पिछले कुछ सालों में देश में और कुछ भले ही हुआ हो या न हुआ हो लेकिन राजनेताओं में गजब का दुस्साहस जरूर आ गया है। चुनाव जीतकर सरकार बना लेने वाले दल के नेता पहले भी चुनाव के बाद चौड़े होते थे, लेकिन उनकी चौड़ाई उनकी कमीज फाड़कर बाहर आती हुई नहीं लगती थी। पर अब राजनीतिक दुस्साहस चुनाव के दौरान वोट के लिए मतदाताओं को धमकाने तक पहुंच गया है।
रविवार को मैंने सुलतानपुर संसदीय क्षेत्र में, केंद्रीय महिला एव बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के उस चुनावी भाषण का जिक्र किया था जो उन्होंने वहां के मुस्लिमबहुल इलाके में दिया था। वोटरों से उनका कहना था कि-‘’अगर मैं मुसलमानों के बिना समर्थन के जीतती हूं और उसके बाद वे मेरे पास किसी काम के लिए आते हैं तो मेरा रवैया भी वैसा ही होगा।… हम भी कोई महात्मा गांधी की छठी औलाद नहीं हैं। ऐसा थोड़े ही है कि हम भी सिर्फ देते ही रहेंगे और चुनाव में मार खाएंगे।’’
इस बयान को लेकर चुनाव आयोग ने मेनका को नोटिस दिया है, लेकिन उसके बावजूद केंद्रीय मंत्री की दादागिरी जारी है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक एक रैली के दौरान मेनका ने एक बार फिर चेतावनी भरे लहजे में मतदाताओं से कहा कि जहां जितने वोट मिलेंगे, वहां पर विकास कार्यों का वर्गीकरण भी उसी हिसाब से किया जाएगा।
पीलीभीत में अपने बेटे वरुण गांधी के समर्थन में आयोजित रैली में उन्होंने कहा- ’’मापदंड यह होगा कि हम एक गांव के लिए ज्यादा काम करेंगे और दूसरे के लिए कम। हम गांवों को ए, बी, सी और डी कैटेगरी में बांटेंगे। जिन गांवों में हमें 80 फीसदी वोट मिलेंगे उसे ‘ए’ कैटेगरी, जिसमें 60 फीसदी वोट मिलेंगे उसे ‘बी’ कैटेगरी, जहां 50 फीसदी से कम वोट मिलेंगे उसे ‘सी’ कैटेगरी और जहां 50 फीसदी से भी कम वोट मिलेंगे उसे ‘डी’ कैटेगरी में रखा जाएगा।‘’
मेनका ने आगे कहा- ’सभी विकास कार्य ‘ए’ कैटेगरी के गांवों में सबसे पहले कराए जाएंगे। जब वहां के काम पूरे हो जाएंगे तब ‘बी’ कैटेगरी के गांवों में काम शुरू होगा और उसके बाद हम ‘सी’ कैटेगरी के क्षेत्रों का काम शुरू कराएंगे। इसलिए यह आपके ऊपर है कि आप ए, बी या सी में से क्या बनना चाहते हैं। हमें कोई भी ‘डी’ कैटेगरी में नहीं चाहिए क्योंकि हम यहां अच्छा करने आए हैं।‘’
आपको याद होगा कुछ ऐसा ही बयान उन्नाव से भाजपा के स्वनामधन्य प्रत्याशी साक्षी महाराज ने भी पिछले दिनों दिया था। उन्होंने कहा था-‘’मैं एक संन्यासी हूं और एक संन्यासी जब भिक्षा मांगता है और उसे भिक्षा नहीं मिलती तो गृहस्थी के पुण्य ले जाता है, आपने अगर एक संन्यासी को वोट नहीं दिया तो मैं अपने पाप आपको दे जाऊंगा।‘’
राजनीति का यह रूप न सिर्फ भयावह है, बल्कि इसे लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों के चुनाव की प्रक्रिया और उद्देश्य दोनों के नष्ट होने की शुरुआत के रूप में देखा जाना चाहिए। लोकतंत्र में जन प्रतिनिधि का चुनाव संसद या विधानसभा में उस क्षेत्र की नुमाइंदगी के लिए होता है न कि किसी सौदेबाजी या अड़ीबाजी के लिए। यह सीधे-सीधे मतदाताओं को धमकाने का मामला है। भाषा कोई भी हो, ऐसे बयानों का भावार्थ यह समझा जाना चाहिए कि अगर तुम लोगों ने मुझे वोट नहीं दिया तो तुम्हारी खैर नहीं…
एक समय था जब वोट पाने के लिए मतदाताओं की चिरौरी की जाती थी। आज भी दिखावे के लिए कई उम्मीदवार ऐसे मिल जाएंगे जो मतदाताओं के जूते उठाने, उनके बच्चों को गोद में लेने, उनके खेत में फसल काटने, अपने लकदक कपड़ों की परवाह किए बगैर झुग्गी झोपड़ी वालों से गले मिलने का स्वांग रचते हों। पर यह ट्रेंड अब बदल रहा है। अब गले मिलने की बात कम और वोट न मिलने पर गला काट लेने की बातें ज्यादा होने लगी हैं।
जिस तरह कोई भी जनप्रतिनिधि, किसी भी क्षेत्र से भले ही एक वोट से जीते, पर वह पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है, उसी तरह उसकी यह संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह समूचे क्षेत्र के प्रतिनिधि के तौर पर, सभी के लिए काम करे। उसे खुद को मिलने वाले वोटों के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव करने की इजाजत नहीं है। यदि वह ऐसा करता है तो जनप्रतिनिधि के तौर पर ली गई अपनी शपथ के उल्लंघन के साथ ही, संविधान और लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत भी काम करता है।
देश में अब तक हुए चुनावों पर नजर डाल लीजिए। ऐसा कभी नहीं हुआ जब कोई भी सरकार शत प्रतिशत मतदाताओं के समर्थन से चुनी गई हो। तो क्या सरकार यह कह सकती है कि वह उन्हीं लोगों का काम करेगी या जनकल्याणकारी योजनाओं का फायदा उन्हीं लोगों को देगी जिन्होंने उसे वोट दिया है? जिन्होंने वोट नहीं दिया व जाएं भाड़ में!
जाहिर है, अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ…, पर अब हो रहा है। अब मतदाताओं पर केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार चुनने का दबाव बनाया जाता है। केंद्र और राज्य में अलग अलग दलों की सरकारें हों तो उनका एक दूसरे के साथ वैसा व्यवहार कतई नहीं होता जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ या लोकतंत्र में एक प्रतिनिधि दूसरे प्रतिनिधि के साथ करता है, या कि उसे करना चाहिए… उलटे उनका व्यवहार ऐसा होता है मानो वे एक दूसरे के जनम जनम के दुश्मन हों और एक दूसरे को निपटाना ही उनका अंतिम लक्ष्य हो।
पिछले दिनों चाहे पश्चिम बंगाल हो या तमिलनाडु, मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़, सरकारों के रवैये से लेकर सरकारी मुलाजिमों और सरकारी संस्थाओं तक में यह बात साफ दिखाई दे रही है कि यदि आपने हमें वोट नहीं दिया, यदि आप हमारे समर्थक नहीं हैं तो फिर आपको जीने का अधिकार ही नहीं है…। यह कानून का नहीं वोटों के आतंक का राज है।
राजनीतिक तौर पर ‘मेरा वोटर और तेरा वोटर’ का यह बंटवारा, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे से भी ज्यादा खतरनाक, ज्यादा घातक है और इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए।