राकेश अचल
अमेरिका में आज शाम जब फेसबुक खोली तो एक मनहूस खबर मिली की हास्य सम्राट प्रदीप चौबे हमारे बीच नहीं रहे। प्रदीप चौबे के अचानक जाने की खबर मेरे लिए किसी वज्रपात से कम नहीं हैं। इस खबर से मेरे भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूटा है। मैं एक वाक्य में कहूँ तो-“एक कहकहे का अवसान हो गया।” एक ऐसा कहकहा जिसने देश की उदास और अवसादग्रस्त जनता को पूरे 45 साल हंसाया, गुदगुदाया और ठहाके लगाने की कला सिखाई।
प्रदीप चौबे आगरा के थे और छत्तीसगढ़ से भटकते हुए 1974 के आसपास ग्वालियर आये थे। मैं उनसे दो साल पहले ग्वालियर आ गया था। उन दिनों चौबे जी देना बैंक में पदस्थ थे और शिंदे की छावनी में कमलसिंह का बाग़ के पास रहते थे। चौबे जी अन्य चौबों की तरह स्वभाव से हंसोड़ तो थे ही बेजोड़ भी थे, एक बार जिससे मिलते उसे अपना बना लेते। तब चौबे जी हास्य कवि के रूप में मशहूर नहीं हुए थे। वे गंभीर व्यंग्य गजलें लिखते थे। मैंने भी तुकबन्दी शुरू कर दी थी।
प्रदीप जी का तब के नवगीतकार और गजलगो जहीर भाई से बड़ा याराना था। जहीर भाई छप्परवाला पुल के पास रहा करते थे, उनके घर के बाहर बंद पड़ी दूकान के पटियों पर हमारी मुलाकातें हुआ करतीं थीं। हम सब रोज कुछ न कुछ नया लिखते और एक-दूसरे को सुनाकर उसकी समीक्षा कर अपनी राह पकड़ लेते। ये सिलसिला लगातार अनेक वर्षों चला। हम सब स्थानीय कवि गोष्ठियों का अनिवार्य अंग थे। अब जलेस, प्रलेस तो था लेकिन कोई कहीं बंधा नहीं था। हम दोनों एक-दूसरे के प्रशंसक भी थे और आलोचक भी। जब तक आपस में रोज मिल न लें तब तक हमारा मन स्थिर नहीं होता था।
उन दिनों प्रदीप जी के अग्रज श्री शैल चतुर्वेदी का युग था। प्रदीप की पहचान शैल जी के अनुज के तौर पर ही थी लेकिन बहुत जल्द यानि 1985-86 के आसापस प्रदीप जी इस पहचान से मुक्त हो गए उनकी स्वतंत्र पहचान बन गयी। वे मंच की ओर और मैं अखबारों की ओर अग्रसर होते गए, लेकिन हमारी मैत्री लगातार प्रगाढ़ होती रही। देना बैंक में चौबे जी ने मेरा जो खाता खोला वो आज तक चालू है। ये खाता भी हमें जोड़े रखने का एक सूत्र था।
कवि प्रदीप चौबे को देना बैंक ने जीवन का आधार दिया लेकिन कविता ने यश और वैभव दोनों दिए। धीरे-धीरे उनके आवास पर निजी गोष्ठियां होने लगीं। प्रदीप जी ने विनयनगर में अपना आशियाना बनाया और नाम रखा ‘मौसम’। इस मौसम ने कविता के न जाने कितने मौसम शहर के काव्य प्रेमियों को दिखाए। देश के नामचीन्ह कवि, शायर इस मौसम में शामिल हुए और उनकी संस्था ‘आरम्भ’ एक प्रतीक बन गयी। वे सब अकेले दम पर करते थे लेकिन उनके पास समर्पित मित्रों की एक बड़ी टीम थी। उनकी टीम की सबसे सक्रिय सदस्य होती थीं उनकी धर्मपत्नी। वे कोई भी कार्यक्रम सम्पूर्णता के साथ करते थे। ये सिलसिला आकाशवाणी के समीप बने उनके आवास पर सतत जारी रहा। वे सिटी सेंटर इलाके में एक नया मौसम बनाना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने छह हजार वर्गफीट का एक भूखंड भी खरीदा था, उनका ये सपना उनके साथ ही चला गया।
प्रदीप जी लगातार ऊंचाइयां पाते गए लेकिन अपनी जड़ों से कभी नहीं कटे। देश के बाहर एक दर्जन से अधिक देशों में अपनी कविताओं के साथ गए और सराहे गए। वे जिसके प्रशंसक होते उसके लिए सारे आवरण हटा लेते और जब आलोचना करते तो खुलकर करते। इस गुण-अवगुण ने उन्हें दिया भी बहुत और उनसे छीना भी बहुत। 2006 में मेरे पहले रिपोर्ताज संग्रह ‘खबरों का खुलासा’ का सम्पादन उन्होंने खुद किया और वे जहां भी गए मेरे इस संग्रह की चर्चा करना नहीं भूले, उन्हें मेरी अनेक गजलें कंठस्थ थीं। उन्होंने अपने जितने भी संग्रह तैयार किये मुझे अवश्य दिखाए। मुझे उनका सबसे छोटा संग्रह ‘आलपिन’ हमेशा आकर्षित करता रहा। उन्होंने मेरे लघु संग्रह ‘कहती है चंबल’ प्रभावित होकर आलपिन का आकार तय किया था।
पिछले महीनों उनके छोटे बेटे की आकस्मिक मौत ने प्रदीप जी को भीतर ही भीतर तोड़ दिया था, लेकिन वे कभी इसे जाहिर नहीं करते। हमेशा कहते कि इस हादसे के लिए भगवान को दोष देने की जरूरत नहीं है क्योंकि दोष हमारा था। चार दशक पहले प्रदीप जी मेरे विवाह में बाराती भी थे और जमकर नाचे भी थे। वे सामाजिक सरोकारों के प्रति बेहद गंभीर थे, यदि वे किसी समारोह में खुद न जा पाते तो उनका प्रतिनिधित्व भाभी जी को करना पड़ता था।
प्रदीप जी हास्य कवि से ज्यादा गंभीर गजलगो थे लेकिन बाजार में वे हास्य कवि के रूप में ही पहचाने गए। उनका अंतिम कार्यक्रम कपिल शर्मा के शो में काव्यपाठ था। वे अब चुपचाप चले गए हैं। उन्हें गालब्लैडर का कैंसर था, वे इसे चुपचाप पाले रहे, एक अनाम कविता की तरह। दुर्भाग्य से मैं उनसे चौदह हजार किमी दूर बैठा हूँ, उनके अंतिम दर्शन न कर पाने का क्षोभ मुझे जीवन पर्यन्त रहेगा। लेकिन मेरे लिए प्रदीप चौबे कभी नहीं मरेंगे। उनकी आलपिन हमेशा हमें चुभती रहेगी, हंसाती, गुदगुदाती रहेगी। जब भी कोई महफ़िल सजेगी प्रदीप जी के कहकहे कानों में गूंजेंगे। अलविदा प्रदीप जी…
(राकेश अचल की फेसबुक वॉल से साभार)