क्या भूलें, क्या याद करें-2
कल जब मैंने चुनाव पर कुछ लिखने का मन बनाया था और उसकी शुरुआत के रूप में धर्मवीर भारती जी की आपातकाल लागू होने के ठीक पहले लिखी गई कविता का चयन किया था तो कहीं से कहीं तक मुझे यह अनुमान नहीं था कि देर शाम होते होते भारत की वर्तमान राजनीति में भी कोई बूढ़ा कुछ कहता हुआ निकल आएगा। फर्क सिर्फ इतना है कि धर्मवीर भारती के समय के बूढ़े ने सड़क पर निकलकर अपनी बात कही थी और वर्तमान राजनीति का‘मार्गदर्शक’ बूढ़ा अपनी बात ब्लॉग के जरिये लोगों तक पहुंचा रहा है।
पहले जरा सुन लें कि आज के इस मार्गदर्शक बूढ़े यानी लालकृष्ण आडवाणी ने लिखा क्या है। नौ पैराग्राफ और 510 शब्दों के साथ मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा गया यह ब्लॉग 6 अप्रैल को मनाए जाने वाले भारतीय जनता पार्टी के स्थापना दिवस की याद से शुरू होता है और सभी को शुभकामनाओं के साथ समाप्त हो जाता है। मीडियावालों ने इस ब्लॉग को निचोड़ते हुए दो बातों को खबर बनाया है। पहली यह कि- ‘’जीवन का सिद्धांत, पहले देश, फिर पार्टी, फिर व्यक्ति’’ और दूसरी यह कि ‘’भाजपा ने कभी भी असहमति रखने वालों को दुश्मन या देशद्रोही नहीं माना।‘’
आप पूछ सकते हैं कि धर्मवीर भारती की कविता ‘मुनादी’ के बूढ़े और आज के इस बूढ़े में फर्क क्या है? मेरे हिसाब से एक मोटा फर्क तो यह है कि ‘मुनादी’में जिस बूढ़े का जिक्र है उसके बारे में एक कवि ने तत्कालीन समाज को झकझोर देने वाले अंदाज में अपनी बात कही है। ‘मुनादी’ के बूढ़े यानी जयप्रकाश नारायण की खासियत यह है कि वह ‘सच’ बोलता हुआ सड़कों पर निकल पड़ा है। उसकी कांपती, कमजोर आवाज में भी इतनी ताकत है या उसका इतना खौफ है कि बादशाह को यह मुनादी करवानी पड़ रही है कि लोग अपनी खिड़कियां और दरवाजे बंद कर लें।
इधर आज के बूढ़े की आवाज भी कांपती, कमजोर तो है लेकिन ‘सच’ का जो ताप मुनादी वाले बूढ़े में है, वह आज के ब्लॉग वाले बूढ़े में नहीं दिखाई देता। उसमें घर के एक ऐसे वृद्ध का उपदेश है जो गाहे बगाहे परिवारवालों को मिलता रहता है। फिर भी यदि आप आडवाणी के ब्लॉग में कुछ तेजाबी सूंघना ही चाहें तो मेरी राय में आपको ब्लॉग का अंतिम पैरा पढ़ना चाहिए।
इस अंतिम पैरा में आडवाणी लिखते हैं- ‘’बेशक, चुनाव हमारे लोकतंत्र का त्योहार है। लेकिन इसीके साथ वह भारतीय लोकतंत्र के सभी भागीदारों के लिए‘ईमानदार आत्मनिरीक्षण’ का अवसर भी हैं। इन भागीदारों में राजनीतिक पार्टियां, मास मीडिया, चुनाव करवाने वाले अधिकारी और सबसे ऊपर मतदाता शामिल हैं।‘’
मैं समझता हूं आडवाणीजी ने अपनी कांपती, कमजोर आवाज में जिस ‘सच’ को छूने की कोशिश की है वह मतदाताओं से ‘आत्मनिरीक्षण’ की अपेक्षा है। यानी परोक्ष रूप से आडवाणी चाहते हैं कि मतदाता पिछले चुनाव में किए गए अपने फैसले को इस बार पांच सालों के अनुभवों और सरकार के गुणदोषों के आधार पर तौलें।
