क्‍या हम भी चुनाव में लोगों की बलि लेना चाहते हैं?

लोकसभा चुनाव में मतदान के सात चरणों में से चार चरण पूरे हो चुके हैं। जुबानी हिंसा से लेकर जमीनी हिंसा तक सब कुछ इस दौरान हुआ है। और इसके साथ ही पिछले कुछ सालों से, खासतौर से 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्‍तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद से लगातार चर्चा में बना रहने वाला ईवीएम का मुद्दा भी उठा है।

चुनाव में ईवीएम के इस्‍तेमाल पर देश में काफी बहस हो चुकी है और यह सिलसिला अब भी जारी है। दरअसल जो भी दल चुनाव में अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाता वह अपनी झेंप मिटाने या यूं कहिए कि अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाए रखने के लिए यही कहता पाया जाता है कि, वह ईवीएम की गड़बड़ी का शिकार हुआ है।

17वीं लोकसभा के चुनाव के अभी तीन चरण और होने हैं, उसमें क्‍या-क्‍या होगा कहा नहीं जा सकता। उसके बाद परिणाम में क्‍या-क्‍या होगा इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल होता जा रहा है, क्‍योंकि मतदान का ट्रेंड और ज्‍यादा कन्‍फ्यूज करने वाला है। नतीजे चाहे जो हों उनके आ जाने के बाद भी एक बात तो तय है कि एक बार फिर ठीकरा ईवीएम के सिर तो फूटना ही है…

लेकिन इसी बीच एक खबर ने मेरा ध्‍यान खींचा जिस पर ईवीएम विरोधियों को विचार करना चाहिए। यह खबर इंडोनेशिया से आई है। वहां देश में पहली बार राष्‍ट्रपति पद के साथ साथ संसद के भी चुनाव कराए गए। दोनों चुनाव साथ कराने का कारण, चुनाव खर्च को कम करना बताया गया। बड़ी बात यह रही कि 16 अप्रैल को हुए मतदान के दौरान लोगों ने बैलेट पेपर के जरिए अपने प्रतिनिधि को चुना।

खबरें कहती हैं कि 26 करोड़ की आबादी वाले इंडोनेशिया में वोटरों की संख्‍या करीब 19.3 करोड़ है और इनमें से 80 फीसदी लोगों ने यानी लगभग 15 करोड़ 44 लाख लोगों ने मतदान किया। मतदान के लिए पूरे देश में आठ लाख केंद्र बनाए गए थे। मतदान हो जाने के बाद से मतगणना का काम चल रहा है और इसमें सरकारी और निजी दोनों मिलाकर करीब 70 लाख कर्मचारी लगे हैं। वोटों की गिनती 22 मई तक चलेगी।

लेकिन खबर यह नहीं है। खबर यह है कि मतगणना के दबाव और शारीरिक थकान के चलते अब तक मतों की गिनती करने वाले 270 लोगों की मौत हो गई है। इंडोनेशियाई चुनाव आयोग के प्रवक्ता के मुताबिक अब भी करीब 1900 कर्मचारी बीमार हैं। कई लोगों को अस्‍पताल में भरती करना पड़ा है। मतों की गिनती के दौरान मारे गए लोगों के परिजनों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए मुआवजे की मांग की है।

बताया गया है कि चुनाव आयोग ने मुआवजे की मांग मान ली है। लोगों का कहना है कि सरकार ने राष्‍ट्रपति और संसदीय दोनों चुनाव एकसाथ कराने का फैसला तो कर लिया लेकिन सरकारी तंत्र और चुनाव आयोग की व्‍यवस्‍थाएं इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं थीं। इसके लिए बड़े पैमाने पर अस्‍थायी कर्मचारियों की सेवाएं भी ली गईं।

