अजय बोकिल
तमिलनाडु के तूतीकोरिन में वेदांता कंपनी के स्टरलाइट कॉपर प्लांट के खिलाफ भड़की हिंसा और 13 लोगों की मौत की दुखद घटना का राजनीतिकरण करने की जो कोशिश हो रही है, वह विपक्षी पार्टियों की अपरिपक्वता को ही रेखांकित करती है। सबसे आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी की थी। उन्होने ट्वीट कर इस हादसे के लिए आरएसएस को यह कहकर जिम्मेदार ठहराया कि उसकी विचारधारा को अस्वीकार करने पर तमिलों की हत्याएं की जा रही हैं।
राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी डीएमके के कार्यकारी अध्यक्ष एम. के. स्टालिन ने घटना की तुलना जलियांवाला बाग नरसंहार से कर डाली। वामपंथी पार्टियों सहित कई और क्षेत्रीय पार्टियों ने इस हादसे की आड़ में भाजपा पर निशाना साधा। विपक्ष के इस रवैए के बाद शुरू में बैक फुट पर खड़ी सत्तारूढ़ एआईडीएमके के मुख्यमंत्री ई.पलानीसामी ने विरोध प्रदर्शन कर रहे नागरिकों पर पुलिस के गोलीचालन को बेशरमी से सही ठहराया।
हालांकि घटना के बाद स्थानीय कलेक्टर, एसपी को बदला गया, प्लांट की बिजली काट दी गई और मामले की न्यायिक जांच का ऐलान भी किया गया है। लेकिन इस सारी उठापटक में कॉपर प्लांट जैसे भारी उद्योगों द्वारा बेखौफ फैलाए जा रहे पर्यावरण प्रदूषण और सत्ताधीशों और पूंजीपतियों के गठजोड़ का मुद्दा हाशिए पर चला गया।
तूतीकोरिन तमिलनाडु का तटीय शहर है। इसका असली नाम थूथुकोडी है। यह शहर समुद्र से मोती निकालने, मछली पकड़ने और नमक उद्योग के लिए जाना जाता है। इनके अलावा धातु अयस्कों के निष्कर्षण का काम भी यहां बड़े पैमाने पर होता है। इसी के तहत यहां स्टरलाइट कॉपर प्लांट की स्थापना की गई थी।
इस कारखाने की क्षमता 4 लाख टन प्रतिवर्ष है। यह उद्योग देश की 35 फीसदी कॉपर डिमांड को पूरी करता है। साथ ही बड़ी तादाद में कॉपर मध्य पूर्व को निर्यात किया जाता है। इसके मालिक वेदांता रिसोर्सेज के अनिल अग्रवाल हैं। कारखाने में करीब डेढ़ हजार लोग काम करते हैं।
घटना दूसरा पक्ष यह है कि भारी मात्रा में कॉपर (तांबा) तैयार के साथ यह कारखाना पर्यावरण संरक्षण नियमों का खुला उल्लंघन करता रहा है। इसकी भी तकरीबन वही कहानी है, जो हर बड़े उद्योग पर लागू होती है। पर्यावरण संरक्षण के कानून सख्त हैं, इसके उपाय भी अनिवार्य हैं, लेकिन ज्यादातर पूंजीपति उन्हें ठेंगे पर रखते हैं। वो इसे पैसा बर्बाद करना मानते हैं।
स्टरलाइट कॉपर प्लांट का लोग इसी कारण से विरोध करते आ रहे थे, क्योंकि इससे पूरे शहर का वायुमंडल प्रदूषित हो रहा था और लोगों में त्वचा और अन्य रोगों की शिकायतें बहुत बढ़ गई थीं। लोगों का यह भी कहना है कि प्लांट के कारण भूजल प्रदूषित हो रहा है। हालांकि कंपनी का दावा है कि वह पर्यावरण कानूनों का पालन करती रही है। जब राज्य में जयललिता सरकार थी तो उसने मद्रास हाइकोर्ट के आदेश के बाद प्लांट बंद करवा दिया था।
