तो एक्जिट पोल का गिरगिट कभी का रंग बदल चुका होता

पिछले 24 घंटों से देश के खबरिया (?) टीवी चैनलों में सिर्फ और सिर्फ एक्जिट पोल की ही चर्चा है। एनडीए तमाम सारे पोल्‍स को देखकर गदगद मुद्रा में है तो यूपीए और बचाखुचा मोर्चा सकते में। किसी के समझ में नहीं आ रहा कि प्रतिक्रिया क्‍या दें। उधर चैनल वाले प्रतिक्रिया लेने पर आमादा हैं। कुछ भी बोलिये पर बोल दीजिए… चूंकि हरेक ने सबसे सटीक, सबसे विश्‍वसनीय, सबसे तेज, सबसे लंबा-चौड़ा-ऊंचा-नीचा-आड़ा-तिरछा टाइप का एक्जिट पोल किया है,  इसलिए सबकी ख्‍वाहिश है कि उसके पोल के बारे में सामने वाला फेवरेबल किस्‍म की कोई बाइट दे दे…

असली परिणाम आने में अभी दो दिन और बाकी हैं लेकिन कुछ लोग हैं जो अभी से बल्लियों उछल रहे हैं और कुछ हैं जो या तो सिर छुपाने के लिए रेत ढूंढ रहे हैं या फिर इन एक्जिट पोल्‍स को खारिज करने का बहाना। एक्जिट पोल पर दी जाने वाली प्रतिक्रियाओं के भी कुछ पैटर्न सेट हैं। पोल यदि आपके फेवर में हुआ तो आपको धीर गंभीर मुद्रा अपनानी है और यदि प्रतिकूल हुआ तो उसे दो दिशाओं में ले जाना है। पहली दिशा है- ये सब फर्जी है, पैसे देकर करवाया गया है और दूसरी दिशा, जो पिछले कुछ सालों में लोकप्रिय हुई है, वह कहती है कि सारा दोष ईवीएम का है। और ठीक इसी पैटर्न पर प्रतिक्रियाएं आ रही हैं।

खैर जो भी हो, इतना तो तय है कि एक्जिट पोल्‍स ने विपक्षी दलों की नींद तीन-चार दिनों के लिए तो जरूर उड़ा दी है। उधर इन ‘निर्गमित नतीजों’ को लेकर सोशल मीडिया के शिकारी भी दो फाड़ हो गए हैं। एक तरफ ‘हर्ष फायर’ करते हुए इन पर जश्‍न मनाया जा रहा है तो दूसरी तरफ अंतिम संस्‍कार वाले ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ जैसे फायर हो रहे हैं। स्‍यापे की मुद्रा में एक्जिट पोल को ‘बिकाऊ मीडिया’ का माल करार देते हुए खारिज किया जा रहा है।

पर ये एक्जिट पोल भले ही मीडिया का शगल हों, कुछ एक्टिविस्‍ट पत्रकारों के हिसाब से भले ही यह टीवी बंद कर देने का समय हो, लेकिन अंतिम नतीजे आने से पहले, इन एक्जिट पोल के गणित और उनके मनोविज्ञान को लेकर मैं अपने कुछ सवाल और अपनी कुछ जिज्ञासाएं आपसे साझा करना चाहता हूं। हो सकता है ये सवाल और ये जिज्ञासाएं इस बात का पता लगाने में कुछ मदद कर सकें कि एक्जिट पोल्‍स वाकई सिर्फ छिलका हैं या फिर उनमें कुछ गूदा भी है।

सबसे पहले तो यह याद रखिए कि 17 वीं लोकसभा के लिए सात चरणों में पूरी होने वाली मतदान प्रक्रिया 11 अप्रैल से शुरू होकर 19 मई को खत्‍म हुई। यानी एक महीने से ज्‍यादा चली। जाहिर है देश के करीब-करीब सभी प्रमुख टीवी चैनलों ने एक्जिट पोल दिखाने के लिए तैयारियां कर रखी होंगी और इसके लिए उन्‍हें पर्याप्‍त समय भी मिला। प्रत्‍येक चरण का एक्जिट पोल अलग-अलग किया गया होगा यानी अमुक चरण में मतदाताओं का रुझान क्‍या रहा, यह संबंधित टीवी चैनलों को वह चरण खत्‍म होने के बाद पता चल गया होगा। 19 मई की शाम 6 बजे से पहले एक्जिट पोल के प्रसारण पर चुनाव आयोग की बंदिश के चलते उन्‍होंने उसे दिखाया भले न हों, पर उनके पास ट्रेंड की जानकारी तो जरूर आ गई होगी।