आडवाणी लोगों से यह तो नहीं कह सकते थे कि आप मोदी सरकार का पूरा पोस्टमार्टम करें। फैसला करने से पहले सोचें कि पिछली बार जो निर्णय किया था वह सही था या गलत। लेकिन मोदी का नाम लिए बगैर उन्होंने चुनाव में भाजपा को फिर से मौका देने जैसी कोई अपेक्षा या अपील मतदाताओं से नहीं की है। बावजूद इसके कि वे अपनी बात ऐन चुनाव के समय लिख रहे हैं।
ऐसा लगता है कि ‘आत्मनिरीक्षण’ शब्द का इस्तेमाल कर आडवाणी अपने मन की उस पीड़ा को व्यक्त करना चाहते हैं जिसे उन्होंने इन पांच सालों में भोगा है। वे अपने ब्लॉग में भाजपा का गुणगान तो कर रहे हैं, लेकिन चुनाव में उसकी प्रचंड विजय की कामना नहीं कर रहे। वे ब्लॉग के अंत में भाजपा को विजयीभव का आशीर्वाद नहीं देते बल्कि ‘सभी’ को शुभकामनाएं प्रेषित करते हैं।
आडवाणी का ताजा ब्लॉग ठीक पांच साल बाद आया है। उन्होंने पिछला ब्लॉग 23 अप्रैल 2014 को पोस्ट किया था जिसमें चुनाव प्रचार अभियान के दौरान अपनी जनसभाओं को लेकर मीडिया द्वारा बनाई गई हेडलाइन्स शेयर की थीं। उसी ब्लॉग में 8 अप्रैल 2014 को पीटीआई के हवाले से शेयर की गई एक खबर में आडवाणी को यह कहते हुए कोट किया गया था कि- “There is no doubt among the people about whose government will come to power after the Lok Sabha polls and BJP and its allies are going to have an historic result”
यानी पांच साल पहले चुनाव प्रचार करने वाले आडवाणी को इस बात में कोई संदेह नजर नहीं आ रहा था कि लोकसभा चुनाव के बाद देश में किसकी सरकार बनने वाली है और वे बहुत आश्वस्ति के साथ यह घोषणा कर रहे थे कि भाजपा और उसके सहयोगी दल ऐतिहासिक विजय की ओर बढ़ रहे हैं। पर इस बार आडवाणी मतदाताओं से ‘आत्मनिरीक्षण’ की बात कर रहे हैं।
मैं आडवाणी जी के ताजा ब्लॉग से, इस बार के लोकसभा चुनाव परिणामों को लेकर कोई निष्कर्ष निकालने नहीं जा रहा हूं। हो सकता है मैंने जो आकलन किया है वह बाल की खाल निकालने वाली बात हो। लेकिन इससे आप इनकार नहीं कर सकते कि आडवाणी इस बार के नतीजों को लेकर आश्वस्त नहीं हैं।
सात दशकों का राजनीतिक अनुभव रखने वाले आडवाणी भले ही पिछले पांच साल से सिर्फ ‘मार्ग के दर्शक’ बनकर रह गए हों, लेकिन राजनीति की नब्ज पर उनकी पकड़ को आप आज भी कमजोर नहीं कह सकते। याद कीजिए, यह उन्होंने ही कहा था ना कि ‘’मैं आश्वस्ति के साथ नहीं कह सकता कि देश में अब फिर से आपातकाल जैसी स्थितियां नहीं बची हैं।‘’
आपातकाल के चालीस साल पूरे होने के मौके पर इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में उन्होंने यह भी कहा था कि मुझे देश में लोकतंत्र के प्रति समर्पण का अभाव नजर आता है। अब जरा इन दोनों बातों को आज की परिस्थितियों के संदर्भ में तौलकर देख लीजिए। क्या आपको आडवाणी के कथनों में दम नजर नहीं आता?
इसीलिए मैंने कहा कि आडवाणी की बूढ़ी आवाज में सच भले ही कमजोर और कांपती अवस्था में हो, लेकिन वह एक चेतावनी का संकेत तो देता ही है। भाजपा को दुआ करनी चाहिए कि इस ‘मार्गदर्शक’ ने अपने ब्लॉग के अंत में ‘सभी’ के लिए जो ‘शुभकामनाएं’ व्यक्त की हैं उनमें ‘सभी’ का अर्थ भाजपा या एनडीए ही हो…