हम मरीज को ठीक करने का काम चुनौती की तरह नहीं लेते

एक पखवाड़ा मौत के साथ- 11

ऐसा नहीं है कि दुनिया में चमत्‍कार नहीं होते। वे तो ऐसे ऐसे होते हैं कि आदमी चिता पर लिटा दिया गया हो और उसकी सांसें चलने लगती हैं और वह उठकर बैठ जाता है। लेकिन जरूरी नहीं कि ऐसे चमत्‍कार हरेक के साथ हों या वे आपकी किस्‍मत में भी हो। ज्‍यादातर मामलों में भाग्‍य नहीं, दुर्भाग्‍य बलवान होता है।

उधर रेबीज के सामान्‍य मरीजों के मामले में डॉक्‍टरों द्वारा तय की गई मौत की अवधि पूरी होती जा रही थी और इधर हम कभी कैलेंडर को देखते तो कभी अपने पेशेंट को। असहनीय दर्द और पानी पीने में दिक्‍कत की शिकायत के चलते हमने 4 मार्च 2018 को ममता को एक स्‍थानीय नर्सिंग होम में भरती कराया था और उसके बाद कई अस्‍पतालों से गुजरती हुई वह 6 मार्च को सिद्धांता रेडक्रॉस में भरती कराई गई थी।

19 मार्च की तारीख हो चुकी थी और चार मार्च के हिसाब से ममता को भरती कराए 15 दिन और 6 मार्च के हिसाब से 13 दिन हो गए थे। यानी वह डॉक्‍टरों के मुताबिक अब तक हो जाने वाली मौत की अवधि को पार कर चुकी थी। हमें खुद डॉक्‍टर ही बताते थे कि उसके बाकी अंग सामान्‍य तौर पर काम कर रहे हैं। बस उसे होश नहीं आ रहा और चूंकि होश नहीं आ रहा इसलिए वह वेंटिलेटर पर थी।

इस बीच जांचें लगतार चल रही थीं। 15 और 18 मार्च को डॉक्‍टरों ने उसकी रीढ़ की हड्डी के पानी (सीएसएफ) का नमूना फिर से जांच के लिए NIMHNS  बेंगलुरू भेजा था। बेहोशी की दवा रोक दिए जाने के बावजूद उसके होश में न आने के कारणों का पता लगाने के लिए उसका फिर से एमआरआई कराने का फैसला किया गया। उसे आईसीयू से निकालकर करीब चार किमी दूर एमआरआई सेंटर ले जाया गया। वह फिर एक कष्‍टप्रद प्रक्रिया से गुजरी।

इस एमआरआई की रिपोर्ट हमें देर शाम मिली। उसमें कोई गंभीर बात तो नहीं निकली थी लेकिन हां ममता के दिमाग में सूजन आ चुकी थी। डॉक्‍टरों ने कहा, कुछ बातों का पता सीटी स्‍कैन से चलता है इसलिए उसे फिर नीचे उतारकर सिद्धांता में ही सीटी स्‍कैन कराया गया। हमने डॉक्‍टरों से पूछा कैसी हालत है तो वे इतना ही बोले, कुछ कह नहीं सकते।

चूंकि मौत की निर्धारित मियाद निकल चुकी थी इसलिए हमने उम्‍मीद नहीं छोड़ी थी। मैंने डॉ. अनिल गुप्‍ता से पूछा- इतने दिन हो गए हैं, आप क्‍या कहते हैं… वे बोले कुछ समझ में नहीं आ रहा, अगर यह पेशेंट बच गया तो इसका केस दुनिया भर में रिपोर्ट होगा। रेबीज का पेशेंट ऐसे बचता नहीं है। पता नहीं ईश्‍वर को क्‍या मंजूर है…

मैंने और ज्‍यादा तसल्‍ली के लिए अपने इंदौर वाले डॉक्‍टर साहब से भी राय ली। वे 15 मार्च को ममता को देखने आए थे और उन्‍होंने 24 से 48 घंटे की बात कही थी लेकिन अब तक तो पूरे चार दिन निकल चुके थे। उन्‍होंने कहा- वेट एंड वॉच… मुझे याद है जब 12 मार्च को मेरी उनसे बात हुई थी तो उन्‍होंने दिलासा देते हुए कहा था- मुझे लगता है यदि अच्‍छी नर्सिंग और इंटेसिव केयर हो जाए तो पेशेंट इस स्थिति से उबर सकता है, पर बाद में वे खुद भी ममता को रेबीज ही कन्‍फर्म करके गए थे।