अप्रशिक्षित लोगों के कारण मतों की गिनती का काम तो प्रभावित हुआ ही, मतगणना जैसे संवेदनशील और अत्‍यधिक शारीरिक व मानसिक दबाव वाले काम का आदी न होने के कारण लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य पर विपरीत असर पड़ा और उसका नतीजा इतने सारे लोगों की मौत के रूप में सामने आया।

इंडोनेशिया के सबक भारत जैसे देश के लिए महत्‍वपूर्ण हो सकते हैं। पहली बात तो यह कि हमारे यहां भी वर्तमान सरकार संसद और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत करती रही है। इसके पीछे भी चुनाव में होने वाला खर्चा कम करने की दलील दी जाती है। लेकिन 26 करोड़ की आबादी और 19 करोड़ मतदाताओं वाले इंडोनेशिया में जब यह हाल है तो सोचिए 130 करोड़ की आबादी और 90 करोड़ मतदाताओं वाले भारत में यदि एक साथ चुनाव कराए जाएं तो क्‍या होगा?

दूसरा मुद्दा बैलेट पेपर यानी कागजी मतपत्रों के जरिए मतदान कराने का है। ईवीएम पर गड़बड़ी का आरोप लगाने वाले दलों की मांग यही रहती है कि मतदान बैलेट पेपर के जरिये कराया जाए। जरा कल्‍पना करके देखिए कि 90 करोड़ मतदाताओं में से औसतन 70 फीसदी ने भी यदि मतदान किया तो कुल 63 करोड़ मतपत्र होते हैं। यदि संसद और विधानसभा दोनों के चुनाव साथ साथ कराए जाएं तो इनकी संख्‍या दोगुनी यानी 126 करोड़ होती है जो भारत की वर्तमान आबादी के लगभग बराबर है।

ऐसे में हाथ से मतों की गिनती के लिए कितने लोगों की जरूरत होगी और कितना इंतजाम करना पड़ेगा। जिन लोगों ने बैलेट पेपर से मतदान वाला समय देखा है वे बताएंगे कि चुनाव के नतीजे आने में चार चार दिन तक लग जाया करते थे। ज्‍यादा दूर क्‍यों जाएं, अपने मध्‍यप्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव का ही उदाहरण ले लें। जब ईवीएम से मतदान होने के बावजूद पूरे परिणाम आने में लगभग 24 घंटे लग गए थे तो मतों की हाथ से गिनती हो तो क्‍या होगा?

और फिर इंडोनेशिया में जो हुआ है वह तो और भी डरा देने वाला है। मतों की गिनती के दबाव के चलते 270 लोगों का मारा जाना कोई मामूली घटना नहीं हैं। चुनाव की पूरी प्रक्रिया ही बहुत दबाव वाली होती है। तमाम इंतजामों के बावजूद हमें आज भी चुनाव ड्यूटी में लगे लोगों के हार्टअटैक या अन्‍य कारणों से मरने की खबरें सुनने को मिलती रहती हैं। ऐसे में यदि ईवीएम को नकार कर बैलेट पेपर वाली व्‍यवस्‍था पर फिर से आएं तो अंदाज लगाया जा सकता है कि इसमें मानवीय क्षति की कितनी ज्‍यादा गुंजाइश होगी।

किसी सिस्‍टम की आलोचना करना बहुत आसान है। उसमें अपने हिसाब से नफे नुकसान का गणित देखना भी मनुष्‍य का स्‍वभाव है। लेकिन जब कोई सिस्‍टम बन जाता है तब उसे पूरी तरह खारिज करने के बजाय या पुराने सिस्‍टम पर लौटने का  दुराग्रह करने के बजाय कोशिश होनी चाहिए कि नए सिस्‍टम को कैसे और सुधारा जाए, कैसे उसे फुलप्रूफ बनाया जाए। ईवीएम से पहले के जमाने की ओर लौटने की बात करके क्‍या हम अपने चुनाव में भी इंडोनेशिया की तरह लोगों की बलि लेना चाहते हैं?

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