क्‍या हम ‘राष्‍ट्र‘ की इस खंडित मूर्ति को पूज पाएंगे?

डॉ. भीमराव आंबेडकर और गांधी के बीच कई बातों को लेकर मतभेद थे, लेकिन दोनों ने ही अपने विचार के केंद्र में भारतीय समाज के सबसे वंचित वर्ग की भलाई को रखा था। दोनों के बीच एक समानता यह भी थी कि दोनों ने भारत को जानने बूझने के बाद ही अपने विचार को आकार दिया था।

संविधान सभा की मसौदा समिति का अध्‍यक्ष रहते हुए डॉ. आंबेडकर ने सभा के समक्ष अपने अंतिम भाषण में कुछ ऐसी बातें कही थीं, जो आज करीब 70 साल बाद फलित होती नजर आ रही हैं। ऐसा लगता है कि जब बाबा साहब वह भाषण दे रहे थे, तब शायद वे भारत की कुंडली में आने वाली महादशाओं का उल्‍लेख कर रहे थे।

आज देश का जो सामाजिक परिदृश्‍य है, वह ठीक वैसा तो नहीं जैसा बाबासाहब और गांधी के समय था, लेकिन फिर भी इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि जातिगत और पंथगत विषमताएं इस दौर में कम होने के बजाय और बढ़ रही हैं। देश में एक नए तरीके के ‘जातीय संघर्ष’ के हालात पैदा हो रहे हैं।

और दुर्भाग्‍य से ये हालात प्रजा के द्वारा कम और राज्‍य के द्वारा अधिक पैदा किए जा रहे हैं। संयोग देखिये कि ठीक ऐसी ही आशंका बाबा साहब ने 25 नवंबर 1949 के अपने उस भाषण में जताई थी जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया है। उन्‍होंने अपनी आशंका को केवल भारत के सामाजिक तानेबाने के छिन्‍न भिन्‍न होने से ही नहीं जोड़ा था, बल्कि भारत की आजादी खो जाने का डर भी व्‍यक्‍त किया था।

उन्‍होंने कहा था- ‘’26 जनवरी 1950 को भारत एक स्वतंत्र देश होगा। (लेकिन) उसकी आजादी के साथ क्या होगा? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या वह फिर से हार जाएगा।… यह विचार मुझे भविष्य के लिए सबसे ज्यादा चिंतित करता है।‘’

सबसे बड़ी बात यह है कि आंबेडकर को आजादी खोने का उतना डर नहीं था जितना डर इस बात का था कि भारत पहले भी अपने ही कुछ लोगों की बेवफाई और विश्वासघात के चलते अपनी आजादी खो चुका है। शायद वे देख पा रहे थे कि ‘समाज की एकता’ से बेवफाई, आजाद भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा होगी।

इसीलिये वे अपने समय में ही यह मुद्दा उठाते हुए कहते हैं- ‘’मुझे चिंता इस बात की है कि हम जाति और पंथ जैसे अपने पुराने दुश्‍मनों के साथ आजाद भारत में प्रवेश कर रहे हैं। हम विविध और परस्‍पर विरोधी राजनीतिक दलों के साथ आजादी के प्रांगण में पैर रख रहे हैं।‘’

‘’अब महत्‍वपूर्ण बात यह है कि क्या भारत के लोग देश को अपने पंथ से ऊपर रखेंगे या फिर पंथ को देश के ऊपर? यदि पार्टियों ने पंथ को देश के ऊपर रखा, तो हमारी आजादी न सिर्फ दूसरी बार खतरे में पड़ेगी बल्कि हो सकता है कि हम हमेशा के लिए उसे खो दें।‘’

एक वह दौर था जब अंग्रेज गुलामी के बावजूद देश में व्‍यापक रूप से सामाजिक सुधार के आंदोलन चले। लेकिन आज का भारत एक बार फिर पंथ और जाति के भंवर में उलझता नजर आ रहा है। सारी चुनावी रणनीतियां पंथ और जाति को केंद्र में रखकर बनाई जा रही हैं। देश को पंथ या जाति से ऊपर रखने के बजाय पंथ या जाति को देश से ऊपर रखने का रास्‍ता चुना जा रहा है।

भारत की जिस पीढ़ी ने आजादी आंदोलन को खड़ा किया था, उसका मानना था कि आजाद भारत के लोगों को अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्‍य प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को ही मजबूती से पकड़े रखना होगा। लेकिन संविधान की 68 वीं वर्षगांठ आते आते हम संवैधानिक तौर तरीकों को त्‍याग कर, कबीलाई तौर तरीके अपनाने की ओर बढ़ रहे हैं।

गांधी मानते थे कि सामाजिक और आर्थिक उद्देश्‍यों की प्राप्ति के लिए साधन और साध्‍य दोनों ही पवित्र होने चाहिए। जबकि बाबा साहब इसके लिए‘संवैधानिक टूल्‍स‘ की बात करते थे। पर आज न तो गांधी का तरीका अपनाया जा रहा है और न ही आंबेडकर का।

आज या तो व्‍यक्ति पूजा का दौर है या फिर जाति पूजा का। विवेकानंद ने भारत के लोगों से जिस राष्‍ट्र को ‘जाग्रत देवता’ मानते हुए सिर्फ और सिर्फ उसे ही पूजने की बात कही थी, आज उस जाग्रत देवता के शरीर में जाति और पंथ की जहरीली सुइयां चुभोई जा रही हैं।

स्‍वतंत्रता आंदोलन के हमारे पुरखों का मत था कि भारत को केवल ‘राजनीतिक लोकतंत्र’ से ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। यह राष्‍ट्र तभी टिक सकता है,जब हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को ‘सामाजिक लोकतंत्र’ बनाएं। राजनीतिक लोकतंत्र को टिकाए रखने के लिए सामाजिक लोकतंत्र का आधार जरूरी है।

और इस सामाजिक लोकतंत्र का ढांचा स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के जरिये ही खड़ा किया जा सकता है। भारतीय समाज की संरचना या प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि उसमें ज्‍यादातर समस्‍याएं समानता और बंधुत्‍व के अभाव के कारण ही पैदा होती हैं।

हमें यह बात हमेशा याद रखनी होगी कि एक राष्‍ट्र के रूप में भारत सिर्फ निश्चित सीमांकन वाली भौगोलिक इकाई नहीं है, बल्कि अन्‍य देशों से अलग वह एक सांस्‍कृतिक बांडिंग वाले समाज के रूप में ‘राष्‍ट्रगत’ पहचान रखता है। ऐसी बांडिंग जिसके मूल में ‘अनेकता में एकता’ का तत्‍व विद्यमान है।

इस लिहाज से देखें तो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता, ये तीनों तत्‍व हमारे लोकतंत्र के त्रिदेव हैं, जिन्‍हें अलग नहीं किया जा सकता। इनमें से किसी एक को भी यदि अलग करने की कोशिश हुई तो मूर्ति ही खंडित हो जाएगी। और खंडित मूर्तियां न तो देवालय में रखी जाती हैं, न ही उनकी पूजा होती है…

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