यह भी तय है कि प्रत्‍येक चरण के खत्‍म होने के बाद उन तक पहुंचने वाली जानकारी का वे बारीकी से अध्‍ययन और विश्‍लेषण भी कर रहे होंगे। ऐसे में आज जो नतीजे मोदी या एनडीए की सरकार बनने के पक्ष में दिखाए जा रहे हैं, यदि उसके विपरीत कोई रुझान सामने आ रहा होता, तो इस एक महीने से अधिक के चुनाव अभियान के दौरान क्‍या इन चैनलों ने तत्‍काल पाला नहीं बदल लिया होता? जैसाकि अधिकांश प्रमुख चैनलों पर आरोप लगता रहा है कि वे पूरे समय मोदी का गुणगान करते रहे, तो यदि उन्‍हें हवा का रुख मोदी या एनडीए के खिलाफ दिखाई देता तो क्‍या वे यह गुणगान करना जारी रखते?

याद रखिये। आज का मीडिया पत्रकारिता नहीं ‘धंधा’ कर रहा है। कई चैनलों के मालिक मीडिया घराने तो ऐसे हैं जिनका अरबों रुपया इस धंधे और इस धंधे के जोर पर खड़े किए गए अन्‍य कई धंधों में लगा है। ऐसे में यदि उन्‍हें जरा सी भी भनक लगी होती कि सरकार मोदी या एनडीए की नहीं बनने वाली, तो तय मानिए कि वे बिना एक सेकंड गंवाए दूसरे पाले में जा खड़े होकर, उसका गुणगान करने लगते।

एक्जिट पोल की सीमाओं, उसकी विश्‍वसनीयता, उसके आंकड़ों आदि पर सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इस बात पर सवाल उठने की कोई गुंजाइश ही नहीं बनती कि यदि राजनीति की दिशा बदल रही होती तो ये सारी दुकानें आज जिस चौपाटी पर लगी हैं वे किसी और चौराहे पर सजी नजर आतीं।

एक बार को यदि हम यह भी मान लें कि सत्‍तारूढ़ दल ने इन चैनलों को खरीद लिया होगा या उन पर बहुत बड़ा दबाव बनाया गया होगा, तब भी मैं उस फिल्‍मी डायलॉग से सहमत नहीं होऊंगा कि बेईमानी का धंधा भी ईमानदारी से चलता है। मेरे हिसाब से बेईमानी का धंधा बेईमानी से ही चलता है और पैसा लेने के बावजूद धंधे का भविष्‍य देखते हुए ये लोग पाला बदल चुके होते।

रही डर की बात तो आप क्‍या समझते हैं, एनडीए या मोदी की जगह यदि दूसरी सरकार आए तो क्‍या वह मोदी का गुणगान करने के ‘अपराध’ में इन मीडियावालों को छोड़ देगी? नहीं, वह भी उनके साथ वैसा ही सलूक करेगी जैसा किसी दुश्‍मन के साथ किया जाता है। यानी पैसे का दबाव नहीं भी होता, तो भी क्‍या एक्जिट पोल में गलत आंकड़े दिखाने की स्थिति में, गैर मोदी या गैर एनडीए सरकार आ जाने पर उसका डंडा चलने का डर भी नहीं होता? जरूर होता, और वह डर इन चैनलों को अपनी चाल ढाल बदलने को मजबूर कर देता।

यदि यह सब नहीं हुआ है तो क्‍या यह मानकर नहीं चला जाना चाहिए कि लगभग सारे के सारे चैनल एनडीए के दुबारा सरकार में आने की ये जो संभावना या आशंका जता रहे हैं उसमें कुछ तो दम होगा। दम नहीं होता तो वे अपना दम निकल जाने की हद तक जाकर ऐसी रिस्‍क नहीं लेते। हम राजनेताओं को रंग बदलने का दोष देते हैं, लेकिन इन दिनों मीडिया से बड़ा गिरगिट कोई नहीं… यह गिरगिट कभी का रंग बदल चुका होता और उसका रंग आपको एक्जिट पोल्‍स में साफ दिखाई भी देता। यदि वह रंग नहीं बदल रहा तो क्‍या यह इस बात का संकेत नहीं कि जो रंग वह दिखा रहा है उसीमें अपने धंधे का भी भविष्‍य और भलाई देख रहा है। धंधे की कीमत पर रिस्‍क कौन लेता है भला? और यदि मीडिया ने यह रिस्‍क ली है तो उसे इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है।

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