किलो का वजन फिर से तय करने की मशक्कत!

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अजय बोकिल 
अगर वैज्ञानिकों को वजन की बुनियादी इकाई का भी फिर से वजन करने की जरूरत आन पड़ी है तो बात में वाकई दम है। इसलिए भी कि अमूमन वजन या नाप को लेकर लापरवाह अथवा कंजूस रहने वाले हम भारतीयों को यह बेकार का खटकरम लग सकता है।

साल 365 में से आधे दिन राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों और बकवास को जीवन का सत्य मानने या फिर मंदिर-मस्जिद में जीने वाले हम भारतीयों के लिए इस बात के खास मानी नहीं हैं ‍कि पेरिस में अति सुरक्षा में रखे आधारभूत किलोग्राम का वजन फिर से इसलिए तौला जा रहा है कि बीते सवा सौ सालों में आई तिल मात्र की गड़बड़ी भी इस तौल की वैज्ञानिक प्रामाणिकता को ठेस पहुंचा सकती है, उसे गलत साबित कर सकती है।

यह समझने के लिए विज्ञान का विद्यार्थी होना जरूरी नहीं है कि किलोग्राम (यानी एक हजार ग्राम) नाप तौल की उन सात मूलभूत इकाइयों में से एक है, जिनके आधार पर विज्ञान किसी भी वस्तु का मापन करता है। किलोग्राम के अलावा ये हैं कि मीटर, सेकंड, एंपियर, केल्विन, मोल और कैंडिल, जो क्रमश: लंबाई, समय, विद्युत धारा, तापमान, रासायनिक मात्रा तथा प्रकाश की तीव्रता मापने के लिए इस्तेमाल की जाती हैं।

किलो फ्रेंच भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है हजार। अब मानक एक किलोग्राम क्या है? तो इस सवाल का जवाब यह है कि पेरिस सेवर क्षेत्र में इंटरेनशनल ब्यूरो ऑफ वेट एंड मेजर्स के बेसमेंट में एक अति सुरक्षित जार में सिलेंडर के आकार का एक वजन रखा हुआ है। इसे इंटरनेशनल प्रोटो टाइप किलोग्राम (आईपीके) कहा जाता है।

माना जाता है कि जब इसे रखा गया था तो वह सौ फीसदी किलोग्राम था, लेकिन इतने सालो में वह अपना द्रव्यमान खोता जा रहा है। इसका निश्चित कारण क्या है, यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि सिलेंडर बनाते समय उसमें कुछ गैस रह गई थी, जो इतने सालों में धीरे-धीरे निकल रही है। इसलिए‍ किलो अब वैसा किलो नहीं रह गया है, जैसा कि उसे होना चाहिए। अर्थात उसे वजन का पूरी तरह प्रामाणिक पैमाना नहीं माना जा सकता।

इसलिए वैज्ञानिक अब एक किलोग्राम को नए सिरे से परिभाषित करने की तैयारी में जुटे हैं। उसे और बेहतर मानक बनाने पर काम कर रहे हैं। बताया जाता है कि इसकी परिभाषा तैयार करने के लिए क्वांटम और मॉलिक्यूलर भौतिकी का आधार लिया जा रहा है। क्वांटम भौतिकी एक जटिल विषय है। फिर भी आसानी से समझने के लिए मान सकते हैं कि सामान्य भौतिकी के अनुसार भौतिक वस्तुओं में समय के साथ परिवर्तन लाज़िमी होता है। लेकिन परमाणु स्तर पर ऐसा नहीं होता है।

इसलिए नए किलोग्राम को मानक दृष्टि से बेहतर विकल्प कहा जा सकता है। ध्यान रहे कि अभी तक किलोग्राम ही एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय इकाई है, जो किसी भौतिक नियतांक के बजाय किसी भौतिक वस्तु पर निर्भर है। आने वाले समय में किलोग्राम का मानक चेहरा कुछ अलग होगा, तथा पुराने मानक को अपनी इतने वर्षों की सेवा से निवृत्ति मिल जाएगी।
वैसे हम भारतीयों के लिए किलोग्राम शब्द बहुत ज्यादा पुराना नहीं है।

