बदलती अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू परिस्थितियों के बीच मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में सबसे बड़ी चुनौती देश की आर्थिकी को गिरने से बचाना है। अमेरिका का कड़ा रुख और चीन की चुनौती तो अपनी जगह हैं ही, इस बार कमजोर मानसून के कयासों ने आर्थिक जगत पर संकट और गहरा दिया हैं। इसके अलावा सरकार पर आने वाले समय में अपने चुनावी घोषणा पत्र के वायदों को पूरा करने के लिए अतिरिक्त खर्च का बोझ रहेगा सो अलग।
ऐसे में जब कोई यह कहे कि सरकार की माली हालत न सिर्फ बिगड़ी हुई है बल्कि उसने आर्थिक विकास (जीडीपी) के जो आंकड़े दिए हैं वे भी गलत हैं, तो चिंता होना लाजमी है। और यह कहने वाला यदि खुद सरकार का ही पूर्व आर्थिक सलाहकार हो तो यह सवाल सहज ही मन में उठता है कि सरकार इन आंकड़ों को छिपा कर या उन पर मनमाना रंग पोत कर आखिर कौनसा लक्ष्य हासिल करना चाहती है?
जी हां, मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यन ने यह दावा किया है कि सरकार ने जीडीपी के जो आंकड़े जारी किए हैं वे फर्जी हैं। हार्वर्ड विश्विद्यालय द्वारा प्रकाशित अपने शोध पत्र में उन्होंने कहा है कि जीडीपी की गणना के लिए अपनाए गए नए पैमानों के चलते 2011-12 से 2016-17 के बीच आर्थिक वृद्धि दर औसतन 2.5 फीसदी ऊंची हो गई। भारत की सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर इस अवधि में 4.5 प्रतिशत रहनी चाहिए, जबकि आधिकारिक अनुमान में इसे करीब 7 प्रतिशत बताया गया है।
अरविंद सुब्रमण्यन के इस दावे के बाद सरकार में खलबली मची और मंगलवार को ताबड़तोड़ सरकार की ओर से सफाई दी गई कि सुब्रमण्यन जो कह रहे हैं वह सही नहीं है। जीडीपी के आंकड़ों को बढ़ा चढ़ाकर बताए जाने की बात को खारिज करते हुए सरकारी बयान में कहा गया कि इस गणना में उचित तरीके अपनाए गए। देश के आर्थिक विकास का अनुमान ‘स्वीकृत प्रक्रियाओं, कार्यप्रणाली और उपलब्ध आंकड़ों’ पर आधारित है।
सरकार की सफाई अपनी जगह है लेकिन सुब्रमण्यन लिखते हैं कि विनिर्माण एक ऐसा क्षेत्र है जहां सही तरीके से आकलन नहीं किया गया। इसका प्रभाव यह है कि सुधारों को आगे बढ़ाने की गति संभवत: कमजोर हुई। आने वाले समय में आर्थिक वृद्धि को पटरी पर लाना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होना चाहिए और जीडीपी अनुमान पर फिर से गौर किया जाना चाहिए। मोदी सरकार ने सुब्रमण्यन का कार्यकाल मई 2019 तक आगे बढ़ाया था, लेकिन वह अगस्त 2018 में ही इस पद से हट गए थे।
चूंकि सरकार में इस तरह की सूचनाओं के वास्तविक स्रोत वॉटर टाइट हैं इसलिए कहना मुश्किल है कि सुब्रमण्यन सही हैं या सरकार की सफाई। लेकिन सामान्य बुद्धि से देखें तो सवाल उठता है कि जो व्यक्ति खुद उसी सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार रहा हो, वह बिना वजह सरकार की आलोचना क्यों करेगा? यह तो एक तरह से उसके खुद के कामकाज पर भी विपरीत टिप्पणी है।
इसमें भी दो बातें उठती हैं। या तो सरकार का मुख्य आर्थिक सलाहकार रहते हुए सुब्रमण्यन सरकार को सही सलाह नहीं दे पाए या फिर सरकार ने उन्हें सलाहकार के रूप में तो रखा पर उनकी सलाह को कोई तवज्जो नहीं दी। लेकिन दोनों ही सूरत में नुकसान देश का ही हुआ है। क्योंकि यदि सलाहकार सक्षम नहीं था तो आपने उसे रखा ही क्यों और यदि सक्षम था तो उसकी सलाह मानी क्यों नहीं?
मैं इसी कॉलम में अभी कुछ दिन पहले ही लिख चुका हूं कि आंकड़ों को लेकर इस सरकार का ट्रैक रिकार्ड अच्छा नहीं है। चुनाव के दौरान जब विपक्ष ने देश में बेरोजगारी के आंकड़े देते हुए सरकार पर कमजोर प्रदर्शन का आरोप लगाया था तो कहा गया था कि विपक्ष हवा हवाई बातें कर रहा है उसके पास वास्तविक आंकड़े नहीं हैं।
पर चुनाव खत्म होते ही श्रम मंत्रालय ने देश में बेरोजगारी के जो आंकड़े जारी किए वे हूबहू वही थे जो विपक्ष ने चुनाव से पहले दिए थे। श्रम मंत्रालय की ओर से 31 मई को जारी आंकड़ों में बताया गया था कि देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा है। वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान यह 6.1 फीसदी रही। रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ था कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में बेरोजगारी की दर अधिक है।
ऐसा ही मामला अभी हाल ही में देश में अलग अलग राज्यों में बच्चियों के साथ हुई दुष्कर्म की घटनाओं से जुड़ा है। जब अलीगढ़ से लेकर उज्जैन और भोपाल तक की खबरें मीडिया में छाई हुई थीं उसी समय भोपाल के गैर सरकारी संगठन विकास संवाद के प्रतिनिधि सचिन जैन ने लगातार कई ट्वीट कर बताया था कि सरकार ने बच्चों से लैंगिक शोषण का मामला ही खतम कर दिया है, क्योंकि उसने 2016 से नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े ही जारी नहीं किए हैं। उनके मुताबिक किसानों की आत्महत्याओं के आंकड़ों के मामले में भी यही हुआ है। एनसीआरबी ने भारत में अपराध पर 3 साल से और आत्महत्या की स्थिति पर 4 साल से रिपोर्ट जारी नहीं की है।
सरकार के कामकाज को परिलक्षित करने वाले आंकड़ों से संबंधित ये मामले इसलिए भी गंभीर हैं क्योंकि इनसे सरकार की विश्वसनीयता का मसला जुड़ा है। एक तरफ तो चहुंओर पारदर्शिता के साथ साथ मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस की बात हो रही है, दूसरी तरफ लोगों से यह भी छिपाया जा रहा है कि आखिर सरकार की नीतियों के चलते देश में क्या बदलाव हो रहा है। और जो हो रहा है वह सकारात्मक है या नकारात्मक?
सोचने वाली बात तो यह भी है कि सरकार के सलाहकार रहे लोग या सरकार के मंत्रालय ही सरकार की पोल खोल रहे हैं।