अच्‍छी नर्सिंग और इंटेसिव केयर की सलाह ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। चूंकि मेरा भी अस्‍पतालों से वास्‍ता पड़ता ही रहता है इसलिए अपने व्‍यक्तिगत अनुभवों से भी मैं महसूस करता हूं कि इस मामले में हमारे अस्‍पताल आज भी बहुत पीछे हैं। मेरा मानना है कि हमारे यहां अस्‍पताल की मशीनरी और डॉक्‍टर दोनों ही लकीर के फकीर की तरह अपने ‘प्रोटोकॉल’ के पालन में लगे रहते हैं।

जिसे मरीज की दिल से सेवा शुश्रुषा करना कहा जाता है मुझे अस्‍पतालों में उसका अभाव दिखता है। नर्सिंग या मेडिकल स्‍टाफ का काम मशीन की तरह सिर्फ समय पर दवा देना, समय पर बीपी या शुगर चैक करना, ऑक्‍सीजन लगाना या बंद करना, आते जाते पल्‍स व बीपी मॉनिटर की तरफ निगाह घुमा लेना वगैरह ही होता है।

अपवाद की श्रेणी में आने वाले उदाहरण छोड़ दें तो आमतौर पर ये लोग कभी मरीज को ठीक करने या उसे बिस्‍तर से उतारकर खड़ा करने के काम को चुनौती की तरह नहीं लेते। खुदा न खास्‍ता डॉक्‍टर के मुंह से यदि निकल जाए कि अब इस मरीज के बचने की गुंजाइश नहीं है, फिर तो तय मानिए, सारे लोग उसकी अंतिम सांस के इंतजार में लगे रहेंगे।

हो सकता है मैं गलत होऊं या लोगों के अनुभव मुझसे काफी अलग हों, लेकिन ज्‍यादातर मुझे अस्‍पताल के स्‍टाफ में यह संकल्‍पशक्ति नहीं दिखती कि मैं इस मरीज को ठीक करके रहूंगा। यह चुनौती का भाव नदारद होता है कि ऐसे कैसे यह मरीज मौत के मुंह में चला जाएगा, यदि जा भी रहा होगा या मौत उसके सिरहाने आकर खड़ी भी हो गई होगी तो भी मैं मरीज को उसके पंजों से छुड़ाकर ले आऊंगा।

आप मानें या न मानें, मरीज को दवाओं और मशीन के सहारे छोड़ देने की इस प्रवृत्ति ने भी संभवत: कई मरीजों की जान ली होगी। कई बार मरीज को मौत से लड़ने की ताकत देनी होती है, उसका हौसला बढ़ाना होता है, उसमें जीजीविषा जाग्रत करनी होती है, लेकिन संवेदना, भावना और समर्पण के बजाय हर काम घड़ी देखकर मशीनी ड्यूटी की तरह होता है। भले ही वो फिल्‍मी डॉयलाग हो लेकिन यकीन मानिए ‘जादू की झप्‍पी‘ असर तो करती है…

यदि कोई परिजन बीमार हो जाए और उसके अस्‍पताल में भरती होने की नौबत आ जाए तो अकेला मरीज ही नहीं उसके साथ साथ पूरा परिवार भी कोई कम शारीरिक और मानसिक पीड़ा नहीं भोगता। मेडिकल साइंस और डॉक्‍टरों के प्रयासों के कारण या उनके ‘बावजूद’ यदि आप भले चंगे होकर घर आ जाएं तो यकीन मानिए उसमें आपके पूर्व जन्‍म के पुण्‍यों या पूर्वजों की पुण्‍याई का बहुत बड़ा योगदान है…

20 मार्च की तारीख हो चुकी थी, हमारी दिनचर्या लगभग एक रूटीन की तरह हो चली थी। वो दिन भी सामान्‍य दिनों की तरह था। दिन में हमें डॉक्‍टरों ने हिंट किया कि आज ममता की हालत कुछ गड़बड़ है। इस सूचना ने हम सभी को तनाव में ला दिया। हमारी निगाहें ऊपर आईसीयू की तरफ लगी थीं… पता नहीं वहां से कब, कौनसी सूचना आ जाए…

सोमवार को पढ़ें- और जब आधी रात को अस्‍पताल से फोन आया…

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