बाद में कंपनी सुप्रीम कोर्ट गई। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट का आदेश बदलते हुए इसे कंपनी पर सौ करोड़ के जुर्माने में बदल दिया। उधर तमिलनाडु प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने भी प्लांट बंद करने के आदेश दिए। इसके खिलाफ कंपनी एनजीटी से आदेश ले आई। फिलहाल मद्रास हाईकोर्ट ने कंपनी की विस्तार योजना पर रोक लगा दी है। बताया जाता है कि कंपनी अपनी उत्पादन क्षमता दोगुनी करने के लिए प्लांट का विस्तार करना चाहती है। क्योंकि दुनिया में कॉपर की मांग करीब 7 फीसदी की दर से बढ़ रही है।
स्थानीय लोगों का गुस्सा इसलिए बढ़ गया कि प्लांट का और विस्तार हुआ तो उनका जीना ही मुश्किल हो जाएगा। इसको लेकर मार्च से प्रदर्शन हो रहे थे, लेकिन 22 मई को इस प्रदर्शन ने भारी हिंसा का रूप ले लिया। राज्य सरकार की गलती यह है कि उसने लोगों के विरोध प्रदर्शन को गंभीरता से नहीं लिया। निश्चय ही इसके पीछे कंपनी के संचालकों का दबाव भी रहा होगा। दरअसल बंद प्लांट को फिर शुरू करने के पीछे एक बड़ी स्थानीय कार्गो कंपनी का भी दबाव है। क्योंकि स्टरलाइट उनकी बहुत बड़ी क्लायंट है।
कुल मिलाकर कहानी यह है कि आर्थिक-राजनीतिक स्वार्थों के बीच पर्यावरण की रक्षा और आम लोगों के स्वास्थ्य का मुद्दा प्राथमिकता में सबसे नीचे है। खास बात यह है कि स्टरलाइट ने पहले उन तीन राज्यों में प्लांट लगाने के प्रयास किए थे, जहां आज भाजपा की सरकारे हैं, लेकिन तमिलनाडु ने ही इसकी इजाजत दी।
पूरा मसला पेचीदा इसलिए है कि प्लांट के साथ डेढ़ हजार श्रमिकों व कर्मचारियों के हित भी जुड़े हैं। साथ ही शहर के पांच लाख लोगों के स्वास्थ्य और पूरे क्षेत्र के पर्यावरण को बचाने का सवाल भी है। ऐसे में कोई भी कदम बहुत सोच समझकर उठाना होगा।
लेकिन राजनीति तात्कालिक लाभ से संचालित होती है। राहुल गांधी ने जो कहा वह बेतुका इसलिए है कि यह प्लांट कोई आरएसस संचालित नहीं करता, न ही राज्य में भाजपा की सरकार है। अलबत्ता पलानीसामी सरकार पर मोदी सरकार का वरदहस्त जरूर है। कारखाने में काम करने वाले ज्यादातर तमिल ही हैं। प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाले पुलिस वाले भी तमिल हैं और मरने वाले भी तमिल ही हैं।
इस कांड की तुलना जलियांवाला बाग नरसंहार से करना भी सही इसलिए नहीं है कि वहां निहत्थे लोगों को घेरकर मारा गया था और वो कोई हिंसक प्रदर्शन भी नहीं कर रहे थे, जैसा कि तूतीकोरिन मामले में हुआ। इसका अर्थ पुलिस की ज्यादती को सही ठहराना नहीं है, लेकिन मामले को गलत मोड़ देने की जल्दबाजी भी उचित नहीं है। जो घटना घटी है, वह गंभीर है। देश में लगभग सभी राज्यों में ऐसे बड़े कारखाने हैं, जो पर्यावरण नियमों को धता बता रहे हैं, इनमें सार्वजनिक क्षेत्र के उद्दयोग भी हैं।
पूंजीपतियों से पर्यावरण नियमों का सख्ती से पालन करा सकने की हिम्मत कांग्रेस, भाजपा तो क्या किसी राजनीतिक दल में नहीं है। क्योंकि उन्हीं के चंदे से ये पार्टियां चल रही हैं। लेकिन इस हादसे को तमिल गैर तमिल संघर्ष का रूप देने की कोशिश न केवल तमिलनाडु बल्कि पूरे देश के लिए घातक है। कम से कम कांग्रेस को तो इससे बचना चाहिए।
(सुबह सवेरे से साभार)