भारत सरकार ने 1958 में नाप तौल की नई और ज्यादा वैज्ञानिक एमकेएस प्रणाली लागू की। इसी के तहत वस्तुओं का वजन नापने के लिए पहली बार किलोग्राम का बांट चलन में आया। इसके पहले देश में फुट, पौंड, सेकंड प्रणाली लागू थी, जिसे अंग्रेजों ने शुरू किया था। इसके अलावा भी स्थानीय स्तर पर नापजोख की अन्य देसी पद्धतियां भी थी, ‍जिनकी कोई प्रामाणिकता नहीं थी।

वजन के लिए देश में अमूमन सेर और पाव ही माप हुआ करते थे। यह शब्द हमारे जन जीवन में इतना घुल मिल गया कि उसे मुहावरों में जगह मिली। जैसे कि सेर पे सवा सेर, या फिर टके सेर भाजी, टके सेर खाजा। आजादी के पहले जन्मी पीढ़ी को नए सिस्टम में एडजस्ट होने में वक्त लगा। वरना ‘मन लेहुं पर देहुं छंटाक नहीं’ वाली नाप तौल ही जनजीवन में रची बसी थी।

दूध को सेर से लीटर में नपने में काफी समय लगा। आज किलोग्राम नाप तौल में आम हो चुका है, लेकिन मुहावरों या लोकोक्तियों में उसे आज भी अपेक्षित जगह नहीं मिल सकी है। इसका कारण पेरिस में रखे किलोग्राम के प्रोटो टाइप का हल्का होना नहीं है, बल्कि हमारा लोक मानस शायद इतना राई रत्ती सही नाप तौल का आदी नहीं है। वह इसे तंग हाथ का पर्याय समझता है। वरना एक जमाना वो भी था, जब ज्यादा सब्जी लेने पर हरा धनिया बोनस में लेने और देने का रिवाज आम था।

अब लोग नाप जोख की बारीकियों और उसके आर्थिक मूल्य को समझने लगे हैं। इसलिए तराजू की जगह इलेक्ट्रानिक कांटे इस्तेमाल होने लगे हैं। न ज्यादा लेना, न ज्यादा देना। लेकिन वैज्ञानिक इतने लापरवाह नहीं होते। वो बहुत बारीकी में जाते हैं। अंतिम सत्य की खोज में रहते हैं। किसी सत्य को परम सत्य नहीं मानते। संदेह की दरार में नए विचार वृक्ष का बीज संजोए रहते हैं।

इसीलिए तय हुआ कि किलो का वजन कण भर भी घटा है तो ऐसा नहीं होना चाहिए। किलो को किलो ही होना चाहिए। उसकी पुरानी परिभाषा को ‘बाबा वाक्यम प्रमाणम्’ न मानकर आधुनिक संदर्भों में उसकी व्याख्या होनी चाहिए। इस बारे में वैज्ञानिक टेरी क्विन का कहना है कि किलोग्राम का नया वजन वैज्ञानिक मैक्स प्लैंक के क्वांटम‍ सिद्धांत पर आधारित होगा। यह पुरानी भार पद्धति के बजाए इलेक्ट्रिक, बल, ताप और प्रकाश पद्धति से किया जाएगा, जो तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय होगा।

कहने का तात्पर्य है कि चीजें बदलती हैं, उन्हें बदलना भी चाहिए, लेकिन तार्किक आधार पर। बदलनी है इसलिए बदलना है या फिर कुछ और नहीं बदल पा रहे तो उन्हें ही बदल दें, जिनको बदलने से कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है, यह मानसिकता पूरे समाज को उल दिशा में ले जाने वाली है। प्राकृतिक बदलाव और जबरिया बदलाव में घाल मेल ठीक नहीं है।

कहा तो यह भी जा सकता है कि जब किलो भी बदल रहा है तो महज नाम बदलने में क्या गलत है? ध्यान रहे कि किलो का वजन किसी ऐतिहासिक गलती को ठीक करने के लिए नहीं है, बल्कि मनुष्य सभ्यता को और ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय आधार पर आगे ले जाने के लिए है। और यह अंतिम सत्य भी नहीं है।

हो सकता है कि दो सौ साल बाद वैज्ञानिक को किलो का वजन फिर से निर्धारित करने की जरूरत आन पड़े, तो वो ऐसा जरूर करेंगे। हमारे लिए सांस्कृतिक राहत यह हो सकती है कि तब तक हम सेर की तरह कुछ किलोग्राम के मुहावरे भी तैयार कर लें, जो नाप तौल की प्रामाणिकता के प्रति हमारे लोक आग्रहों को भी प्रतिबिम्बित करे।
(‘सुबह सवेरे’ से साभार)

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