क्या विडंबना है। एक तरफ देश की राजधानी दिल्ली स्मॉग के प्रदूषण से हलकान हो रही है। वहां लोगों के ठीक से सांस लेने तक की स्थिति भी नहीं बची है। खबरों में इसका कारण दिल्ली के आसपास के राज्यों जैसे हरियाणा, पंजाब और उत्तरप्रदेश में किसानों द्वारा खेतों में जलाई जा रही पराली से उठे धुंए को बताया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों इस मामले में तीनों राज्यों के मुख्य सचिवों को तलब किया था और उन्हें जमकर फटकार लगाई थी कि वे पराली की समस्या का कोई निदान नहीं खोज पाए हैं।
दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से एक खबर आई है जो कहती है कि सतपुड़ा टाइगर रिजर्व क्षेत्र के नयागांव में लगे महुआ के एक पेड़ से लिपट कर लोग अपनी बीमारियां दूर करने का जतन कर रहे हैं। इस पेड़ के बारे में यह अफवाह फैल गई है कि इसे गले लगाने या इससे लिपटने पर बीमारियां दूर हो जाती है। इसके बाद तो इस पेड़ से लिपटने वालों का तांता लगा हुआ है। लोग हजारों की संख्या में अपनी बीमारियां दूर करने, इस पेड़ से लिपटने के लिए वहां पहुंच रहे हैं।
आलम यह है कि लोगों की इतनी बड़ी संख्या को देखते हुए वहां पुलिस और प्रशासन को कानून व्यवस्था बनाए रखने के विशेष इंतजाम करने पड़े हैं। पुलिसवाले पेड़ के पास तैनात होकर लोगों को लाइन लगवाकर पेड़ से लिपटने की व्यवस्था में लगे हैं। उधर इतनी बड़ी संख्या में लोगों की आवाजाही ने बाजार को भी अच्छा मौका दे दिया है और वहां नारियल, फूल, धूपबत्ती आदि की दुकानें सज गई हैं। कुछ लोग पेड़ का फोटो फ्रेम में लगाकर बेचने लगे हैं।
भारी संख्या में लोगों की आवाजाही से सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के वन्यजीवन को गंभीर खतरा पैदा हो गया है। आने वाले लोग अपने साथ पॉलीथीन की थैलियां और अन्य सामग्री ला रहे हैं और उसे वहीं जंगल में फेंककर जा रहे हैं। ऐसे में वन विभाग के अमले को इस कूड़े को समेटने में पसीना आ रहा है। चूंकि इस मामले को लोगों की आस्था से जोड़ दिया गया है इसलिए प्रशासन भी लोगों को रोकने के लिए कोई सख्त कार्रवाई करने से कतरा रहा है।
बताया जाता है कि इस सारी कहानी का केंद्र नयागांव का ही एक किसान रूपसिंह ठाकुर है। रूपसिंह का एक वीडियो भी काफी वायरल हो रहा है। इसमें रूपसिंह टाइगर रिजर्व के ही एक बीट गार्ड को बता रहा है कि एक दिन मैं अपने घर जा रहा था कि रास्ते में पड़ने वाले महुआ के इस पेड़ ने अचानक मुझे अपनी तरफ खींच लिया। मैं वहां करीब दस मिनिट तक चिपका रहा। जब उसने मुझे छोड़ा तो मुझे अपने पैरों की तकलीफ में काफी राहत महसूस हुई। पैर की लचक गायब हो गई थी। इसके बाद मैं हर रविवार और बुधवार को पेड़ की पूजा करने आने लगा और अब मैं पूरी तरह ठीक हूं।
रूपसिंह की यह कहानी देखते ही देखते चारों तरफ फैल गई और अब तो अस्थमा, फ्रेक्चर, किडनी और अन्य कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त लोग भी चंगे होने के लिए यहां आने लगे हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे मरीज भी हैं जिन्हें उनके परिजन ऑक्सीजन सिलेंडर और ग्लूकोज की बोतल लगी हुई अवस्था में ही लेकर आ रहे हैं। आने वालों में महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान तक के लोग हैं। अधिकारियों का कहना है कि ऐसे मरीजों के लिए यह बात जानलेवा हो सकती है।
ये बड़ी अजीब स्थितियां हैं। एक तरफ किसान पर्यावरण प्रदूषण की चिंता किए बगैर, आसान विकल्प ढूंढते हुए खेतों में फसल कटाई के बाद बच गई पराली को वहीं जलाकर खेत को साफ कर रहे हैं तो दूसरी तरफ अंधविश्वास का शिकार होकर लोग बीमारियों से निजात पाने के लिए पेड़ से लिपटने के लिए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर नयागांव पहुंच रहे हैं।
ये घटनाएं बताती हैं कि समाज में आज भी जागरूकता की कितनी कमी है। लोग आज भी किस कदर अंधविश्वास का शिकार हैं। इस घटना को देखकर बरबस ही ‘चिपको आंदोलन’ याद आ गया। 1970 में तत्कालीन उत्तरप्रदेश के चमोली जिले (अब उत्तराखंड) में स्थानीय लोगों ने पेड़ों की कटाई के विरोध में यह आंदोलन शुरू किया था। वन विभाग के ठेकेदारों द्वारा की जाने वाली कटाई का विरोध करने और पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपक कर खड़े हो जाते थे ताकि पेड़ों पर कुल्हाड़ी न चलाई जा सके।
एक दशक के अन्दर यह आंदोलन पूरे उत्तराखण्ड क्षेत्र में फैल गया था। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी खसियत यह थी कि इसमें महिलाओं ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। आंदोलन का नेतृत्व करने वाली गौरादेवी की अगुवाई में रेणी गांव की 27 महिलाओं ने प्राणों की बाजी लगाकर पेड़ कटाई की कोशिशों को असफल कर दिया था। इस आंदोलन से भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डीप्रसाद भट्ट आदि बहुत सक्रियता से जुड़े थे। आन्दोलन को उस समय बहुत बड़ी जीत हासिल हुई थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 सालों के लिए रोक लगा दी थी।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने पर्यावरण के मुद्दे को देश की राजनीति के एजेंडे में ला दिया। 1980 का वन संरक्षण अधिनियम और केंद्र सरकार में पर्यावरण मंत्रालय के गठन का श्रेय भी चिपको आंदोलन को ही दिया जाता है। बाद के वर्षों में यह आन्दोलन बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और मध्यप्रदेश तक में फैल गया। पश्चिमी घाट और विंध्य पर्वतमाला में वृक्षों की कटाई रुकवाने में इस आंदोलन की प्रमुख भूमिका रही।
लेकिन उसी विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमाला के बड़े क्षेत्र को अपने में समेटे रखने वाले मध्यप्रदेश में आज करीब 40 साल बाद पेड़ से चिपकना पर्यावरण की रक्षा का नहीं बल्कि अंधविश्वास और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का सबब बनता नजर आ रहा है। निश्चित रूप से हमें आज पेड़ों को गले लगाने की जरूरत है, लेकिन किसी अंधविश्वास के चलते नहीं बल्कि पेड़ और उसके बहाने समूचे पर्यावरण को बचाने के लिए। हम जिस अंदाज में नयागांव के उस महुआ के पेड़ को गले लगा रहे हैं उससे न तो उसकी जान बचने वाली है और न ही हमारी।