियां वैचारिक रूप से न सिर्फ दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी रही हैं बल्कि उन्होंने एक दूसरे का घोर विरोध भी किया है। शिवसेना जहां घोर हिन्दुत्ववादी विचारधारा पर चलती रही है वहीं कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता पर।
लेकिन अब ये सारी बातें गड्डमड्ड हो चली हैं। अब किसी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी विचारधारा क्या थी या क्या है याकि वे किन मूल्यों की राजनीति करते आए हैं। अब सिर्फ सत्ता ही असली और एकमेव विचारधारा है। लेकिन इसके बावजूद कई बार विचारधारा और मूल्य आपके सामने इतना बड़ा प्रश्न बनकर खड़े हो जाते हैं कि उनसे बचना मुश्किल हो जाता है।
पहले प्रज्ञा ठाकुर का ही मामला ले लें। भाजपा जब तक सत्ता में नहीं थी तब तक विचार के स्तर पर उसके कार्यकर्ताओं में गांधी और गोडसे को लेकर कोई और भाव था। सार्वजनिक रूप से वहां गांधी की हत्या को गलत तो ठहराया जाता था लेकिन गोडसे को उस तरह से अपराधी भाव से भी नहीं देखा जाता था। इसके पीछे आजादी के आंदोलन के दौरान घटी घटनाओं और खासतौर से भारत के विभाजन की परिस्थितियों से उपजी प्रतिक्रिया को कारण बताया जाता था।
भाजपा जब तक विपक्ष में रही तब तक उसे ऐसे धर्मसंकटों का सामना उतना नहीं करना पड़ा जितना उसे सत्ता में आने के बाद करना पड़ रहा है। खासतौर से गांधी को लेकर। भाजपा जानती है कि उसकी अपनी विचारधारा चाहे जो रही हो लेकिन भारत की सरकार में बैठकर वह गांधी को खारिज करने या उनके विरोध का जोखिम मोल नहीं ले सकती। इसीलिए लोकसभा चुनाव के दौरान जब प्रज्ञा ठाकुर ने गोडसे को ‘देशभक्त’ बताने वाला बयान दिया था तब चौतरफा हुई आलोचनाओं के बाद खुद नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा था कि मैं प्रज्ञा को दिल से कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।
अभी जब संसद में प्रज्ञा ठाकुर ने दोबारा वही हरकत की तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी हो गई और डैमेज कंट्रोल के लिए न सिर्फ प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा संसदीय दल की बैठक में आने से रोक दिया गया बल्कि उन्हें रक्षा मामलों की संसदीय समिति से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। संसद में विपक्ष के भारी विरोध के बाद रक्षा मंत्री और सदन के उपनेता राजनाथसिंह को कहना पड़ा कि ”नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहना तो दूर, उन्हें देशभक्त मानने की सोच की भी हमारी पार्टी निंदा करती है। महात्मा गांधी की विचारधारा हमेशा प्रासंगिक थी, है और रहेगी।”
अब दूसरा मामला महाराष्ट्र का लें। 28 नवंबर को शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह रही कि सरकार को सहयोग देने के बावजूद कांग्रेस नेतृत्व यानी गांधी परिवार का कोई सदस्य शपथग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुआ। जबकि सोनिया गांधी को न्योता देने खुद उद्धव के बेटे आदित्य ठाकरे दिल्ली पहुंचे थे। इसके बावजूद मुंबई के शिवाजी पार्क में शपथ ग्रहण के उस विशाल मंच पर न सोनिया थीं, न राहुल, न प्रियंका और न ही डॉ. मनमोहनसिंह।
समारोह में शामिल होने के बजाय सोनिया, राहुल और मनमोहनसिंह ने अपनी मौजूदगी पर असमर्थता और खेद जताते हुए उद्धव को चिट्ठी के जरिये शुभकामनाएं भेज दीं। सोनिया गांधी ने जहां चिट्ठी में राजनीति को भाजपा से अभूतपूर्व खतरे की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि देश का वातावरण जहरीला हो चुका है वहीं राहुल गांधी ने उम्मीद जताई कि यह गठबंधन महाराष्ट्र के लोगों को एक स्थायी, धर्मनिरपेक्ष और गरीबों का हित देखने वाली सरकार देगा।
अब यदि आप इन दोनों मामलों को कुरेदने की कोशिश करें तो दोनों में ही आपको एक तरफ भाजपा का और दूसरी तरफ कांग्रेस का विचारधारा से जुड़ा अतर्द्वंद्व या धर्मसंकट साफ दिखाई देगा। भाजपा का मूल विचार चाहे जो रहा हो लेकिन देशकाल और परिस्थितियों के चलते उसे प्रज्ञा ठाकुर के बयान से किनारा करना पड़ा और कहना पड़ा कि ‘’हम गोडसे को देशभक्त मानने वाली सोच की भी निंदा करते हैं। महात्मा गांधी की विचारधारा हमेशा प्रासंगिक थी, है और रहेगी।”
दूसरी तरफ उद्धव की शपथ वाले मामले में गांधी परिवार के शामिल न होने की वजह आप को राहुल गांधी की चिट्ठी में मिलेगी जिसमें उन्होंने उम्मीद जताई है कि ‘महाविकास अघाड़ी’ यानी शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस का यह गठबंधन महाराष्ट्र को एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ सरकार देगा। एक घोर हिन्दूवादी विचारधारा को लेकर बनी और आगे बढ़ी पार्टी शिवसेना इस ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को किस तरह ग्रहण करेगी और कांग्रेस की ‘धर्मनिरपेक्ष’ अपेक्षा पर वह कितनी खरी उतरेगी यह उसके लिए बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि उसके सामने भी इस मामले में वैसा ही विचारधारा का धर्मसंकट होगा।
कांग्रेस नेतृत्व ने तो शपथ ग्रहण समारोह के ‘ऐतिहासिक’ फोटो से खुद को अलग करके और उद्धव ठाकरे से ‘धर्मनिरपेक्ष’ सरकार की अपेक्षा कर अपने को बचाने की कोशिश कर ली, लेकिन देखना होगा कि एक समय गांधी के बजाय देश में गोडसे की प्रतिमाएं स्थापित करने की मांग करने वाले छगन भुजबल को सरकार में मंत्री बनाने और अपने मुखपत्र सामना में नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ बताने वाली शिवसेना खुद को कैसे बचा पाती है।